शनिवार, 31 दिसंबर 2022

क्या भारत खाद्य तेल में आत्मनिर्भर हो जाएगा?

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 2030 तक देश को खाद्य तेल में आत्मनिर्भर बनाने की घोषणा की है। यानी उसके बाद आयात को पूरी तरह बंद करने का संकल्प जताया है। यह नहीं भूलना चाहिए कि मोदी की घोषणा मध्यम अवधि में खाद्य तेल की बढ़ती कीमतों की पृष्ठभूमि है। मौजूदा वैश्वीकरण विरोधी लहर के साथ-साथ बढ़ते आयात-निर्यात का अंतर, रुपये और डॉलर जैसी विदेशी मुद्राओं में गिरावट देखते  यह दृढ़ संकल्प सही है। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या घरेलू हालात, सरकार की नीतियां इसके लिए अनुकूल हैं। जनसंख्या, आय में वृद्धि, बढ़ता शहरीकरण, उपभोक्तावाद में उछाल खाद्य तेल की मांग में लगातार वृद्धि कर रहा है।

छोटी अवधि (1994-95 से 2014-15) के दौरान खाद्य तेल की प्रति व्यक्ति खपत 7.3 किलोग्राम से बढ़कर 18.3 किग्रा हो गया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस दौरान यह और बढ़ेगा। भारत खाद्य तेल की खपत में दुनिया में दूसरे स्थान पर है। मांग के अनुपात में उत्पादन नहीं बढ़ने के कारण आयात पर निर्भर रहना पड़ता है। भारत ने दुनिया के सबसे बड़े आयातक के रूप में प्रतिष्ठा स्थापित की है। आंकड़े अकेले नवंबर महीने में आयात में 34 फीसदी की बढ़ोतरी दिखा रहे हैं। खनिज तेल के बाद आयात में खाद्य तेल का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण क्रमांक लगता है। इसलिए बढ़ते व्यापार घाटे में खनिज तेल जितना ही इस तेल का भी योगदान है। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश देश के प्रमुख तिलहन उत्पादक राज्य माने जाते हैं। इस में महाराष्ट्र शीर्ष पर है और मध्य प्रदेश दूसरे स्थान पर है।

खाद्य तेल की मांग बढ़ रही है, लेकिन खेती और उत्पादकता के तहत क्षेत्र नहीं बढ़ रहा है। पिछले दो दशकों से मानो उत्पादकता स्थिर है।  2015-16 में 795 किग्रा  प्रति हेक्टेयर उत्पादकता 2019-20 में 925 किलोग्राम हो गई है, बस इतना ही बदलाव है! तिलहन की खेती का क्षेत्रफल बढ़ नहीं रहा है क्योंकि सोयाबीन आदि तिलहनों की जगह गन्ना, केला, रबर जैसी फसलों ने ले ली है। किसानों का पक्ष जीतने के लिए सरकार द्वारा तिलहन के लिए गारंटीकृत मूल्य की घोषणा की जाती है। लेकिन चूंकि बाजार में कीमत गिरने के बाद खरीद की जाती है, इसलिए किसान को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। अध्ययनों से पता चला है कि तेल आयात पर कर की दर और आत्मनिर्भरता के विकल्प के रूप में घरेलू उत्पादन के बीच घनिष्ठ संबंध है। यदि कर की दर कम है, तो आयात बढ़ने पर घरेलू उत्पाद नहीं बढ़ता है। यदि कर अधिक होता है, तो आयात अधिक महंगा हो जाता है और घरेलू उत्पादन में वृद्धि होती है और देश आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ता है। अमेरिका और जापान सहित सभी उन्नत देशों ने अपने विकास के प्रारंभिक चरणों में आयात पर उच्च कर लगाकर अपने घरेलू उद्योगों को प्रतिस्पर्धा से बचाया था।

खाद्य तेल के आयात पर शुल्क लगाने के संबंध में दीर्घकालिक नीति का अभाव प्रतीत होता है। अब तक की नीतियों से स्पष्ट है कि किसानों के ऊपर उपभोक्ताओं और व्यापारियों के हितों को प्राथमिकता दी गई है। कुछ महीने पहले खाद्य तेल की कीमतों को लेकर काफी हंगामे के बाद सोयाबीन, सूरजमुखी, पाम तेल पर का कर पहले से ही घटाकर शून्य प्रतिशत कर दिया गया था। चूंकि खाद्य तेल के आयात को पहले ही लाइसेंस मुक्त (ओजीएल) कर दिया गया है, इसलिए आयात में वृद्धि से कीमतों में तेज गिरावट आई है। सोयाबीन तेल की कीमत 200 रुपये (प्रति किलो) से तेजी से गिरकर 160 रुपये पर आ गई। शून्य प्रतिशत कर छूट 2023-24 तक जारी रहेगी। इसका मतलब यह है कि तब तक सोयाबीन सहित सभी तिलहनों की कीमतों में उल्लेखनीय वृद्धि की संभावना नहीं है। अगर रेट किसान के लिए फायदेमंद नहीं हैं तो सवाल उठता है कि उत्पादन कैसे बढ़ेगा?

लोकसभा चुनाव 2024 में हैं। ऐसा लगता है कि चुनाव संपन्न होने तक सत्ताधारियों ने इस बात का ध्यान रखा है कि तेल की कीमतों को लेकर जनता में नाराज़गी पैदा न हो। अटल बिहारी के नेतृत्व वाली सरकार के समय यही दर 70 प्रतिशत थी और इसके सकारात्मक परिणाम तिलहन के उत्पादन में वृद्धि के रूप में भी देखने को मिले। अभी तक कोई भी देश घरेलू उत्पादन बढ़ाए बिना आत्मनिर्भरता हासिल नहीं कर पाया है। कम आयात शुल्क और आत्मनिर्भरता के बीच विरोधाभास पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है। शून्य प्रतिशत कर और अप्रतिबंधित आयात आत्मनिर्भरता नहीं बल्कि निर्भरता की ओर ले जाते हैं। भारत के मामले में भी यही हो रहा है। तेल की बढ़ती कीमतों पर लगाम लगाने के लिए सरकार ने न केवल आयात शुल्क की दर को शून्य कर दिया, बल्कि व्यापारियों, स्टॉकिस्टों और तेल उत्पादकों द्वारा तिलहन और तेल के भंडारण की सीमा निर्धारित करके इसे सख्ती से लागू किया। इससे तिलहन की कीमतों में गिरावट आई है। जाहिर तौर पर इसका असर किसानों पर पड़ा।  यह सीमा 31 दिसंबर तक रहेगी। यानी तब तक रेट में कोई बढ़ोतरी नहीं होगी, उसके बाद अगर रेट बढ़ता है तो इससे किसानों को कोई फायदा नहीं होगा। क्योंकि उस समय किसान के पास बेचने के लिए सोयाबीन नहीं होगा.  जीएम बीजों पर सरकार की नीति इसी तरह भ्रमित करने वाली है।  कई देशों ने जीएम बीजों के प्रयोग से उत्पादन बढ़ाया है और लागत कम की है।

हालांकि, हमारे यहां ऐसे बीजों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध है। कई स्थगन के बाद जीएम सरसों के उपयोग की अनुमति दी गई। यह भी सीमित बीज उत्पादन के लिए  है। इसके बारे में मजेदार बात यह है कि भले ही हमारे पास ऐसे बीजों पर प्रतिबंध है, जीएम बीजों का व्यापक रूप से उन देशों में उपयोग किया जाता है जहां से भारत खाद्य तेल आयात करता है (ब्राजील, अर्जेंटीना, यूक्रेन)।  सरकार को इसमें कुछ भी गलत नहीं दिख रहा है। बी  वी  मेहता, जो कभी सॉल्वेंट एक्सट्रैक्टर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के कार्यकारी निदेशक थे, ने 2013 में खाद्य तेल के बढ़ते आयात पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा था कि यह देश और किसानों के लिए खतरनाक है। नतीजा वही रहा।  2010 में देश का 42 फीसदी खाद्य तेल आयात होता था, अब यह आंकड़ा 60-70 फीसदी हो गया है। अगर घरेलू उत्पादन बढ़ाने के प्रयास नहीं किए गए तो यह और बढ़ सकता है। मोदी के संकल्प के अनुरूप देश 2030 तक खाद्य तेल में आत्मनिर्भर हो सकता है। वह क्षमता निश्चित रूप से हमारे किसानों में मौजूद है। उन्होंने सत्तर के दशक में देश को खाद्यान्न में आत्मनिर्भर बनाकर भी दिखाया है। केवल गुणवत्तापूर्ण बीज, सिंचाई की सुविधा, खाद देने से उत्पादन नहीं बढ़ेगा बल्कि उत्पादन लागत और खरीद गारंटी के आधार पर गारंटीकृत मूल्य के साथ आयातित तेलों पर कर की दर बढ़ाकर इसे लाइसेंस मुक्त सूची से बाहर कर दिया जाए तो ही प्रधानमंत्री मोदी का सपना बन सकता है। , अन्यथा नहीं। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली। महाराष्ट्र।

मंगलवार, 27 दिसंबर 2022

(बाल कहानी) सेवा का फल

मोरगाँव नाम का एक गाँव था। उस गाँव में नंदू नाम का एक बहुत गरीब;  लेकिन मेहनती और परोपकारी लड़का था। उसके घर की स्थिति बहुत ही खराब थी। इसलिए उसे बचपन से ही छोटे-मोटे काम करने पड़ते थे। ऐसे छोटे-छोटे दैनिक कार्य करके वो अपनी शिक्षा का खर्च चला रहा था। नंदू के मोरगांव में सरकारी अस्पताल बनने से गांव के साथ साथ आसपास के गांवों के मरीजों की भी सुविधा हो गई। शहर के महंगे निजी अस्पतालों में गरीब नहीं जा पाता था। लिहाजा इस अस्पताल में लोगों की भीड़ लगनी शुरू हो गई। जाहिर है, अस्पताल की व्यस्तता भी बढ़ी। एक बार अचानक आसपास के गांवों में किसी तरह की बीमारी फैल गई। बुजुर्ग नागरिकों को अचानक बुखार आ जाता था, हाथ-पैर के जोड़, घुटने बहुत सख्त हो जाते थे और उनके हाथ- पाँव की ताकत चली जाती थी। अस्पताल में अचानक बुजुर्ग मरीजों की संख्या बढ़ गई।परिचारक उनकी सेवा करने में असफल होने लगे।  नंदू यह जानता था। उसने मरीजों की सेवा करने के लिए रोज सुबह-शाम अस्पताल जाने का फैसला किया। 

शाम को वह तुरंत अस्पताल गया। वहां जाकर उसने सबसे पहले वहां के मुख्य चिकित्सक से मुलाकात की। डॉक्टर उसके इस उदार रवैये से अच्छी तरह वाकिफ थे। वे नंदू के फैसले से खुश थे। उन्होंने झट से नंदू को हाँ कर दी। उसी दिन से नंदू की  मरीजों की देखभाल शुरू हो गई। 

कई दादा-दादी के पास अस्पताल में रहने के लिए कोई करीबी या दूर का रिश्तेदार नहीं था। ऐसे रोगियों को समय पर उचित दवा देना, जो लोग ठीक से खा नहीं सकते उन्हें अपने हाथों से खिलाना, गर्म पानी की थैली से उनके जोड़ों को भूनना, तेल मालिश करना, कपड़े को गर्म पानी में भिगोकर निचोड़ कर निकाल लेना और गर्म गीले कपड़े से  मरीजों के बदन पोंछ लेना, अस्पताल की चादरें गर्म पानी से धोना ऐसा काम वह खुशी-खुशी सुबह-शाम  करने लगा। 

जब दिनेश जैसे उसके करीबी दोस्तों को पता चला कि नंदू अस्पताल में सेवा दे रहा है, तो वे नंदू के साथ मरीजों की सेवा के लिए वहां आने लगे। डॉक्टरों का काम भी आसान हो गया। सभी के सहयोग से अस्पताल में प्रतिदिन सफाई अभियान चलाया गया। नतीजा यह हुआ कि बीमारी भाग गई। सभी दादा-दादी ठीक हो गए। डॉक्टर ने नंदू की सेवा से प्रसन्न होकर इसकी सूचना शासन को दी। जिलाधिकारी ने भव्य समारोह में नंदू को सम्मानित किया। समाचार पत्रों ने भी उसकी उपलब्धियों पर ध्यान दिया। सभी ग्रामीणों ने उसकी प्रशंसा की। उनकी स्तुति के शब्द सुनकर नंदू बहुत प्रसन्न हुआ। दिलचस्प बात यह है कि जब उस अस्पताल के सभी डॉक्टरों ने उसकी आगे की पढ़ाई की जिम्मेदारी ली तो उसे लगा कि उसके काम का वाकई सार्थक हो गया। बड़े होने पर उसने डॉक्टर बनने का फैसला किया। -प्रा. देवबा पाटील (अनुवाद- मच्छिंद्र ऐनापुरे) 

(बालकहानी) श्रुति का संकल्प

आज 31 दिसंबर है।  श्रुति थोड़ी परेशान होकर घर आई। उसका कारण भी वैसाही था। क्लास में, उसकी मैडम ने उससे नए साल का संकल्प मांगा। वह परेशान थी क्योंकि वह दूसरों से अलग संकल्प नहीं कह सकी थी। ऐसे ही वह घर आ गई और तुरंत अपनी मां के साथ मौसी के पास चली गई। वहां मौसी की बेटी का जन्मदिन था। भोजन योजना बहुत बढ़िया थी। गुलाब जाम, केक, कचौरी और पुलाव सब कुछ श्रुति के पसंद का था। पर उसने एक ही गुलाबजाम खाया और डिश बेसिन में रख दी। मौसी ने देख लिया। श्रुति भूखी रहती, इसलिए उसकी माँ के कान पर रख दी। जब वह घर आई तो मां श्रुति पर बहुत नाराज हुईं। अगर  खाना नहीं चाहती थी, तो तुम मेरे पास क्यों नहीं लायी?'  इत्यादि इत्यादि। 

"मुझे उसमें से कुछ भी पसंद नहीं आया," श्रुति ने गुस्से में कहा। तभी बाबा भी आये। वह भी श्रुति पर नाराज हुए और उन्होंने उसे समझाया भी। श्रुति नाराज मन से सिर नीचे किए कुर्सी पर बैठी थी। टीवी पर खबरें चल रही थीं। श्रुति के पिता समाचार सुन रहे थे। श्रुति ने सहजता से ऊपर देखा। उसने मेलघाट में कुपोषित बच्चों को टेलीविजन पर देखा और तुरंत पूछा," पापा, ये बच्चे इतने सूखे क्यों हैं?"

 "बेटा, उन्हें पर्याप्त भोजन नहीं मिलता है, इसलिए उन्हें प्रोटीन, विटामिन, खनिज नहीं मिलते हैं, इसलिए वे बहुत निर्जलित हैं।" बाबा ने कहा।

इतने में माँ बाहर आयी और बोली, “और जिन्हें भोजन मिलता है वे फेंक देते हैं। श्रुति ऐसे खाने को फेंकना नहीं चाहिए। " 

मेरे कार्यालय में, एक खानपान बोर्ड लगता है कि प्लेट में कितना खाना बचा है और कितने लोग इसे खा सकते हैं।"  बाबा ने कहा।

श्रुति ने उत्साह से उछल कर अपनी माँ से कहा,"माँ, मुझे नए साल का संकल्प सूझ गया। मैं फिर कभी प्लेट में खाना नहीं रखुंगी। " (बालभारती से छठी कक्षा के पाठ का अनुवाद)  अनुवाद -मच्छिंद्र ऐनापुरे

सोमवार, 26 दिसंबर 2022

(जापान की बालकहानी) जिज़ो देवता

एक गाँव में मोसाकू नाम का एक गरीब लड़का अपने माता- पिता के साथ एक छोटी सी झोपड़ी में रहता था। वह अपने माता-पिता की बनाई सुंदर टोपियों को बाजार ले जाकर बेचता था। अगले दिन त्योहार था। उन दोनों ने रंग-बिरंगी, आकर्षक टोपियाँ बनाईं और मोसाकू से कहा कि इसे बाज़ार ले जाकर बेच दो; लेकिन दुर्भाग्य से अचानक मौसम बदल गया। तेज हवा चलने लगी। बर्फ़ीला तूफ़ान शुरू हो गया है। कोई घर से बाहर नहीं निकला। अगले दिन के त्योहार की खुशी कहीं नजर नहीं आ रही थी। इतनी भयानक ठंड का सामना करते हुए बेचारा मोसाकू किसी तरह बाजार पहुंच गया। बाजार सुनसान सा नजर आया। वहाँ एक कोने में जगह पाकर मोसाकू जोश से चिल्लाने लगा। 

"टोपी  ले लो टोपी ।  रंगीन, सुंदर आकर्षक टोपियाँ।”
मोसाकु जानता था कि अगर आज टोपियाँ नहीं बिकीं, तो उसे और उसके माता-पिता को भूखे पेट सोना पड़ेगा, और दूसरे दिन पर्व का था। मेहमान, रिश्तेदार सब मिलने आएंगे, तो  उनका आवभगत कैसे करेंगे? टोपियां नहीं बिकेंगी तो पैसे कैसे बनेंगे? पैसा नहीं तो कुछ नहीं होगा... मोसाकू बहुत चिंतित था। 
अंत में हताशा में, वह टोपी का थैला लेकर घर लौटने लगा। उसने दूर से कुछ बच्चों को देखा। वे लाल रंग के कपड़े में लिपटे हुए थे। यह सोचकर कि उसे घर जाने के लिए अच्छी कंपनी मिलेगी, वह तेजी से आगे बढ़ा। लेकिन क्या आश्चर्य! वे बच्चे जिजो देवताओं की मूर्तियाँ थे! कहा जाता है कि जिजो देवता छोटे बच्चों की बुराई से रक्षा करते हैं। उसे लगा कि ये मूर्तियाँ सचमुच ठंड से काँप रही हैं। चूंकि मूर्तियों के सिर पर कुछ नहीं था, इसलिए उनके सिर पर धीरे-धीरे बर्फ जमा होने लगी थी।  मोसाकू मूल रूप से बहुत स्नेही था । यह सोचकर कि उसकी बिना बिकी टोपियाँ काम आएगी, उसने प्रत्येक मूर्ति पर एक एक टोपी रख दी। दस मूर्तियाँ थीं, लेकिन उसके पास केवल नौ टोपियाँ थीं।  अब क्या करें? कोमल हृदय वाले मोसाकू ने तुरंत अपनी टोपी उतारी और मूर्ति पर रख दी। फिर वह संतुष्ट, प्रसन्न होकर घर लौटा। 

माता-पिता मोसाकू का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। मोसाकु ने जो कुछ हुआ था उसकी वास्तविकता को दोहराया;  लेकिन अब सवाल था कि रात के खाने का क्या करें? अंत में एक कण भी खाए बिना तीनों सो गए । मोसाकु थक कर सो गया; लेकिन उसकी मां अगले दिन के त्योहार की चिंता में जागती रही। आधी रात को किसी ने धीरे से दरवाज़ा खटखटाया। माँ दरवाजा खोलती है और देखती है, दरवाजे पर दस बच्चे खडे  हैं। हाथ में अलग-अलग डिब्बे थे। मोसाकु की टोपी पहने हुए दसवें लड़के के हाथ में एक बड़ा बक्सा था। इस में कीमती सामान था। मोसाकु के घर में लाई गई हर चीज को रखते हुए उसने कहा, "हम वो बच्चे हैं जिन्हें मोसाकू ने टोपियां दीं।"  

उस दिन से मोसाकु के जीवन में किसी चीज की कमी नहीं रही।  मोसाकु के गुणों से प्रसन्न होकर, जिज़ो देवताओं ने उसका जीवन सुख और संतोष से भर दिया। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली। महाराष्ट्र। 

रविवार, 25 दिसंबर 2022

पूर्वोत्तर क्षेत्रों में होगा विकास का सूर्य उदय

उत्तर पूर्व भारत के सात राज्य भारत के सबसे संवेदनशील क्षेत्रों में गिने जाते हैं। ये सात राज्य हैं असम, त्रिपुरा, मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश। उन्हें सप्त भगिनी (सेव्हन सिस्टर) कहा जाता है। यह क्षेत्र बांग्लादेश, म्यांमार, चीन और नेपाल के देशों से घिरा हुआ है। यह भारत से 70 किलोमीटर लंबी लाइन से जुड़ा हुआ है। यहां के लोग मुख्य रूप से गिरिजन यानी विभिन्न स्थानीय जनजातियां हैं जो पहाड़ियों में रहते हैं और अपनी पहचान बनाए रखते हैं। इस क्षेत्र में 160 से अधिक बोलियाँ बोली जाती हैं। नॉर्थ ईस्टर्न कौन्सिल पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्रालय के प्रशासनिक अधिकार क्षेत्र में है। 1971 में संसद के एक अधिनियम (1971 के अधिनियम  क्र. 84) द्वारा स्थापित, परिषद का उद्घाटन 7 नवंबर 1972 को शिलांग, मेघालय में किया गया था।

इसके जरिए सरकार ने समेकित विकास प्रयासों का एक नया अध्याय शुरू किया। सिक्किम को 2002 में इस कौन्सिल (परिषद) में आठवें सदस्य के रूप में जोड़ा गया था, जिसमें मूल रूप से अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा नाम के सात राज्य शामिल थे।  प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में दो राज्यों त्रिपुरा और मेघालय का दौरा किया था।  वहां 6,800 करोड़ रुपये की लागत वाली विभिन्न परियोजनाओं का शुभारंभ किया गया। इन परियोजनाओं में आवास, सड़क निर्माण, कृषि, सिंचाई, दूरसंचार, सूचना प्रौद्योगिकी, पर्यटन और आतिथ्य व्यवसायों से संबंधित पहल शामिल हैं।

केंद्र सरकार अरुणाचल प्रदेश में फ्रंटियर हाईवे का निर्माण करेगी।  इस हाईवे को अगले पांच साल में पूरा करने के लिए प्रोजेक्ट में तेजी लाई गई है। तिब्बत-चीन-म्यांमार से सटी भारतीय सीमा के बेहद करीब इस हाईवे के बनने से सेना की आवाजाही में आसानी होगी। तवांग में चीनी और भारतीय सैनिकों के बीच हालिया झड़प के मद्देनजर इस परियोजना को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है।  इस प्रोजेक्ट पर 27 हजार करोड़ रुपए खर्च होंगे। फ्रंटियर हाईवे को NH-913 नाम दिया गया है और इसकी लंबाई 1748 किमी है। इस हाईवे का निर्माण सड़क परिवहन मंत्रालय द्वारा किया जा रहा है और सीमा क्षेत्र को विकसित करने के उद्देश्य को ध्यान में रखा गया है। यह हाईवे बोमडिला से शुरू होगा। आगे यह नफरा, हूरी और मोनिगोंग दर्रे से होकर गुजरेगी। ये दोनों पॉर्डट्स भारत-तिब्बत सीमा के काफी करीब हैं। यह चीन सीमा के पास जिदो और चैंकवेंती के पास पैतामधन भी जाएगी। पूरा राजमार्ग नौ पैकेजों में है और भारत-म्यांमार सीमा के पास विजयनगर तक जाएगा। चूंकि इस क्षेत्र में कोई मौजूदा सड़क नहीं है, इसलिए इस सड़क का निर्माण हरित क्षेत्र में किया जाएगा। इसमें पुल और सुरंग भी होंगे।  इस प्रोजेक्ट की पूरी डिजाइन 2024-25 तक तैयार हो जाएगी और इसका निर्माण भी अगले पांच साल में पूरा हो जाएगा। काम 2026-29 तक पूरा होने की उम्मीद है। राजमार्ग विकास को बढ़ावा देगा और स्टेम माइग्रेशन में भी मदद करेगा, खासकर सीमा के पास के इलाकों में।

निर्माण परियोजना के तहत बने मकानों का वितरण त्रिपुरा की राजधानी अगरतला में किया गया। इस योजना से दो लाख परिवार लाभान्वित होंगे।  केंद्र सरकार ने त्रिपुरा के लिए 4,350 करोड़ रुपये की विभिन्न परियोजनाएं प्रदान की हैं और उन्हें प्रधान मंत्री मोदी द्वारा लॉन्च किया गया था। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत त्रिपुरा में वर्ष 2022-23 में 1 लाख 39 हजार 520 आवास का लक्ष्य प्राप्त कर लिया गया है। कोन्सिल (परिषद) ने सलाहकार निकाय और योजना निकाय के रूप में पूर्वोत्तर क्षेत्र के सामाजिक-आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। रीजनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज, नॉर्थ ईस्ट पुलिस एकेडमी, शिलांग, नॉर्थ ईस्ट रीजन इंस्टीट्यूट ऑफ वॉटर एंड लैंड मैनेजमेंट, तेजपुर, नॉर्थ ईस्टर्न स्पेस एप्लीकेशन सेंटर, शिलांग, डॉ.  परिषद की मदद से भुवनेश्वर बोरुआ कैंसर संस्थान, गुवाहाटी आदि संस्थानों की स्थापना की गई है। 11,500 किमी से अधिक सड़कों का निर्माण किया गया।  694 मेगावाट विद्युत उत्पादन क्षमता स्थापित की गई। लगभग 9,000 किमी की पारेषण और वितरण लाइनों का निर्माण किया गया है। अधोसंरचना में सुधार किया गया। इसके तहत पांच प्रमुख हवाई अड्डों और 11 अंतरराज्यीय बस टर्मिनस परियोजनाओं और चार अंतरराज्यीय ट्रक टर्मिनस परियोजनाओं के सहयोग से अंतरराज्यीय व्यापार और संचार को सुगम बनाने के प्रयास किए गए।

शिक्षा, स्वास्थ्य, खेल, जल संसाधन, कृषि, पर्यटन और उद्योग आदि क्षेत्रों में हुई प्रगति से पूर्वोत्तर क्षेत्र को बहुत लाभ हुआ है। 1972 से, परिषद विभिन्न पूर्वोत्तर राज्यों और राष्ट्रीय राजधानी में सत्तर बार आयोजित की चुकी है। 2016 में शिलांग में आयोजित परिषद के 65वें पूर्ण सत्र के विचार-विमर्श के बाद, राज्यों के प्रयासों को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक संसाधनों, ज्ञान और विशेषज्ञता से सुसज्जित एक अत्याधुनिक संसाधन केंद्र स्थापित करने के लिए कदम उठाए गए। परियोजनाओं की योजना बनाने और उन्हें लागू करने, अनुसंधान और नवाचार को बढ़ावा देने और क्षेत्र के लिए एक रणनीतिक दृष्टि प्रदान करने के लिए एक कार्यान्वयन एजेंसी ए  पी  जे अब्दुल कलाम सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च एंड एनालिसिस की स्थापना अक्टूबर 2016 में आयआयएम शिलांग के तहत की गई थी और नॉर्थ ईस्ट रिसोर्स सेंटर की स्थापना दिसंबर 2021 में नॉर्थ ईस्ट काउंसिल में की गई थी।

हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए उत्तर पूर्वी परिषद ने पूर्वोत्तर राज्यों के विश्वविद्यालयों और सरकारी कॉलेजों को अपने स्वयं के परिसरों में अपने पुस्तकालयों में हिंदी विभाग स्थापित करने और मजबूत करने में मदद करने की पहल की है। पहले चरण में, हाल ही में स्वर्ण जयंती समारोह के दौरान पांच राज्यों में समर्थित 21 हिंदी पुस्तकालयों का उद्घाटन किया गया। त्रिपुरा की राजधानी अगरतला और अखौरा-बांग्लादेश के बीच 980 करोड़ रुपये की लागत से एक रेलवे लाइन परियोजना चल रही है। 15.6 किमी लंबी रेलवे लाइन गंगासागर-बांग्लादेश को भारत में निश्चिंतपुर और वहां से अगरतला तक जोड़ती है। निश्चितपुर में एक ट्रांसशिपमेंट यार्ड भी है।  इस रेल लाइन से उन्हें भी फायदा होगा।

कई पर्यटक सामान्य से अलग तरीके से पर्यटन का आनंद लेने के लिए इस क्षेत्र में आते हैं। बरसात के मौसम में भी यहां दर्शनार्थियों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक रहती है। चेरापूंजी, मानसिंगराम जैसे भारी वर्षा वाले क्षेत्र में आनंद लेने के लिए देश भर से पर्यटक इस क्षेत्र में आते हैं। चेरापूंजी में 'सेवन सिस्टर फॉल्स' उत्तर पूर्व भारत में एक प्रमुख पर्यटक आकर्षण बन गया है। यहां के सात राज्यों के संदर्भ में फॉल्स का नाम 'सेवन सिस्टर्स' रखा गया है। यह झरना पहाड़ की चोटियों से सात अलग-अलग जगहों पर गिरता है। इसलिए इस झरने को 'सेवन सिस्टर फॉल्स' भी कहा जाता है। यह झरना 1000 फीट से अधिक गहरा है और मवास माई गांव से एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। त्रिपुरा से अनानास विदेशों में पहुंच रहा है।  इतना ही नहीं, बांग्लादेश, जर्मनी से सैकड़ों मीट्रिक टन अनानास और अन्य फल और सब्जियां भी मंगाई जाती हैं।  और दुबई को निर्यात किया जा रहा है। नतीजतन, किसानों की उपज अधिक कीमत प्राप्त कर रही है। पीएम किसान सम्मान निधि से त्रिपुरा के लाखों किसानों को अब तक 500 करोड़ से ज्यादा की राशि मिल चुकी है। अगर वुड उद्योग त्रिपुरा के युवाओं के लिए नए अवसर और आय के स्रोत भी प्रदान कर रहा है।

महाराजा वीर विक्रम एयरपोर्ट न्यू टर्मिनल महाराजा वीर विक्रम एयरपोर्ट नए टर्मिनल भवन का निर्माण आधुनिक सुविधाओं से युक्त है। टर्मिनल में 200 अंतरराष्ट्रीय यात्रियों सहित 1200 यात्रियों को संभालने की क्षमता है। टर्मिनल बढ़ते यात्री यातायात को पूरा करेगा। इसमें सालाना 30 मिलियन यात्रियों को संभालने की क्षमता है। टर्मिनल बिल्डिंग के ग्राउंड फ्लोर में टिकट चेकिंग काउंटर, शॉपिंग एरिया, इमिग्रेशन सेंटर, कॉन्कोर्स एरिया और घरेलू और अंतरराष्ट्रीय आगमन कॉरिडोर हैं। पहली मंजिल पर सुरक्षा क्षेत्र में रेस्तरां, कार्यालय और प्रस्थान लाउंज शामिल हैं। इमारत में 20 चेक-इन काउंटर, कन्वेयर बेल्ट एस्केलेटर, चार यात्री बोर्डिंग ब्रिज, लिफ्ट, इन-लाइन बैगेज सिस्टम, पांच कस्टम काउंटर और दस इमिग्रेशन काउंटर हैं, साथ ही लगभग 500 कारों और दस बसों के लिए पार्किंग और कारों और दोपहिया के लिए अलग पार्किंग है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है की, कई दिनों से सोचा जा रहा था कि सीमावर्ती इलाकों में विकास होगा और संपर्क बढ़ेगा तो दुश्मन को फायदा होगा। लेकिन मैं सोच भी नहीं सकता कि ऐसा कैसे सोचा जा सकता है।  पिछली सरकार की इसी सोच के चलते नॉर्थ ईस्ट समेत देश के सभी सीमावर्ती इलाकों में कनेक्टिविटी नहीं सुधारी जा सकी। लेकिन आज सीमा पर नई सड़कें हैं, नई सुरंगें हैं, नए पुल हैं, रेलवे लाइनें हैं, नए हवाई अड्डे हैं। इन सभी विकास योजनाओं के कार्य तेजी से चल रहे हैं।  हम पहले से उजड़े गांवों को पुनर्जीवित करने में लगे हैं। जिस तरह से हमारे शहर विकसित हो रहे हैं, वैसे ही हमारी सीमाओं पर स्थिति में सुधार की जरूरत है। ऐसे विकास कार्यों से यहां पर्यटन भी बढ़ेगा और गांव छोड़कर गए लोग वापस आएंगे। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली । महाराष्ट्र।

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2022

प्रकृति हैं मनुष्य की सच्ची मित्र

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। पहले के समय से यह गिरोहों या समूहों द्वारा बसा हुआ है। समूह मन, समूह भावना उसका स्थायी भाव है।  लेकिन बाकी दुनिया ने अनुभव किया है कि क्या हो सकता है जब यही समूह भावना लालच में परिलक्षित होती है। जैसे-जैसे मनुष्य विकसित हुए, उन्होंने अधिक उन्नत, आधुनिक जीवन शैली अपनाना शुरू किया। विकास के नाम पर प्रकृति और पर्यावरण को नष्ट किया जाने लगा। मनुष्य का प्रकृति से वियोग, प्रकृति को कुरेदना अपनी ही जड़ पर संकट है,यह बताने के लिए किसी ज्योतिष की जरूरत नहीं है! 

कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे-जैसे मनुष्य प्रकृति से दूर होता जा रहा है, उसका विनाश निकट आ रहा है। दो साल से कोहराम मचा रही वैश्विक कोरोना महामारी ने यह साबित कर दिया है। (अब उसने फिर से हाथ-पांव फैलाना शुरू कर दिया है।) फिर भी मनुष्य सुधार ने को तैयार नहीं है। कोरोना महामारी ने क्या सिखाया? तो भौतिक सुख, भौतिकवाद किसी काम का नहीं है । जिसे हम विकास कहते हैं, जिसे हम धन कहते हैं, वह निष्प्रभावी है। हाथ में चाहे कितनी भी दौलत क्यों न हो, वह मौके पर किसी काम की नहीं होती। भौतिक सुख क्षणभंगुर है। तो शाश्वत सत्य क्या है?  प्रकृति और प्रकृति के नियम शाश्वत सत्य हैं। मनुष्य को जीवित रहने के लिए स्वच्छ हवा, पानी, भोजन और आश्रय की आवश्यकता होती है। इन आवश्यकताओं के अतिरिक्त अभी भी मनुष्य द्वारा स्वयं के लिए निर्मित आवश्यकताएँ हैं। उच्च वर्ग का रहन-सहन, तकनीक का अत्यधिक उपयोग और अधिक सुख-सुविधाओं की आवश्यकता...  है.यह साफ महसूस हो रहा है. की लेकिन इन तमाम अतिरिक्त जरूरतों और उससे पैदा हुई चाहत को पूरा करने का बोझ अब हमारी जड़ों पर उठने लगा है। इससे डूबने वाले व्यक्ति की जैसी हालत मनुष्य की हो गई है। इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए मनुष्य को विकास और प्रगति की अपनी इच्छा को त्याग कर एक बार फिर से प्रकृति के करीब जाना होगा। प्रकृति के साथ सहयोग हमेशा मनुष्य की भलाई के लिए रहा है। जिस समय मनुष्य प्रकृति से दूर चला गया... विकास की इच्छा के कारण पर्यावरण नष्ट हो गया, उस समय मनुष्य को कष्ट उठाना पड़ा है। इतिहास में इसके कई उदाहरण हैं। यह बार-बार सिद्ध हो चुका है कि प्रकृति से बचकर या प्रकृति का उपहास उड़ाकर, उसे नुकसान पाहूंचा कर मानव प्रगति नहीं की जा सकती। इसलिए नव वर्ष में नया संकल्प एक ही होना चाहिए - लोभ से होगा ऱ्हास, रख लो प्रकृति संरक्षण का झण्डा अपने पास।

प्रकृति ने हमेशा देने की भूमिका स्वीकार ली है।  वह सर्वोत्तम दाता है। हवा, पानी, भोजन, धूप सब कुछ प्रकृति ने मुफ्त में प्रदान किया है।  आपने कोरोना के दौरान ऑक्सीजन का महत्व सीखा है। प्रकृति हमें यह ऑक्सीजन मुफ्त में देती है। यह और भी कई जरूरतों को पूरा करती है, यहां तक ​​कि प्रकृति भी मनुष्य की जन्म से लेकर मृत्यु तक सभी जरूरतों को पूरा करती है। बचपन के पालने से लेकर जवानी का घर, जलाऊ लकड़ी, फर्नीचर से लेकर बुढ़ापे की छड़ी तक, प्रकृति सब कुछ देती है। प्रकृति अनेक प्रकार की औषधि, स्वस्थ शहद, गोंद, पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण, संवर्धन प्रदान करती है। प्रकृति जल चक्र, जीवन चक्र, खाद्य श्रृंखला को संतुलित करती है। प्रकृति सभी प्रेरणा का स्रोत है। विकास का प्रारंभिक बिंदु है।  यह सर्जन का आविष्कार है। वे समस्त कलाओं के रचयिता हैं।ऊर्जा का सबसे अच्छा स्रोत प्रकृति है। ऐसी व्यापक, जीवनदायी प्रकृति की रक्षा की जानी चाहिए। मनुष्य को प्रकृति का उपभोग किए बिना उसका रक्षक बनना चाहिए।  इसी में मानव कल्याण निहित है। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि प्रकृति मनुष्य की सच्ची मित्र, रक्षक है। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली। महाराष्ट्र।

जरूरतें और मोल

एक बार गौतम बुद्ध के आश्रम में उनके अनुयायियों के बीच चर्चा हुई कि 'अनमोल' क्या है? इस दुनिया में सबसे अनमोल चीज क्या है? इसमें किसी ने जीवन की आवश्यक वस्तुओं जैसे भोजन, पानी, हवा, आश्रय, वस्त्र का उल्लेख किया है। कुछ ने सोना, सिक्के, हीरे जैसी ऊंची चीजें बताईं। यह तर्क अंत तक समाप्त नहीं हुआ। तब सबने सोचा कि गुरुवर्य से पूछ लिया जाए। वे गौतम बुद्ध के पास गये। गौतम बुद्ध ने अपने जीवन में अपार धन और वैभव का अनुभव किया था, और फिर भी, शांति की तलाश में, उन्होंने शाही सिंहासन को त्याग दिया और ध्यान करने के लिए जंगल में चले गए। वे निश्चित रूप से जानते थे कि धन में शांति नहीं है, और इसलिए यह अनमोल नहीं हो सकता। गौतम बुद्ध एक क्षण के लिए शांत बैठे और उत्तर दिया, "जरूरत के समय उपलब्ध होने पर हर चीज अनमोल  हो सकती है। ‘what is given at the time of need is priceless’. अगर आपके पास महल भी है और जंगल में चलते हुए आपको प्यास लगती है, तो उस समय पानी सबसे अनमोल वस्तु होने वाला है। भूखे के लिए रोटी की कीमत सबसे कीमती होगी। जो लोग स्थायी रूप से किराए के मकान में रहते हैं, उनमें अपना घर लेने की प्रबल इच्छा होगी। युवाओं को शादी की आवश्यकता होगी, वृद्धावस्था में आप अपने नाती-पोतों के साथ शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहेंगे। मानव की जरूरतें स्थान, समय और उम्र के सापेक्ष होती हैं। वे समय के साथ बदलते हैं। जरूरत के समय वह चीज जरूरतमंद के लिए अनमोल होगी। 

एक बार गौतम बुद्ध और उनके शिष्य एक गांव से दूसरे गांव पैदल जा रहे थे। रास्ते में आराम करने के लिए, वे सभी एक बड़े बरगद के पेड़ के नीचे ठहर गये। गौतम बुद्ध ने अपना ध्यान समाप्त किया और उस पेड़ के नीचे विश्राम किया। उठकर जाते समय उन्होंने वृक्ष को प्रणाम किया। गौतम बुद्ध को पेड़ के सामने झुकते देख शिष्य हैरान रह गए और बुद्ध से पूछा, ''आप ने एक पेड़ को प्रणाम क्यों किया?  क्या कुछ अनहोनी हो गई है?'' इस पर गौतम बुद्ध हंसे और बोले, " पेड़ नहीं बोलते तो क्या हुआ?" जैसे हर इंसान की शरीर की भाषा होती है, वैसे ही प्रकृति और पेड़ों की होती है। मैंने इस वृक्ष को प्रणाम करके सम्मान व्यक्त किया। मैं इस वृक्ष के नीचे बैठ गया, अपनी साधना पूरी की, विश्राम किया। मुझे इस पेड़ की ठंडी छांव ने प्रेम दिया, ममता दी। मुझे यहां शांति मिली। इसलिए मेरा कर्तव्य है कि मैं इस वृक्ष के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करूं। प्रकृति हमें हवा, पानी और आश्रय देती है। इसके प्रति आभार व्यक्त करना हमारा धर्म है। आप सभी इस पेड़ को अच्छी तरह से देखें, पेड़ ने अब मेरी कृतज्ञता की अभिव्यक्ति का जवाब दिया है। इसकी प्रतिक्रिया पेड़ के पत्तों की सरसराहट है। पेड़ अपने पत्तों की सरसराहट से हमसे संवाद कर रहा है और यह आश्वासन भी दे रहा है कि मैं इसी तरह मानव जाति की सेवा करता रहूंगा। तुरंत सभी शिष्यों ने भी हृदय से वृक्ष को प्रणाम किया और वहां से निकल  गए। 

दोस्तों मैं भी अपने घर के पौधों को पानी देते समय 'मैं आप से पूरे दिल से चाहता हूं,'' कहता हूं। इससे पेड़ों की वृद्धि अच्छी तरह से होती है। इसके विपरीत, यदि आप पेड़ों के बारे में बुरा बोलते हैं, यदि आप उन्हें चोट पहुँचाते हैं, तो वे मर जाते हैं। इसलिए सभी के साथ प्यार से पेश आने की कोशिश करें।  अगर नहीं तो आप निश्चित रूप से चुप रह सकते हैं। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली। महाराष्ट्र।

रविवार, 18 दिसंबर 2022

देश का उज्जवल भविष्य सुसंस्कृत पीढ़ियों में निहित है

संस्कार बहुत गहरा और अनमोल शब्द है। सामान्य तौर पर संस्कारों पर बहुत चर्चा होती है।  लेकिन संस्कारी पीढ़ी बनाने के लिए कुछ खास होता नहीं दिख रहा है। हमारी पीढ़ी सुसंस्कृत होनी चाहिए, हम ऐसा करने के लिए बहुत कुछ करने की आवश्यकता हैं, लेकिन हम करने के लिए तैयार नहीं हैं। संस्कार का जप करने से संस्कार नहीं होता है, इसका ध्यान रखना चाहिए। समय बहुत बदल गया है, समय के साथ-साथ सब कुछ बदल गया है। पहले लोगों के पास पैसे कम हुआ करते थे। कठिनाइयाँ अनंत थीं पर उनमें संस्कार की समृद्धि थी। एक साथ परिवार व्यवस्था और भाइयों और बहनों के बीच एक विचार प्रशंसनीय था। एक-दूसरे की आय पर विचार किए बिना परिवार के लिए मिलकर काम करने का दृढ़ संकल्प उस समय देखा गया था। उनकी उसी से प्रगती होती थी। आज समाज में एकल परिवार प्रणाली बढ़ती जा रही है।  बच्चों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया जाता है कि उनके माता-पिता ही उनका परिवार हैं। दादा-दादी, मौसेरे भाई-बहनों का परिवार अलग है, यह ज्ञान और संस्कृति उनके मन-मस्तिष्क में जड़ जमा रही है।

हमें एक बार यह तय कर लेना चाहिए कि अपने जीवन में सफलता को अपने संस्कारों से नापना है या पैसों से। आज के युवा जो शराब, सिगरेट आदि खतरनाक नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं, आज की पीढ़ी जो डांस बार, पब, किटी पार्टियों में लिप्त हैं, बड़े-बड़े शहरों में अश्लील कपड़े पहनकर अश्लील हरकत करने वाले युवक-युवतियों की संख्या बढती जा रही है। फ्रीडम या आज़ादी के नाम पर हो रही मनमानी के बाद अगर 'लिव-इन-रिलेशनशिप' की किस्म न बढ़ने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं! कुछ महिलाओं का रोल मॉडल कहाँ है जो कम उम्र में विधवा हो गईं और अपने बच्चों को पालने के लिए अपना पूरा जीवन बलिदान में लगा दिया? आज की दुनिया में कागज के निशान और कागज के नोट इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं कि वे यह भ्रम पैदा कर रहे हैं कि उन्हें प्राप्त करना ही जीवन का उद्देश्य है। जो उनके लिए भी खतरनाक है और इस देश के लिए भी। क्या इन दिनों अपने दादा-दादी, माता-पिता या रिश्तेदारों के साथ रहने के बजाय लिव-इन रिलेशनशिप में  एक अजनबी के साथ रहना  यह आज के संस्कार  है?

बाबासाहेब अंबेडकर, महात्मा गांधी जैसे कई महापुरुषों ने ठान लिया होता तो बेशुमार दौलत इकट्ठी कर लेते। लेकिन उन्होने जो रास्ता चुना उसने ऊन्हे अमर बना दिया। जब तक धरती रहेगी, उनका यश इस संसार में रहेगा, इसी को सफलता कहते हैं और इसे कहते हैं सफल लोग। आज के परिवार में बच्चों को वह सब कुछ मिल रहा है जो वे चाहते हैं।  वास्तव में जिसकी आवश्यकता नहीं है, वह भी मिल रहा है। लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही परंपरा का भारी अभाव है। भारत जैसे धार्मिक देश में संस्कारों की महान परंपरा रही है। विभिन्न संप्रदायों, धार्मिक रीतियों के आधार पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी संस्कार देने के कारखाने हैं। महाराष्ट्र को 'संतों की भूमि' कहा जाता है।  यहां जन्म लेना सौभाग्य की बात है। संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम महाराज, समर्थ रामदास, संत एकनाथ, चक्रधर स्वामी जैसे सैकड़ों संतों का साहित्य संस्कारों की कभी न समाप्त होने वाली धारा है। हाल के दिनों में, छत्रपति शिवाजी महाराज, भारतरत्न बाबासाहेब अम्बेडकर, महात्मा फुले, लोकमान्य तिलक, आगरकर, स्वामी विवेकानंद, राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज संस्कार के अनुकरणीय उदाहरण हैं। बचपन में बनने वाले संस्कारों का पूरे जीवन में बहुत महत्व होता है। बचपन के संस्कार के कारण बच्चे अपने व्यवहार से सीखते हैं न कि हमारे निर्देशों से। क्योंकि बच्चे, वास्तव में, सभी मनुष्य नकलची ( अनुकरणप्रिय) होते हैं। संस्कार उसी से उकेरा जाता है। बच्चों के लिए उनका घर ही उनकी पूरी दुनिया होती है।  आगे के स्कूल और कॉलेज उनके लिए आदर्श हैं। लेकिन आजकल सभी स्कूल बच्चों को शिक्षित करने के कारखाने और कॉलेज स्नातक बनाने के कारखाने मात्र हैं! स्कूल-कॉलेजों में बढ़ी भीड़ को देखते हुए संस्कार के आसार बिलकुल नहीं हैं।

महानुभव सम्प्रदाय, वारकरी सम्प्रदाय सैकड़ों वर्षों से संस्कार की शिक्षा दे रहे हैं। हाल के दिनों में, स्वाध्याय परिवार और कई अन्य आध्यात्मिक संप्रदाय, पंथ इस परंपरा को मजबूती से आगे बढ़ा रहे हैं। सभी धर्म और संप्रदाय इन संस्कारों की शिक्षा देते हैं, लेकिन आज भी संस्कारों के योग्य पीढ़ी बनाने के मामले में हम पिछड़ रहे हैं, इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता। संस्कृति समय की मांग है।  विज्ञान ने दुनिया को कितना ही करीब ला दिया है, विज्ञान अंतरंगता और प्रेम को बढ़ावा देने में विफल रहा है। समाज के सामाजिक-आर्थिक स्तर में सुधार हुआ है, लेकिन उग्रवाद, भोग और विलासिता की प्रवृत्ति बढ़ रही है। पैसे कमाने के तरीके और पैसे का प्यार बढ़ता गया। हालाँकि, हम देशभक्ति को बढ़ावा देने और भ्रष्टाचार को समाप्त करने में विफल रहे हैं। मानव मस्तिष्क का उपयोग करके हजारों नए उपकरणों की खोज की। लेकिन हम मानसिक स्थिति, मानसिक भ्रम और मनोविकार को नहीं रोक सकते। यहां हकीकत यह है कि आज की पीढ़ी अपने माता-पिता की देखभाल करने के लिए भी तैयार नहीं है, समाज की सेवा की बात तो दूर की है।

क्या आपने कभी सोचा है कि रोज-रोज के घरेलू ड्रामे और टीवी सीरियल्स में देखने वाले विवाद, संसद में हंगामा, समाज के तथाकथित प्रतिष्ठित नेताओं की गालियां, उनका व्यवहार आने वाली पीढ़ी पर क्या असर डाल रहा है? यदि आप चाहते हैं कि मेरे बच्चे व्यसनी न हों, यदि आप चाहते हैं कि आपके बच्चे अपने माता-पिता की इच्छा के अनुसार विवाह करें, तो माता-पिता को पहले अपना व्यवहार बदलने की आवश्यकता है। अपने वस्त्र, अपनी वाणी, अपने व्यवहार, अपने चलने का एक बार ध्यानपूर्वक अध्ययन करना चाहिए। नीम के पेड़ में आम नहीं लगते, जो बीज बोये जाते हैं वे बड़े होते हैं ,इसलिए अभिभावकों को आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। बालसंस्कार या संस्कार केंद्र के संस्कार की तुलना में हमारे घर के संस्कार का बच्चों पर अधिक प्रभाव पड़ता है। प्रतिदिन 18-18 घंटे अध्ययन करने वाले, निःस्वार्थ रहकर देश के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले भारतरत्न बाबासाहेब अम्बेडकर विश्व में प्रसिद्ध हुए। ऐसे महापुरुषों की संस्कृति को नई पीढ़ी में बिठाना जरूरी है। आने वाले समय में आने वाली पीढ़ी को कागजी शिक्षा के साथ-साथ संस्कारी शिक्षा देकर सुसंस्कृत पीढि़यों का निर्माण करना अति आवश्यक है, अन्यथा देश का पतन होते देर न लगेगी। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली। महाराष्ट्र।

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2022

खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जाए

हाल ही में एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि समाज के आखिरी तबके तक अनाज पहुंचाना सरकार की जिम्मेदारी है और यह सुनिश्चित करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि कोई भी भूखा न सोए। अगर भारत खुद को एक विकसित देश साबित करना चाहता है तो सरकार को सुप्रीम कोर्ट की राय पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। देश में कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे इसके लिए उपाय करना सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी है। जबकि भारत विकास की ओर बढ़ रहा है और दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन रहा है, हालांकि, विश्व भूख सूचकांक 2022 की 121 देशों की सूची में छह स्थान नीचे आ गया है। भारत वर्तमान में भूख सूचकांक में 107 वें स्थान पर है, और 27 करोड़ नागरिक अभी भी देश में गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं। इसलिए सुप्रीम कोर्ट की राय को अहम माना जाता है। गरीबी उन्मूलन के लिए सरकार द्वारा अनेक कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। कोरोना काल में लगभग 80 करोड़ नागरिकों को मुफ्त अनाज उपलब्ध कराया गया और समय-समय पर इस योजना को बढ़ाया भी गया। इसके बावजूद देश में भूखे लोगों की संख्या महत्वपूर्ण बनी हुई है। वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने प्रवासी मजदूरों की स्थिति पर संज्ञान लेते हुए हर जरूरतमंद तक अनाज पहुंचने की उम्मीद जताई है.  यह देश में गरीबी की स्थिति को भी दर्शाता है। यह भी आदेश जारी किए गए हैं कि ई-श्रम पोर्टल पर पंजीकृत प्रवासी एवं असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की संख्या नवीनतम डाटा के साथ प्रस्तुत की जाए।

2011 की जनगणना के बाद से देश की जनसंख्या में वृद्धि हुई है।  यदि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम को प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया गया तो देश के हजारों जरूरतमंद और पात्र लाभार्थी खाद्यान्न से वंचित हो जाएंगे। इस मौके पर केंद्र ने खाद्यान्न योजनाओं की जानकारी सुप्रीम कोर्ट को सौंपी।  इस हिसाब से देश में 81.35 करोड़ लाभार्थी हैं, जो भारत की कुल आबादी की तुलना में बहुत बड़ी संख्या है। दूसरी ओर, चौदह राज्यों ने हलफनामों के माध्यम से घोषणा की है कि खाद्यान्न कोटा समाप्त हो गया है।  यह स्थिति गम्भीर है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि सरकार को खाद्यान्न सुरक्षा कानून लागू करते समय 2011 के आंकड़ों को नहीं मानना ​​चाहिए। संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार, यह कहा गया है कि 'भोजन का अधिकार' एक मौलिक अधिकार है और इसमें कानून के अनुसार जरूरतमंदों को शामिल करने का भी निर्देश दिया गया है।

जब केंद्र सरकार ने 10 सितंबर 2013 को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम पेश किया, तो अधिनियम का उद्देश्य आम आदमी की पहचान की रक्षा करना और उन्हें भोजन और पोषण प्रदान करना था। कानून में प्रावधान है कि 75 प्रतिशत ग्रामीण और 60 प्रतिशत शहरी नागरिकों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से छूट पर खाद्यान्न उपलब्ध कराया जाना चाहिए। पिछले जुलाई में, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से प्रवासी यात्रियों के लिए एक नई प्रणाली विकसित करने के लिए कहा था; ताकि बिना राशन कार्ड के भी जरूरतमंदों को भोजन उपलब्ध कराया जा सके। बेशक, सरकार ने अभी तक इस दिशा में ठोस काम नहीं किया है। सरकार 'एक राशन, एक राशन कार्ड' की अवधारणा पर काम कर रही है;  लेकिन इसकी स्पीड कम है। कुपोषण, भुखमरी की समस्या को दूर करने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली, अंत्योदय योजना, पोषण अभियान, प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना, फूड फोर्टिफिकेशन, मिशन इन्द्रधनुष्य, ईट राइट इंडिया मूवमेंट और पांच किलो मुफ्त अनाज जैसे कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।

कई राज्यों में थाली को मध्यम मूल्य पर उपलब्ध कराया जा रहा है। महाराष्ट्र में शिव भोजन थाली, राजस्थान में इंदिरा रसोई योजना, तमिलनाडु में अम्मा कैंटीन गरीबों को बहुत कम दरों पर भोजन उपलब्ध करा रहे हैं। फिर भी, विश्व भूख सूचकांक में भारत की गिरावट खाद्य सुरक्षा और सरकार के दावों पर सवाल उठाती है। कुल मिलाकर देश की सभी सरकारों को खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए।

हालांकि समाज के हर वर्ग तक भोजन पहुंचाना सरकार की जिम्मेदारी है, लेकिन नागरिकों को भी सामाजिक चेतना से व्यवहार करना चाहिए। एक तरफ भूखे सोने वाले लोग हैं और दूसरी तरफ बड़ी मात्रा में खाना बर्बाद करने वाले लोग भी हमारे आसपास हैं। भारत में हर व्यक्ति हर साल औसतन 50 किलो खाना बर्बाद कर देता है। यह आँकड़ा चौंकाने वाला है।  खाने की बर्बादी के मामले में भारत दुनिया में चीन के बाद दूसरे नंबर पर आता है। इससे लगता है कि जितनी ज्यादा आबादी होगी, उतना ही ज्यादा खाना बर्बाद होगा। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार, देश में लगभग 190 मिलियन नागरिक कुपोषित हैं। भारत में हर साल लगभग 68.7 मिलियन भोजन बर्बाद हो जाता है।  साथ ही भारत में बर्बाद होने वाले खाने की कीमत करीब 92 हजार करोड़ रुपए है। फूड वेस्ट इंडेक्स के मुताबिक 2021 में भारत में करीब 93.1 करोड़ टन खाना बर्बाद हो गया था। भारत में कुपोषण की दर को कम किया जा सकता है यदि भारतीय भोजन बर्बाद न करने के लिए सावधान रहें और यदि सरकार खाद्य सुरक्षा योजनाओं को अधिक प्रभावी ढंग से लागू करती है। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली। महाराष्ट्र।

भारत में स्थानीय पर्यावरणीय मुद्दों के प्रति उदासीनता

कभी प्रकृति और पर्यावरण के प्रति कृतज्ञता भाव से जीने वाले भारत जैसे देश में स्थानीय पर्यावरण के प्रति बढ़ती उदासीनता गंभीर चिंता का विषय है। नदियों और नहरों जैसे जलस्रोतों को प्रदूषित करके, पहाड़ों की चोटियों को खोदकर, विशाल शिलाखंडों को नष्ट करके, पेड़ों और लताओं की कटाई करके, वन्यजीवों का अवैध शिकार, अपशिष्ट जल, कचरा,सीवेज प्रबंधन की उपेक्षा करके क्या हम जो विकास हासिल करेंगे, क्या वह वास्तव में हमें स्थायी सुख, शांति और समृद्धि प्रदान करेगा? इसके बारे में सोचने का समय आ गया है। एक तरफ दुनिया के गिने-चुने अरबपति ही मुंबई जैसे महानगर की सुख-सुविधाओं का लुत्फ उठा रहे हैं। और दूसरी तरफ, पानी पीने के लिए भटकती महिलाएं क्या दर्शाती हैं? गुजरात के गिर अभयारण्य में 14 शेरों को नरभक्षी घोषित कर उनमें से 10 को दूसरी जगहों पर ले जाने से समस्या का समाधान हो जाएगा? आज पूरी दुनिया और खासकर भारत में भूजल गायब हो रहा है। पंजाब, हरियाणा और राजस्थान जैसे कृषि प्रधान उत्तरी भारत में भूजल भंडार गायब हो रहे हैं। सिंधु जल के बंटवारे को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच लड़ाई चल रही है। हिमालय से निकलने वाली और अपने मार्ग में 500 मिलियन लोगों की पानी की जरूरतों को पूरा करने वाली नदियों के पानी को लेकर भारत, चीन, नेपाल और बांग्लादेश के बीच विवाद जारी है। दक्षिण एशियाई क्षेत्र में दुनिया के सालाना नवीकरणीय जल संसाधनों का पांच प्रतिशत से भी कम है, जबकि दुनिया की आबादी का एक चौथाई हिस्सा समाहित है। केंद्रीय जल आयोग के अनुसार, भारत के 91 जलाशयों में उनकी जल संग्रहण क्षमता का केवल 32 प्रतिशत ही पानी है। देश के 29 राज्यों में से नौ और 660 में से 248 जिलों को सूखाग्रस्त घोषित किया जा चुका है। यद्यपि संयुक्त राष्ट्र ने 2010 में सुरक्षित और साफ पानी को मानव अधिकार घोषित किया है, लेकिन भारत जैसे देशों में प्रदूषित पानी पीने और इससे उत्पन्न होने वाली बीमारियों के कारण होने वाली मौतों की संख्या महत्वपूर्ण है। प्रदूषित पानी दुनिया में सबसे ज्यादा लोगों की मौत का मुख्य कारण है। हालांकि वर्तमान सूखा प्रभावित स्थिति एक बहुत बड़ी समस्या है, लेकिन कई उद्योग जो हमारे पर्यावरण और जंगलों को नुकसान पहुंचाकर खड़े हो गए हैं, सूखे की गंभीरता को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार हैं। हमारे राजनेता इसे भूल रहे हैं। अनुकूल वातावरण को नष्ट करके प्रतिकूल वातावरण में वर्षा कैसे होगी?

आज समय आ गया है कि शहरों को भोजन और पानी के साथ-साथ अन्य स्थानों से हवा की आपूर्ति की जाए।महाराष्ट्र के लातूर में पानी की भारी कमी को आंशिक रूप से कम करने के लिए ट्रेन द्वारा मिराजे से पानी की आपूर्ति का समय क्या दर्शाता है?  पुणे को 25-30 किमी और मुंबई को 100 किमी से पेयजल की आपूर्ति की जा रही है। वायु प्रदूषण के जहरीले चक्र में फंसे  चीन के कुछ हिस्सों में कनाडा के कुछ हिस्सों से स्वच्छ हवा को बोतलबंद करने और बेचने का प्रयास वास्तव में चिंता का कारण है। विभिन्न प्रकार के भौतिक सुखों के लालच में, हम स्वाभाविक रूप से अराजक तरीके से प्रकृति के भंडार  पर हातोडा चला रहे हैं। आज की स्थिति दिन-ब-दिन भयावह होती जा रही है क्योंकि स्वयंभू मानव समाज अपने घर को अभेद्य बनाने के लिए अन्य सभी प्राणियों को आवास के अधिकार से वंचित करने की ओर प्रवृत है। वन सर्वेक्षण रिपोर्ट 2015 के अनुसार, भारत में वन और वृक्षों का क्षेत्रफल 5,081 वर्ग किमी की वृद्धि हुई है। कुल वन और वृक्ष आच्छादन 79.42 मिलियन हेक्टेयर या भौगोलिक क्षेत्र का 24.16 प्रतिशत है। तमिलनाडु, केरल और जम्मू और कश्मीर में वन आवरण में वृद्धि देखी जा रही है जबकि महाराष्ट्र में, वन क्षेत्र 2013 में 50,632 वर्ग किमी से घटकर 2015 में 50,628 वर्ग किमी हो गया।  किमी  यह स्पष्ट हो गया है।

मध्य प्रदेश 77,462 वर्ग किमी जंगल है।  यह भारत के सबसे अधिक वनाच्छादित राज्यों में से एक है। इस राज्य में एशिया का सबसे पुराना और साल के पेड़ों का सबसे बड़ा जंगल है। लेकिन उस जंगल में भूमिगत कोयले के बड़े भंडार होने के कारण, आर्थिक लाभ के लिए प्रचलित पर्यावरणीय कानूनों का उल्लंघन करके कोयले का खनन करने की प्रवृत्ति को बल मिला है। 54 गांवों के स्थानीय लोगों ने इसके खिलाफ लड़ाई लड़ी और बहुमूल्य जंगल को बचाने में सफल रहे। आज हमारे देश में विकास के नाम पर जंगलों को नष्ट किया जा रहा है। पृथ्वी की जलवायु को विनियमित करने, जल संसाधनों के संरक्षण और सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले वनों पर अतिक्रमण बढ़ रहा है। हमें प्राकृतिक वन और वृक्षों के आवरण की रक्षा के लिए योजनाबद्ध उपाय करने की आवश्यकता है।

असम के जोरहाट जिले के एक युवक जादव पायेंग ने ब्रह्मपुत्र के माजुली द्वीप में बांस से शुरू किए गए वृक्षारोपण को लगातार जारी रखा वैसेही, स्वदेशी अभ्यारण्यों को बंजर क्षेत्रों को हरा-भरा करने के लिए प्रतिबद्ध रहना चाहिए। इच्छाशक्ति मजबूत हो तो रेगिस्तान में भी हरियाली पैदा करना संभव है, इसका प्रमाण देश भर में कार्यरत पर्यावरण कार्यकर्ताओं के कार्यों से मिलता है। महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों में वनों के क्षरण के कारण इसका प्रभाव नदियों और नहरों के मार्ग पर देखा गया है। मध्य प्रदेश में वन विभाग के कर्तव्यपरायण अधिकारियों ने अपने अधीनस्थों और जनभागीदारी के सहयोग से प्रदूषित नदियों को फिर से जल से प्रवाहित करने में सफलता प्राप्त की है। राजस्थान के अलवर जिले के भीकमपुरा में, जलपुरुष राजेंद्र सिंह, जिन्होंने अपने पारंपरिक पानी को अवरुद्ध करने के लिए जोहड़ बांधों की योजना बनाई, इसे जनभागीदारी के माध्यम से लागू किया और कुछ क्षेत्रों में पीने के पानी और सिंचाई की समस्या को हल करने में सफल रहे। राजेंद्र सिंह के इस आदर्श को कर्नाटक और महाराष्ट्र राज्यों में कुछ कार्यकर्ताओं ने अपनाया है और सूखा प्रभावित क्षेत्रों में नदियों, नहरों और झीलों में पानी बनाकर लोगों को राहत प्रदान की है। भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार इस कार्य को अन्यत्र प्रारंभ करने की तत्काल आवश्यकता है। देश भर में पर्यावरण के क्षरण का जो काम चल रहा हैं और   सैकड़ों वर्षों से प्रकृति द्वारा बनाए गए जंगलों को नष्ट करने की बुराइयाँ शुरू हैं, वो  तत्काल रोकने की आवश्यकता है, हालांकि वृक्षारोपण के माध्यम से वनों का निर्माण संभव है, लेकिन प्रकृति की कार्रवाई से मेल खाना मुश्किल है।

रविवार, 11 दिसंबर 2022

महंगाई, सरकार और रिजर्व बैंक

रिजर्व बैंक ने हाल ही में रेपो रेट में बढ़ोतरी की है। तो यह दर अब 6.29 फीसदी पर पहुंच गई है। आरबीआई ने कारण बताया है कि महंगाई में लगातार हो रही बढ़ोतरी के चलते रेपो रेट में बढ़ोतरी की गई है। इससे कई सवाल खड़े होते हैं।  रेपो रेट वास्तव में क्या है?  इसे बढ़ाने से महंगाई कैसे कम होती है? असल में महंगाई क्यों और कैसे बढ़ती है?  क्या महंगाई कम करना सरकार या आरबीआई की जिम्मेदारी है? रिजर्व बैंक से संबंधित ब्याज दरें कितने प्रकार की होती हैं?  नकद आरक्षित अनुपात (कॅश रिझर्व्ह रेश्यो) क्या है? क्या इसका बढ़ती या गिरती महंगाई से कोई लेना-देना है?  ये और इसी तरह के कई सवाल हमारे सामने आते हैं। अगर हम महंगाई की समस्या और उसका समाधान दोनों को समझना चाहते हैं तो अर्थशास्त्र को समझना जरूरी है। हमें उस प्रक्रिया को भी जानने की जरूरत है जिसके तहत रिजर्व बैक ब्याज दर तय करते समय निर्णय लेता है। चूंकि महंगाई की समस्या आम आदमी का बहुत ही गहरा मसला है, इसलिए इस पर चर्चा करना और पूरी प्रक्रिया को समझना जरूरी है। हर किसी को इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि अगर महंगाई हाथ से निकल जाए तो अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ता है, नहीं तो बढ़ती महंगाई के लिए वास्तव में कौन जिम्मेदार है?  इसको लेकर लोग भ्रमित हो जाते हैं। इन्हीं सब बातों पर प्रकाश डालने का यह प्रयास है।

महंगाई की समस्या...

  हममें से अधिकांश लोगों को उन वस्तुओं, उपकरणों, सेवाओं, अचल या चल संपत्ति आदि के वित्तीय लेन-देन के बारे में अच्छी जानकारी होती है, जिनकी हमें आवश्यकता होती है। जब इन वस्तुओं के दाम बढ़ जाते हैं तो हम कहते हैं कि महंगाई बढ़ गई है। कुछ वस्तुओं या सेवाओं की कीमतें मौसम के अनुसार बदलती रहती हैं। उदाहरण के लिए, जब सब्ज़ियों का मौसम होता है, तब ये वस्तुएँ बड़ी मात्रा में बाज़ार में आ जाती हैं और इनके दाम गिर जाते हैं। कम मात्रा में आने पर इसके रेट बढ़ जाते हैं।  यह चक्र हर साल का  है और इसकी हमें आदत पड गई है। कहा जा रहा है कि लगभग हर वस्तु की कीमतें हमेशा बढ़ रही हैं। लेकिन अगर हमारी आय उसी दर से बढ़ रही है जिस दर से महंगाई या उससे ज्यादा है तो हम महंगाई से प्रभावित नहीं होंगे। हालांकि, यदि आय और व्यय मेल नहीं खाते हैं, तो महंगाई के प्रभाव अधिक महसूस किए जाते हैं। इसलिए महंगाई वस्तुओं की कीमतों से नहीं बल्कि उन वस्तुओं को खरीदने की हमारी क्षमता से सबसे निकट से संबंधित है। तो समाधान यही है कि दर कम करो या अपनी आय बढ़ाओ।

महंगाई का मुख्य कारण आपूर्ति और मांग के बीच का अंतर है। यदि मांग अधिक है और आपूर्ति कम है, तो बाजार में उस वस्तु की कमी हो जाती है। ऐसे में उस वस्तु की कीमत बढ़ जाती है।  कभी-कभी, भले ही माल का उत्पादन प्रचुर मात्रा में हो, अगर आपूर्ति श्रृंखला टूट जाती है यानी माल बाजार या उपभोक्ताओं तक नहीं पहुंच पाता है, तो उनकी कीमतें बढ़ सकती हैं। कभी-कभी वस्तुओं की कृत्रिम कमी पैदा कर दी जाती है।  यानी सामान उपलब्ध होते हुए भी उसे बाजार में नहीं लाया जाता। इससे सामानों के दाम भी बढ़ जाते हैं।  इसका मतलब यह है कि किसी वस्तु की कीमत काफी हद तक उसके उत्पादन की मात्रा, ग्राहकों से उसकी मांग, ग्राहक तक पहुंचने के लिए आवश्यक प्रणाली की दक्षता और उत्पाद की गुणवत्ता  पर निर्भर करती है। जब यह संतुलन बिगड़ जाता है तो उस वस्तु की कीमत या तो बढ़ जाती है या घट जाती है।  अगर इस तरह से दरें बढ़ती हैं तो हम कहते हैं कि महंगाई बढ़ी है। यदि कीमत गिरती है तो उत्पादक और व्यापारी प्रभावित होते हैं, जबकि यदि कीमत बढ़ती है तो उपभोक्ता प्रभावित होते हैं।  इसलिए संतुलन जरूरी है।

महंगाई पर काबू पाने के उपाय...
महंगाई को नियंत्रित करने के लिए चार प्रमुख उपाय हैं।  एक- मांग के अनुसार उत्पाद का उत्पादन बढ़ाना और यह सुनिश्चित करना कि उत्पाद उपभोक्ताओं तक पहुंचे, दो- उत्पाद की मांग को कम करना, तीन- उत्पाद के विक्रय मूल्य को कम करना (यानी माल पर कर कम करना, उत्पादन लागत कम करना आदि)। और चार- सख्त कानूनी कार्रवाई करके माल की कृत्रिम कमी पैदा  को रोकना, ऐसे बड़े उपाय करने होंगे। इन उपायों में उत्पादकों को उत्पादन न बढ़ाने का कार्य करना है। इसलिए सरकार को कानून और व्यवस्था प्रणाली के माध्यम से कृत्रिम कमी के निर्माण को रोकने के उपाय करने होंगे।  वस्तुओं की उत्पादन लागत को कम रखने का उपाय सरकार द्वारा कराधान और अन्य माध्यमों से किया जाना है। तो वस्तू की मांग को कम करने का उपाय रिजर्व बैंक द्वारा रिजर्व बैंक रेपो रेट या अन्य प्रकार की ब्याज दरों में बदलाव करके किया जाता है।

रिजर्व बैंक की भूमिका
  प्रत्येक देश की एक आधिकारिक मुद्रा होती है।  भारत की मुद्रा रुपया है।  रिजर्व बैंक का मुख्य कार्य इस मुद्रा की गति को नियंत्रित करना है। करेंसी का निर्माण, यानी नोटों की छपाई, सिक्कों की ढलाई, छपाई की मात्रा का निर्धारण, करेंसी के मूल्य में उतार-चढ़ाव, दूसरे देशों की करेंसी का हमारी करेंसी से संबंध तय करना आदि रिजर्व बैंक के कार्य हैं। ये कार्य बैंक द्वारा केंद्र सरकार के समन्वय से और सरकार की आर्थिक नीति के अनुरूप तरीके से किए जाते हैं।  ब्याज दर का निर्धारण इस प्रक्रिया का हिस्सा है।

रेपो रेट क्या है?
  रिजर्व बैंक देश के प्रत्येक बैंक या वित्तीय संस्थान के वित्तीय मामलों को नियंत्रित करता है। ये बैंक कभी-कभी अपने घाटे को पूरा करने के लिए रिजर्व बैंक से पैसा उधार लेते हैं, जिस पर रिजर्व बैंक कुछ ब्याज लेता है। इस ब्याज दर को रेपो रेट कहा जाता है।  अगर रेपो रेट बढ़ाया जाता है, तो बैंक आरबीआई से कम उधार लेंगे। क्योंकि ऐसा नहीं करने पर उन्हें ज्यादा ब्याज चुकाना पड़ता है।  इससे बैंक दूसरों को जो उधार देते हैं, उस पर ब्याज बढ़ता है, नतीजतन, कर्ज का बोझ कम हो जाता है। इससे लोगों के पास खर्च करने के लिए पैसे कम हो जाते हैं। जैसे ही रेपो रेट बढ़ता है, अन्य बैंक आरबीआई से उधार लेना कम या बंद कर देते हैं। नतीजतन, अर्थव्यवस्था में नकदी की मात्रा कम हो जाती है। इससे लोगों की जेब में कम पैसे बचते हैं। स्वाभाविक रूप से, उनकी खरीदारी घटेगी और मांग घटेगी और वस्तुओं की कीमतों में कमी आने की संभावना है। रिवर्स रेपो दर में वृद्धि से भी समान प्रभाव प्राप्त होता है। रिवर्स रेपो दर वह दर जिस पर रिज़र्व बैंक अन्य बैंकों द्वारा रिज़र्व बैंक के पास जमा की गई राशि पर ब्याज देता है, रिवर्स रेपो दर कहलाती है। इसे बढ़ाकर बैंक ज्यादा पैसा आरबीआई के पास रखते हैं।  नतीजतन, नकदी की मात्रा कम हो जाती है।

बैंकों को कुछ राशि जमा के रूप में रिजर्व बैंक के पास रिजर्व के रूप में रखनी होती है, यदि बैंक संकट में होता है तो यह राशि उसके काम आती है। इसे कैश रिजर्व रेश्यो कहा जाता है। यदि यह अनुपात बढ़ा भी दिया जाए तो भी बैंकों की नकद राशि घटेगी और परिणाम वही रहेगा। इस प्रकार रिजर्व बैंक महंगाई को कम करने में योगदान देता है। इसीलिए अगर महंगाई बढ़ने लगती है तो रिजर्व बैंक रेपो रेट में बढ़ोतरी की घोषणा करता है। महंगाई काबू में आते ही रेपो रेट घटा दिया जाता है।  आमतौर पर उपरोक्त तीनों उपाय एक साथ नहीं किए जाते हैं।

आरबीआई के उपायों की सीमाएं...
महंगाई को नियंत्रित करने के चार तरीके हैं।  उनमें से एक ही रास्ता है कि रिजर्व बैंक के हाथों ब्याज दर में बदलाव किया जाए। हालाँकि, अन्य कारणों से मुद्रास्फीति में वृद्धि को RBI के उपायों से नियंत्रित नहीं कहा जा सकता है। तो कभी-कभी हम अनुभव करते हैं कि इस बैंक द्वारा रेपो रेट में वृद्धि के बावजूद भी महंगाई बढ़ गई है। इसलिए, महंगाई को नियंत्रित करने के लिए सभी चार उपायों को अपनाया जाना चाहिए। हालाँकि, यह निश्चित है कि RBI की ब्याज दर में बदलाव कुछ हद तक मुद्रास्फीति में वृद्धि को नियंत्रित करते हैं। इसलिए रेपो रेट बढ़ाना, रिवर्स रेपो रेट बढ़ाना, कैश रिजर्व रेश्यो बढ़ाना जैसे उपाय रिजर्व बैंक द्वारा महंगाई पर काबू पाने के लिए किए जाते हैं। इनमें लगातार रेपो रेट बढ़ाने का उपाय किया जाता है। क्योंकि यह आसान है।  रेपो रेट में बढ़ोतरी का कैश मार्केट पर सीधा और तुरंत प्रभाव पड़ता है।

महंगाई के लिए असल में कौन जिम्मेदार है?
बढ़ती महंगाई के लिए वास्तव में कौन जिम्मेदार है?  यह एक प्रमुख बिंदु है। कई लोग इसके लिए केंद्र सरकार, राज्य सरकार या सरकार चलाने वाले नेताओं को जिम्मेदार ठहराते हैं। साफ है कि अगर सरकार की नीति गलत है और महंगाई बढ़ रही है तो इसकी जिम्मेदारी सरकार की है। माल की कृत्रिम किल्लत पैदा कर और मंहगाई बढ़ाकर खुद की कमाई बढाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं की गई तो इसके लिए सरकारें भी जिम्मेदार हो सकती हैं। क्योंकि यह कार्रवाई केवल केंद्र या राज्य सरकार ही कर सकती है।  हालांकि, कभी-कभी स्थिति सरकारों के हाथ में नहीं होती है। वे भी बेबस हैं। इसे आम लोगों को समझने की जरूरत है। उदाहरण के लिए, ऐसी वस्तुएँ जिनका उत्पादन हमारे देश में नहीं होता है परन्तु जिनका आयात करना आवश्यक होता है। उनकी दरें सरकार के हाथ में नहीं हैं।

जिन देशों से हम इस तरह के सामान का आयात करते हैं, अगर उनकी कीमतें बढ़ती हैं, तो उन्हें देश में भी अपनी कीमतें बढ़ानी पड़ती हैं। यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि इस महंगाई के लिए सरकार को जिम्मेदार नहीं कहा जा सकता है। इसलिए, महंगाई की देनदारी निर्धारित करते समय कारण को ध्यान में रखा जाना चाहिए। महंगाई अक्सर प्राकृतिक कारणों से होती है।  यदि सूखा, भारी वर्षा, बीमारी या वायरस का प्रकोप होता है, उत्पादन में गिरावट आती है या आपूर्ति श्रृंखला बाधित होती है, तो सुधार में समय लग सकता है। अगर इन कारणों से महंगाई बढ़ती है तो इसे भी समझना होगा।

निष्कर्ष...
महंगाई एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है।  इसके कई कारण हैं। वे सभी कारण सरकार या रिजर्व बैंक के हाथ में नहीं हैं। अगर कृत्रिम महंगाई पैदा की जाती है और ऐसा करने वालों के खिलाफ तुरंत उचित कार्रवाई नहीं की जाती है तो ऐसी महंगाई के लिए सरकार जिम्मेदार है। हालाँकि, प्राकृतिक कारणों, युद्ध, बीमारियों के प्रकोप आदि के कारण होने वाली महंगाई के लिए सरकार सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं है। यदि उत्पादक देश आयात पर निर्भर वस्तुओं के दाम बढ़ा देता है तो उस महंगाई के लिए अपनी सरकार को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं होगा। रिजर्व बैंक महंगाई को नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभाता है। लेकिन इस भूमिका की भी सीमाएं हैं। सभी समाधान बैंक के हाथ में नहीं हैं। इसलिए, महंगाई के कारणों को ध्यान में रखते हुए देयता का निर्धारण करने के लिए समुचित सावधानी बरतनी होगी। किसी एक को ही जिम्मेदार ठहराना अनुचित नहीं हैं।

शनिवार, 10 दिसंबर 2022

सड़क हादसों की बढ़ती संख्या चिंताजनक

भारत जैसे दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश को दुर्घटना पीड़ितों की सबसे अधिक संख्या वाले देश के रूप में भी जाना जाता है। दो साल पहले केंद्रीय परिवहन मंत्रालय ने देश में सड़क हादसों के आंकड़े प्रकाशित किए थे और इसमें चौंकाने वाली जानकारी दी थी कि हर साल करीब एक लाख युवा सड़क हादसों में मारे जाते हैं। परिवहन मंत्रालय ने कहा था कि देश भर में कुल दुर्घटनाओं में से 85 से 90 प्रतिशत दुर्घटनाएं खराब सड़कों और अनुपयुक्त साइनबोर्ड जैसे विभिन्न कारणों से होती हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की मई 2022 में आयी रिपोर्ट के अनुसार देश में सड़क हादसों के मामले में मध्यप्रदेश नंबर दो पर है। नंबर एक पर तमिलनाडु है। इस रिपोर्ट में अस्सी फीसदी से ज्यादा सड़क हादसे ओवरस्पीड और लापरवाही की वजह से हो रहे हैं। देश में 3.54 लाख सड़क दुर्घटनाएं हुईं, जिनमें 1.33 लाख लोगों जान चली गयी। इनमें 56.6% मौतें ओवरस्पीड की वजह से हुईं। साथ ही 26.4% मौतें ड्राइवर की लापरवाही और ओवरटेक करने की वजह से हुईं। अकेले महाराष्ट्र में जनवरी 2022 से जून 2022 तक छह महीनों में 17,275 दुर्घटनाएं हुईं और 8,068 लोगों की मौत हुई। यह दुर्भाग्यपूर्ण और समान रूप से खतरनाक है कि सड़क दुर्घटना के शिकार लोगों में अधिकांश युवा होते हैं। कारण, सड़क हादसों को रोकने के उपायों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

2020 में, राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा 3,66,138 सड़क दुर्घटनाएं दर्ज की गईं, जिनमें से 1,16,496 (31.82%) राष्ट्रीय राजमार्गों पर थीं; 47,984 (36.43%) लोग मारे गए और 1,09,898 (31.55%) घायल हुए। तथ्य यह है कि 31.8% दुर्घटनाओं, 36.4% मौतों और 31.6% दुर्घटनाओं से संबंधित चोटें राष्ट्रीय राजमार्गों पर हुईं, जो देश में कुल सड़क नेटवर्क का केवल 2.1% हिस्सा हैं, इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है," रिपोर्ट में कहा गया है। "राजमार्गों पर अधिक दुर्घटनाओं के लिए उच्च वाहन गति और इन सड़कों पर यातायात की उच्च मात्रा को जिम्मेदार ठहराया गया है। रिपोर्ट के अनुसार अकेले उत्तर प्रदेश में भारत में राष्ट्रीय राजमार्गों पर होने वाली सड़क दुर्घटनाओं में 16.4% मौतें होती हैं, इसके बाद महाराष्ट्र (7.4%) और कर्नाटक (6.9%) का स्थान है; तमिलनाडु में राष्ट्रीय राजमार्गों पर सबसे अधिक दुर्घटनाएं हुई हैं।

पिछले साल की राज्य आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, यह स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया था कि महाराष्ट्र के साथ-साथ मुंबई में वाहनों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। महाराष्ट्र में आज यह संख्या साढ़े तीन करोड़ से साढ़े चार करोड़ तक पहुंच गई है। मुंबई में यह संख्या 40 से 45 लाख तक पहुंच गई है। देश के मुकाबले महाराष्ट्र का विचार किया जाए तो किलोमीटर में सड़कों की कुल उपलब्धता और वाहनों की संख्या में भारी अंतर है। इस बिंदु पर यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि वाहनों की तेजी से बढ़ती संख्या वाहन दुर्घटनाओं का एक कारण है। 

आज भारत में बेरोजगारी, गरीबी, आतंकवाद, मंदी जैसी किसी भी अन्य समस्या से कहीं बड़ी समस्या सड़क दुर्घटनाओं से होने वाली जनहानि की है। लापरवाही के कारण सड़कों की खस्ता हालत, सरकारी देरी हादसों में योगदान दे रही है। भारत में हर साल डेढ़ लाख से ज्यादा लोग सड़क हादसों में मारे जाते हैं;  तो यह एक विश्व रिकॉर्ड बन जाता है। इसलिए यह आवश्यक हो गया है कि देश की अन्य समस्याओं को कुछ समय के लिए दरकिनार कर सड़कों के रख-रखाव और ड्राइविंग के प्रति जन जागरूकता पर अधिक ध्यान दिया जाए। दुर्घटनाओं की भारी संख्या के बावजूद, तत्काल चिकित्सा सहायता दुर्घटना स्थल पर नहीं पहुँचती है। वास्तव में, यह सहायता समयोचित मिलती हैं तो  दुर्घटनाओं के बाद मृत्यु दर निश्चित रूप से कम हो सकती है।  इसलिए इस मामले में और संवेदनशीलता दिखानी चाहिए।

देश में औसतन 5 से 7 परिवारों के एक या दो लोग सड़क हादसों का शिकार होते हैं। इससे बढ़कर और कोई अपराध नहीं हो सकता कि इतनी विकट समस्या को गंभीरता से न लिया जाए या कोई सुधार न किया जाए। इसलिए यह आवश्यक है कि वार्षिक बजट में सड़क निर्माण के साथ-साथ दुर्घटना रोकथाम अभियानों पर धन खर्च करने के लिए पर्याप्त प्रावधान किया जाए। क्योंकि, यह मुद्दा सीधे तौर पर नागरिकों के जीवन से जुड़ा है। 

महाराष्ट्र में आज हजारों निजी बसें यात्रियों को ले जाती हैं। जाहिर सी बात है कि उनकी सुरक्षा का भी ख्याल नहीं रखा जा रहा है। यात्रियों को ले जाते समय सुरक्षा के संबंध में कुछ नियम हैं;  लेकिन कई बार उन्हें पैरों तले रौंदा जाता है। उदाहरण के लिए, यात्रियों को ले जाने वाली बस में आपातकालीन निकास के रूप में एक दरवाजा होता है;  लेकिन एक स्थिति यह भी है कि वह दरवाजा नहीं खोलता है। उधर, आगजनी जैसी घटनाएं हुईं;  इसलिए ऐसे वाहनों में इसे नियंत्रण में लाने की कोई व्यवस्था नहीं है। इसके अलावा लापरवाही से वाहन चलाना अधिकांश हादसों की जड़ है। 

बढ़ते हुए महानगर, जगह की कमी, शहरों में जनसंख्या का संकेन्द्रण, नागरिक सुविधाओं पर इसका दबाव, दिलचस्प बात यह है कि शहर में बढ़ती आबादी के साथ-साथ वाहनों की बढ़ती संख्या, इन सबका दुष्प्रभाव दुर्घटनाओं की बढ़ती संख्या में परिलक्षित हो रहा है। यह विशेष रूप से मुंबई, पुणे जैसे महानगरों में अनुभव किया जाता है। इन बड़े महानगरों में सार्वजनिक जगहों पर वाहन रखने या पार्क करने तक की जगह नहीं है। सीमित सड़कों पर असीमित रूप में वाहन चलने लगे तो दुर्घटनाएं होना तय है। इसके अलावा, चूंकि ये महानगर बेहद व्यस्त कार्यक्रम और तेज़-तर्रार जीवनशैली वाले वर्ग से आबाद हैं, इसलिए हर कोई जल्दी निकलने की जल्दी में है। इससे यातायात नियमों की अवहेलना होती है और दुर्घटनाएं होती हैं। महानगरों में ही नहीं, बल्कि देश भर में जहाँ कहीं भी फोर लेन, सिक्स लेन सड़कें बनी हैं, वहाँ वाहनों की बढ़ती संख्या तनाव पैदा कर रही है। भारी भरकम टोल वसूलने के बावजूद राजमार्गों पर सुचारू यातायात के उपायों पर ध्यान न देने के कारण दुर्घटनाएं हो रही हैं। 

हर साल कम से कम 50 से 60 हजार वाहनों का सड़क हादसों के कारण नुकसान हो जाता हैं। इससे होनवाला नुकसान करोड़ों में है।  इसके कारण वाहनों की संख्या में भारी विस्फोट सामाजिक व्यवस्था पर भारी पड़ रहा है। दुर्घटना के बाद दुर्घटना पीड़ितों के परिजनों को आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है।  घटना की जांच के आदेश दिए जाते हैं;  लेकिन यह सब किसी तरह इस गंभीर मुद्दे को खत्म करने की कोशिश करता है। भोले-भाले यात्री गैरजिम्मेदार तत्वों के शिकार हो रहे हैं।  लेकिन, यह कहना पड़ेगा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसके सख्त प्रतिबंध को लेकर कोई गंभीरता नहीं है। 

राज्य में पिछले दस महीनों में 30 से अधिक 32 हजार से ज्यादा वाहन हादसे का शिकार हुए। हाल ही में एक आंकड़ा सामने आया है कि 65 से 70 हजार से ज्यादा लोग गंभीर रूप से घायल हुए हैं। कोरोना काल के दो वर्षों को छोड़कर पिछले वर्षों की तुलना में 2022 में गंभीर रूप से घायल होने वालों की संख्या 20-22 गुना से अधिक हो गई है। जनवरी-अक्टूबर के दस माह में प्रदेश में अब तक 30 हजार 558 वाहन दुर्घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें करीब 66 हजार लोग गंभीर रूप से घायल हुए हैं। हालांकि 2021 में 47,307 वाहन दुर्घटनाएं हुईं, गंभीर चोटों की संख्या 2,980 थी। पिछले पांच-सात साल में भी यह अनुपात कम थी। इसका मतलब यह है कि वर्ष 2022 में दुर्घटनाओं में गंभीर रूप से घायल होने वालों की संख्या उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है।  उस लिहाज से वर्ष 2022 दुर्घटना हानि का वर्ष माना जायेगा। चूंकि सार्वजनिक परिवहन प्रणाली अभी भी प्रभावी और दक्ष नहीं है, निजी वाहनों के उपयोग में वृद्धि अपरिहार्य है। व्यक्तिगत वाहन दैनिक गतिविधियों के लिए आवश्यक हैं।  काम या अन्य उद्देश्यों के लिए कई बार यात्रा अपरिहार्य होती है। इसके अलावा आज पर्यटन के लिए जाने वालों की संख्या में भी जबरदस्त इजाफा हुआ है। लेकिन दूर ही नहीं;  यह एक सच्चाई है कि आज घर के करीब यात्रा करना भी सुरक्षित नहीं है। इस तस्वीर को बदलने के लिए सरकार को व्यापक अभियान चलाना होगा। साथ ही, नागरिकों को वाहन चलाते समय गैरजिम्मेदारी और असावधानी से भी बचना चाहिए;  अन्यथा, आश्चर्यचकित न हों यदि 2023 में दुर्घटना से होने वाली हानियाँ एक नए उच्च स्तर पर पहुँच जाती हैं। - मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली। महाराष्ट्र। 


शुक्रवार, 9 दिसंबर 2022

मानवाधिकारों का सम्मान करने के प्रति उदासीनता

दुनिया में सभी को समानता का अधिकार मिले, इस दुनिया में जो भी हैं सभी समान रूप से जीने का अधिकार रखते हैं। इसीलिए हर साल 10 दिसंबर को मानवाधिकार दिवस मनाया जाता है। मंच पर मानवाधिकारों पर चर्चा होती है, आदेश जारी होते हैं, कार्यक्रम भी होते हैं। हालांकि, मानवाधिकारों का सम्मान करने और बनाए रखने के प्रति उदासीनता है। शैक्षिक क्षेत्र में इस पर एक पाठ्यक्रम शामिल करने के लिए भी कदम उठाए गए। लेकिन शिक्षा सहित कई क्षेत्रों में अधिकारों को कम आंका जा रहा है। यह एक सच्चाई है कि मानवाधिकारों के उल्लंघन और दुरुपयोग का ग्राफ नीचे नहीं जाता है। यहां तक ​​कि मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र आयोग ने भी ऐसी घटनाओं को रिकॉर्ड करने के अलावा कुछ ठोस नहीं किया है। क्योंकि यदि विश्व राजनीति में मानवाधिकारों का हनन हो रहा है तो समझौता करने की शक्ति केवल अमेरिका और अमेरिका के नेतृत्व वाले यूरोप के कुछ देशों के पास है, इसलिए अन्य देशों और कुछ संगठनों की भूमिकाएं अर्थहीन होती जा रही हैं। मानव अधिकारों के उल्लंघन का संदर्भ युद्धों, आंतरिक विद्रोहों, आतंकवादी हमलों, जातीय, धार्मिक और सांप्रदायिक दंगों तक ही सीमित रहता है। इसे अक्सर कम या ज्यादा स्वायत्तता और आत्मनिर्णय के लिए लड़ने वाले अल्पसंख्यक समुदाय का उल्लेख आवश्यकतानुसार किया जाता है।

एक व्यक्ति के रूप में हम अपने दैनिक जीवन में समाज की अनेक संस्थाओं के संपर्क में आते हैं। आज, यह देखना महत्वपूर्ण है कि किसी को अपना काम करने का अनुभव, विशेष रूप से प्रशासनिक या शैक्षिक व्यवस्था में, मानवाधिकारों के उल्लंघन के दायरे में आता है या नहीं। सरकार का प्रशासन कितना भी पारदर्शी और सिंगल विंडो क्यों न हो, हकीकत में कैसा है?  यह सात-बारह प्रमाणपत्र (जमीन के कागज) लेने और पैतृक संपत्ति का नामकरण करने के अनुभव से उभरता है। हालांकि इसके लिए व्यक्तिगत रूप से कोई जिम्मेदार नहीं है, लेकिन प्रशासनिक ढांचे के चलते अच्छे मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रशासनिक व्यवस्था के सामने झुकते नजर आते हैं। इसी तरह की स्थिति, वास्तव में शिक्षा प्रणाली में बदतर से बदतर वास्तविकता का अनुभव करती है। शिक्षा क्षेत्र के जुड़ाव को कभी-कभी भारतीय संस्कृति की दृष्टि माना जाता है। इसलिए आज भी नालंदा, तक्षशिला का उल्लेख भारतीय संस्कृति और संस्कारों के मंदिरों के रूप में मिलता है। लेकिन आधुनिक समय में शिक्षा क्षेत्र का स्वरूप बहुत बदल गया है। प्राथमिक विद्यालयों में जहां प्राथमिक शिक्षकों द्वारा बच्चों को मानवाधिकारों और अधिकारों से परिचित कराया जाता है, वहां व्यवस्था द्वारा उनके मानवाधिकारों का गला घोंटा जा रहा है। सबसे अधिक शोषित वर्ग प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक हैं। पिछले कई वर्षों से, प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक और शिक्षक जनगणना के काम से लेकर चुनाव के दौरान मतदाता पंजीकरण, पोलियो की खुराक और उसी के बारे में जागरूकता के काम में व्यस्त हैं। नहीं तो सिर पर प्रशासनिक डंडों की लटकती तलवार है। इसके अलावा और भी कई स्तरों पर इसका दोहन हो रहा है। यहां तक ​​कि इसके बारे में किसी और से बात करना भी कई लोगों के लिए कठीण बन जाता है।

 यह देखा गया है कि कई प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान महिला शिक्षकों के हककों और अधिकारों के प्रति उदासीन हैं। साथ ही विशाखा गाइडलाइंस के मुताबिक उन्हें कोई भी सुविधा उपलब्ध नहीं है। महिला विकास केंद्र नहीं हैं। दूसरी ओर आंगनबाडी सेविका- सहायिकाएं हैं, जिन्हें कार्य की प्रकृति के अनुसार उचित पारिश्रमिक नहीं मिलता है। इसलिए वे दो दशकों से सरकार को अपनी भावनाओं का इज़हार करते आ रहे हैं। ऐसे कई उदाहरण हमारे आसपास पाए जाते हैं। यह एक गहन प्रश्न है कि तथाकथित 'नागरिक' समाज में दूसरों के मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता कब पैदा होगी। इसका पता कोविड काल में चला। कोविड काल में वर्चुअल शिक्षा प्रणाली से वही लाभान्वित हुए जिनके पास साधन और आर्थिक संसाधन थे। बाकी वंचित रह गए और कुछ ने हताशा में अपनी जान गंवा दी। शिक्षा क्षेत्र में 'डिजिटल-डिव्हाइड’' ने समाज में अमीरों और वंचितों के बीच की खाई को चौड़ा कर दिया है। नतीजतन, भ्रम था कि कौन किसके अधिकारों के लिए लड़े। मानवाधिकारों और मूल्यों के मायने बदल गए हैं। नैतिक और अनैतिक के बीच की सीमाएं मिट गईं। आज है, लेकिन कल की गारंटी नहीं, जब सारा समाज आंदोलन की स्थिति में है, तो शिक्षा क्षेत्र को कौन पूछता है? हालांकि, इस सेक्टर से जुड़े कुछ फाउंडर्स ने दलालों की मध्यस्थता से उनकी प्रतिष्ठा  और सफेद कर दी। इन लोगों ने खूब लूटपाट की है। कोविड काल उनके लिए स्वर्णिम काल था। जरूरतमंद छात्रों, शोधार्थियों, नवनियुक्त शिक्षक-वर्गों, शिक्षा सेवकों को अपना शिकार बनाया। विभिन्न शिक्षण संस्थानों के इन साहूकारों ने बिना किसी परवाह के जितना खा सकते थे, खा लिया। जहाँ मानव और अमानव का भेद नहीं था, वहाँ अधिकारों पर 'ब्र' के उच्चारण का प्रश्न ही नहीं उठता था। इसकी पृष्ठभूमि यह है कि सरकार द्वारा शिक्षक का नाम 'नौकर' स्वीकार किए जाने के बाद इस पेशे के प्रति समाज का दृष्टिकोण बदल गया है। उसमें यह शिक्षक सेवक राजनीतिक दलों और नेताओं द्वारा प्रायोजित शिक्षण संस्थानों से चुनाव प्रचार में शामिल हुआ था। इसका भी एक अलग गणित है, यानी चुनाव के दिन वही शिक्षक वर्ग कभी चुनाव आयोग के प्रतिनिधि के रूप में, कभी मतदान अधिकारी तो कभी बूथ पदाधिकारियों के रूप में नजर आता है। एक शिक्षक जो मानव अधिकार सिखाता है वह अपने स्वयं के मानवाधिकारों के बारे में शिकायत नहीं कर सकता। यदि आप ऐसा करते हैं, तो आप परिणाम भुगतना पडता हैं। इसलिए  कोई परिणाम भूगतने के लिए तैयार नहीं होता हैं।  इसलिए ये शिक्षाविहीन राजनीतिक संस्थाएं और भी फायदा उठाते हैं। मानव अधिकारों के प्रति उदासीन प्रतीत होने वाले समाज के लिए नौवीं से बारहवीं कक्षा के लिए सरकारी स्तर पर 20 साल पहले एक नए और स्वतंत्र पाठ्यक्रम 'मानवाधिकार शिक्षा' की योजना बनाई गई थी। ताकि मानवाधिकारों को लेकर छात्रों, शिक्षकों और समाज के कुछ अन्य तत्वों की संवेदनशीलता को और जाग्रत किया जा सके। कई विश्वविद्यालयों ने 'मानवाधिकार' पर आधारित डिप्लोमा और सर्टिफिकेट कोर्स शुरू किए हैं। मानवाधिकारों और 'समान अवसर सिद्धांत' पर व्याख्यान, सेमिनार, अनुसंधान और प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय और राज्य मानवाधिकार आयोगों द्वारा और कभी-कभी कई शैक्षणिक संस्थानों द्वारा राष्ट्रीय सेवा योजना के माध्यम से पहल की गई है। 10 दिसंबर के मौके पर इन सभी योजनाओं को एक बार फिर से पुनर्जीवित करने की जरूरत है।-मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली। महाराष्ट्र।


मंगलवार, 6 दिसंबर 2022

रूस में फैंस ने राज कपूर को कार के साथ उठा लिया

भारतीय सिनेमा के स्वर्णिम इतिहास में राज कपूर का नाम प्रमुख है। बतौर शो मैन उन्होंने 'संगम', 'मेरा नाम जोकर', 'बॉबी', 'आवारा', 'श्री 420', 'बरसात' जैसी कई फिल्मों का निर्माण किया। वह फिल्मों के लिए देश-विदेश का दौरा करते थे और कथानक में जान डालते थे। वह अपनी हिट फिल्म 'मेरा नाम जोकर' के लिए रूस गए थे। जब उनके प्रशंसकों को इस बात का पता चला तो उन्होंने सचमुच में राज साहब को गाड़ी के साथ उठा लिया। इसके बारे में यह एक दिलचस्प कहानी है।

शोमैन राज कपूर हमेशा सिनेमा की दुनिया में एक व्यस्त व्यक्तित्व रहे हैं। उनके दिमाग में 24 घंटे सिनेमा का ख्याल हमेशा रहता था। उनकी पहली रंगीन फिल्म 'संगम' 1964 में रिलीज हुई थी। इससे पहले वह इस फिल्म के कलर प्रिंट के लिए इंग्लैंड गए थे। उनकी अगली महत्वाकांक्षी फिल्म थी 'मेरा नास जोकर' ! इस फिल्म में सर्कस का अपना एक अलग ही महत्व था और उस दौरान पूरी दुनिया में रूसी सर्कस का बोलबाला था। इंग्लैंड में रहते हुए, वह रूस के लिए रवाना हुए। वह वहां जाना चाहते थे और वहां के रूसी सर्कस के साथ अपनी आने वाली फिल्म पर चर्चा करना चाहते थे। लेकिन विमान में चढ़ने के बाद उंहें अहसास हुआ कि मेरे पास रूसी वीजा नहीं है। 

एयरपोर्ट पर उतरने के बाद वहां के अधिकारियों ने वीजा मांगा। राज ने असमर्थता व्यक्त की, लेकिन उसी वक्त एक इमिग्रेशन ऑफिसर ने राज कपूर को पहचान लिया और वो सामने आ गया। उसने राज कपूर से हाथ मिलाते हुए कहा, "वेलकम, राजकपूर वेलकम!" राज कपूर ने उसे सच बताया। उन्होंने राज कपूर को बैठाया और कहा, 'चिंता मत किजीए। मैं आपका वीजा एक मिनट में तैयार कर दूंगा।'  उसने ऐसा कहा और सचमुच अगले कुछ ही मिनटों में राज कपूर का वीजा तैयार हो गया। 

यह राज कपूर की लोकप्रियता का ही कमाल था। क्योंकि उस समय रूस में राज कपूर की फिल्मों को भारी लोकप्रियता मिल रही थी। असली मजा तो आगे ही है। वीजा मिलने के बाद राज कपूर एयरपोर्ट से बाहर आ गए। चूंकि उनकी आने की कोई योजना नहीं थी, यहां तक ​​कि रूसी सरकार द्वारा उन्हें हमेशा भेजी जाने वाली गाड़ी भी नहीं आई थी। इसलिए राज कपूर ने प्राइवेट टैक्सी से जाने का फैसला किया। तब तक एयरपोर्ट पर रूसियों को आभास हो गया कि राज कपूर वहां पहुंच गए हैं। वे पागलों की तरह राज कपूर के पास जमा हो गए और उनसे बातें करने लगे। हाथ मिलाने लगे। “आवारा हूं...' यह गीत कोरस में गाया जाने लगा। राज कपूर की मौजूदगी से पूरा एयरपोर्ट गदगद हो गया। उनमें से निकलकर राज कपूर अपनी टैक्सी में सवार हो गए, लेकिन टैक्सी के आसपास लोगों की भीड़ जमा हो गई। हर कोई राज कपूर को देखना चाहता था, उनसे मिलना चाहता था, हर कोई राज कपूर से हाथ मिलाना चाहता था। तो सबने राज कपूर की टैक्सी को सचमुच अपने कंधों पर उठा लिया और उनसे अभिवादन किया। रूस में किसी और कलाकार को इतनी बड़ी लोकप्रियता नहीं मिली! तभी एयरपोर्ट के सुरक्षा गार्ड वहां आ गए।  उसने राज को टैक्सी से बाहर आने और सबसे बात करने के लिए कहा। 

यह संस्मरण 3 सितंबर, 2016 को दिल्ली में पहले ब्रिक्स फिल्म समारोह के उद्घाटन के अवसर पर राज कपूर के दिवंगत अभिनेता ऋषि कपूर द्वारा साझा किया गया था।

गुरुवार, 1 दिसंबर 2022

हमें वनों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए

पृथ्वी, जंगल, जल, वायु, पशु-पक्षी सभी हमारे संसाधन हैं। मनुष्य इसी धन के आधार पर जीता आया है। उसी के आधार पर उन्होंने अपना विकास किया है। लेकिन अब वही शख्स उनकी जान लेने के लिए उठ खड़ा हुआ है। वह प्रकृति को नोंच रहा है। उसे नष्ट कर रहा है। इससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है। यह उसके लिए घातक होगा। अर्थात कुल्हड़ स्वयं के पैरों पर मार रहा है।  मनुष्य को आने वाले संकटों के प्रति सचेत रहना चाहिए।

प्रकृति के विशाल चक्र में मनुष्य भी एक तत्व है। वह लगातार इस चक्र के विभिन्न तत्वों से कुछ न कुछ लेता रहता है। वन भी उनमें से एक हैं। इसलिए वनों की सुरक्षा और संरक्षण जरूरी है। यह बात सभी के मन में अंकित होनी चाहिए। इसके लिए दुनिया भर काम होना चाहीए। आज पूरी दुनिया में जंगलों के बारे में दो बातें कही जाती हैं। एक, वनों की कटाई और दो, वनों की गिरती गुणवत्ता। वन संसाधनों, अन्य जीवित प्राणियों और भूमि इन सब पर विचार करके जंगल की गुणवत्ता निर्धारित की जाती है। इन कसौटियों पर हमारे देश में वनों की गुणवत्ता की जांच होनी चाहिए। दूसरे, वनों की कटाई और जानबूझकर जंगलों को जलाने से वनों का तेजी से क्षरण होता है। वनों के इस प्रकार सोचने का कारण यह है कि मानव संस्कृति की दृष्टि से वनों का अत्यधिक महत्व है। मनुष्य जंगलों से बहुत सी चीजें लेता है। मनुष्य कहे जाने वाले 'जानवर' को 'मानव' की पहचान मिलने से पहले भी वह वनों पर निर्भर था और आज भी है। मनुष्य को उपलब्ध पीने योग्य पानी का तीन-चौथाई हिस्सा जंगलों से आता है। वहां के जल संचयन वाले नैसगिर्क स्थानों की इसमें बड़ी भूमिका होती है। वन वर्षा के पानी को मिट्टी में सोखने में मदद करते हैं। मिट्टी का कटाव रोकता है। वन भूस्खलन को भी रोकते हैं। हमारे पास 'देवरई' होने का एक तरीका है।  देवरई क्षेत्र में साल भर हरियाली रहती है और वहां का पानी कभी कम नहीं होता। कोंकण क्षेत्र में देवराई, उसका घना जंगल, उसकी पैरों के घुटनों तक आनेवाली वनस्पति, उसकी लताएँ और उसकी हरी-भरी वनस्पतियाँ, जो दोपहर के बारह बजे भी सूर्य की किरणों को धरातल पर नहीं पहुँचने देतीं, इस बात का एहसास होता है कि देवरई कितना मूल्यवान है। यह महसूस किया जाता है कि यह क्षेत्र में मानव बस्ती के लिए कितना महत्व रखता है।

पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध में, प्रदूषण, वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड गैस की बढ़ती मात्रा और परिणामस्वरूप हवा के गर्म होने की चर्चा शुरू हुई। पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध में ही इस धरती पर बहुरंगी जीवन की आश्चर्यजनक विविधता कम होने लगी थी। वन इस विविधता को बनाए रखने और जलवायु परिवर्तन को कम करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। यानी स्वच्छ हवा और पानी, जैविक विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र 'स्वास्थ्य' के लिए वन आवश्यक हैं; इसके अलावा, जंगलों में कई औषधीय वनस्पतीयां हैं। बीमार पड़ने पर चिंपैंजी क्या खाते थे, यह देखकर मनुष्य ने कई औषधीय पौधों की खोज की। आयुर्वेद ने इस संबंध में बहुत अच्छा काम किया है।  हमें वनों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए जो मनुष्य को रोगमुक्त करने के लिए आवश्यक औषधि प्रदान करते हैं। आधुनिक विज्ञान वनों से प्रेरणा लेकर तरह-तरह के प्रयोग कर रहा है।

    पौधों की पत्तियाँ प्रकाश संश्लेषण द्वारा अपना भोजन स्वयं बनाती हैं।  हाल ही में, इसी सिद्धांत का उपयोग करके सौर ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए 'सौर सेल' बनाने में सफलता प्राप्त हुई है। इस तकनीक से परंपरागत रूप से उपयोग किए जाने वाले सिलिकॉन से छुटकारा मिल जाएगा और इसलिए इससे उत्पन्न होने वाले हानिकारक कचरे से छुटकारा मिल जाएगा। अब दावा किया जा रहा है कि जिन 'कृत्रिम पत्तियों' को विकसित किया गया है, उन्हें इमारतों की खिड़कियों में लगाया जा सकता है और सौर ऊर्जा का उपयोग किया जा सकता है। ऐसा माना जाता है कि हाइड्रोजन गैस के प्रयोग से हम वैकल्पिक ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं और एक दिन यह मिट्टी के तेल, डीजल, कोयले की जगह ले लेगी। उस संबंध में शोध भी चल रहा है।

पौधे उत्प्रेरक की मदद से हाइड्रोजन को ऑक्सीजन से अलग करते हैं,इससे प्रेरित होकर, शोधकर्ताओं ने अब एक कृत्रिम पत्ती के माध्यम से उसी रासायनिक प्रतिक्रिया को करने का प्रयास किया है। मनुष्य हमारे साथ रहने वाले वनस्पती, प्राणी, जंगल से कुछ ना कुछ नया सीख रहा है। यदि हम इस सब पर विचार करें तो हम जानते हैं कि मनुष्य पौधों पर और इसलिए वनों पर कितना निर्भर है। यह भी महसूस किया जाता है कि उनकी रक्षा करना सार्वभौमिक हित में है। इससे यह देखा जा सकता है कि तुकाराम महाराज के 'वृक्षवल्ली अम्हा सोयरे' के कथन को इक्कीसवीं सदी में एक नया प्रभाव मिला है। वर्तमान समय का अर्थ सभी के मन में गहराई से निहित होना चाहिए;  क्योंकि उसी से मनुष्य को नए युग का प्रभावी ढंग से सामना करने की ताकत मिलेगी। - मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली। महाराष्ट्र।

     

बुधवार, 30 नवंबर 2022

स्मार्टफोन के इस्तेमाल के खतरे

कैंसर एक खतरनाक बीमारी है जो हमारी बदलती जीवनशैली की देन है। बढ़ती जनसंख्या हमारे देश के लिए एक बहुत बड़ी समस्या है। इस आबादी की बढ़ती भूख को पूरा करने के लिए खाद्य उत्पादन कैसे बढ़ाया जा सकता है, इस पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है। यद्यपि हरित क्रांति ने हमें खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता दी है (20 प्रतिशत लोगों को भोजन नहीं मिलता, यह एक अलग मुद्दा है)  लेकिन इसने हमें कई बीमारियाँ भी दी हैं। देशी किस्मों को हटाकर हमने संकर किस्मों को अपनाया है। आधुनिक मशीनों, तंत्रों और औजारों के कारण मेहनत का काम भी कम हो गया है। लेकिन मानसिक तनाव बढ़ गया है।  इस कारण हमारा शरीर एक अलग लाइफस्टाइल जी रहा है। इसके चलते आंतरिक शरीर की साधना को हल्के में लिया जा रहा है। धन प्राप्ति के नाम पर शरीर की उपेक्षा की जा रही है। इस बीच स्मार्टफोन जैसी चीजों ने हमारी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करते हुए पूरी दुनिया पर कब्जा कर लिया है। किराने के सामान से लेकर बड़े सामान की खरीद-बिक्री से लेकर नौकरी तक, छोटे-बड़े व्यावसायिक प्रोजेक्ट आज मोबाइल पर पूरे हो रहे हैं। जाहिर है, स्मार्टफोन का इस्तेमाल अनिवार्य हो गया है।  लेकिन यह अनिवार्यता हमें खतरे में डाल रही है, इस पर भी अब ध्यान देने की जरूरत है। यह कहने का समय आ गया है कि जितना हो सके स्मार्टफोन को दूर रखना बेहतर है, खासकर बच्चों से। 

मुंबई में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (इंडियन इन्स्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी-आईआईटी) के प्रोफेसर गिरीश कुमार ने निष्कर्ष निकाला है कि स्मार्टफोन के अत्यधिक उपयोग के कारण किशोरों में ब्रेन कैंसर की दर में 400 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में सेलफोन में विकिरण के खतरे के विषय पर अपना शोधनिबंध प्रस्तुत किया है। इसमें उन्होंने स्मार्टफोन के छिपे खतरों के बारे में बताया है। यह कहते हुए उन्होंने हमसे रिक्वेस्ट भी की है कि हम हर दिन 30 मिनट से ज्यादा स्मार्टफोन का इस्तेमाल न करें। दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने उन्नत तकनीक के अत्यधिक उपयोग के गंभीर परिणामों के बारे में एक रिपोर्ट भी केंद्र सरकार को सौंपी है और सरकार के स्तर पर जन जागरूकता और उपचारात्मक उपायों का भी अनुरोध किया है।

आज की युवा पीढ़ी इस स्मार्टफोन के बिना नहीं रह सकती है। इसके अत्यधिक उपयोग के कारण कुछ लोगों में मोबाइल फोबिया विकसित होने के उदाहरण हैं। मोबाइल फोन के कारण मानसिक बीमारियों से पीड़ित मरीजों को विशेष मोबाइल रिकवरी सेंटर की जरूरत पड रही है। कुछ ने मोबाइल फोन के लिए आत्महत्या की है। कुछ ने अपने ही माता-पिता को मार डाला है। हम यह निष्कर्ष सुनते आ रहे हैं कि बच्चे अत्यधिक मोबाइल गेम खेलने के कारण चिड़चिड़े हो गए हैं या हो रहे हैं। हालांकि, यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि इसे नजरअंदाज करने से हमें भविष्य में भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। अभिभावकों को अपने बच्चों पर लगाम कसनी चाहिए, लेकिन स्कूलों, कॉलेजों और अखबारों, टीवी चैनलों और सरकारी स्तर पर भी जागरूकता पैदा करने की जरूरत है। लगातार स्मार्टफोन के इस्तेमाल से किशोरों में ब्रेन कैंसर के मामलों में 400 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। इसके अलावा, मोबाइल फोन से निकले वाले विकिरण से  युवाओं में डीएनए पर हानिकारक प्रभाव डाल सकता है, और मस्तिष्क क्षति के कारण अनिद्रा, डिमेंशिया और कंपकंपी जैसी बीमारियां हो सकती हैं, गिरीश कुमार ने कहा। क्‍योंकि बच्‍चों की खोपड़ी नाजुक होती है और ये रेडिएशन उनमें आसानी से प्रवेश कर सकते हैं। मोबाइल फोन से निकलने वाला रेडिएशन पशु और पौधों के जीवन पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। बेशक आधुनिक व्यवस्था आज हमारे काफी करीब हो गई है। कभी-कभी हमारे पास उनका उपयोग करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है। हालांकि यह बात अभी सच है, लेकिन कुछ बातों का ध्यान रखना होगा। हम यह भी जानते हैं कि किसी भी चीज की अति हानिकारक होती है। आज दुनिया को दूरसंचार क्षेत्र द्वारा करीब लाया गया है।  इसमें बड़ी प्रगति हुई है।  यह तकनीक अभी भी विकसित की जानी है। इसलिए इससे इंसान को फायदा होगा, लेकिन फिर भी इससे होने वाले खतरों को नजरअंदाज किए बिना आगे चलते रहना गंभीर समस्या झेलना है। 

स्मार्टफोन के आने से दुनिया हमारे हाथों में आ गई है। हमें नहीं पता कि यह तकनीक हमें कहां ले जाएगी। बीस साल पहले किसी को विश्वास नहीं होता था कि हम कहीं से भी संचार कर सकते हैं। बीस साल पहले किसी को विश्वास नहीं होता था कि हम कहीं से भी संचार कर सकते हैं। लेकिन आज हम न केवल बात कर सकते हैं, बल्कि अब हम एक दूसरे को देख भी सकते हैं। यह कल्पना करना असंभव है कि यह प्रगति मनुष्य को किस स्तर तक ले जाएगी। लेकिन हम जहां भी हैं, वहां से हमारा काम भी हो रहा है। तो अब हमें ऑफिस जाकर काम करने की भी जरूरत नहीं है। इसलिए यह जितना जरूरी है, वास्तव में इसके खतरे भी उतने ही बड़े हैं । इस पर ध्यान देने से इन्हें कैसे कम किया जा सकता है, इस पर अध्ययन की जरूरत है। यह भी कहा जाता है कि वाईफाई क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिए जोखिम हैं। जिस तरह पैसिव स्मोकिंग एक्टिव स्मोकिंग से ज्यादा खतरनाक है, उसी तरह नेट, फोन किरणों के भी खतरे हैं। किसी चीज के फायदे को ज्यादा तवज्जो दी जाती है, लेकिन उसके खतरों को भी उतनी ही गंभीरता से देखने की जरूरत है। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली ।महाराष्ट्र।


मंगलवार, 29 नवंबर 2022

रिश्ता दोस्ती का ...

आग लगी थी मेरे घर में सब जानने वाले आए।

 हाल पूछा और चले गए ।

एक सच्चे दोस्त ने पूछा," क्या क्या बचा है....।"

 मैने कहा, " कुछ नहीं सिर्फ मैं बच गया हूं।"

 उसने गले लगाकर कहा, ".. तो फिर जला ही क्या है?"

जन्म से लेकर मृत्यु तक व्यक्ति कई रिश्ते जोड़ता है। कुछ रिश्ते जन्म के साथ तय हो जाते हैं तो कुछ रिश्ते जिंदगी जीते वक्त  जुड़ जाते हैं। इन्हीं में से एक रिश्ता है दोस्ती का, जो हर किसी की जिंदगी में बहुत मायने रखता है। दोस्ती हमेशा प्यार से बेहतर होती है। पुराणों, इतिहास में ऐसी पवित्र और अटूट मित्रता के अनेक उदाहरण मिलते हैं। द्वारकाधीश श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता हो या महाभारत में दुर्योधन और कर्ण की मित्रता,राम एवं सुग्रीव की दोस्ती, पृथ्वी राज चौहान और चन्द्रवरदायी की मित्रता, महाराणा प्रताप और उनके घोड़े चेतक की दोस्ती , यह पवित्र बंधन से अमर हो गई है। इतिहास पर नज़र डालें तो हिंदवी स्वराज्य के दूसरे छत्रपति संभाजी महाराज और कवि कलश के बीच की गहरी दोस्ती आँखों के सामने खड़ी होती है। उनके बीच यह दोस्ती आखिरी सांस तक बनी रही। अकबर-बीरबाल की मित्रता, तेनालीराम और महाराज कृष्णदेवराय की मित्रता भी इसी श्रेणी में आती है। ये सभी दोस्त इतिहास में अपना नाम लिखकर चले गए। आज के आधुनिक समय में दोस्ती का स्वरूप, उसकी परिभाषा, इस रिश्ते का संदर्भ सब बदल गया है। लाइफस्टाइल, फैशन, सोशल मीडिया का आज इंसान के दिमाग पर  और बदले में दोस्ती के मापदंड पर भी काफी प्रभाव पड रहा है ।  दोस्तों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, लेकिन यह दोस्ती असली दोस्ती है या नहीं इसका जवाब देना संभव नहीं है। आजकल फेसबुक पर कई लोगों की फ्रेंड लिस्ट में हजारों फ्रेंड्स होते हैं। उसकी मित्र सूची हमेशा के लिए भरी हुई प्रतीत होती है;  लेकिन इनमें से कितने सच्चे दोस्त हैं यह बता पाना मुश्किल है। अवसाद की गहराइयों में फंसने के बाद अपने विचार किससे व्यक्त करें, सफलता के बारे में किसे बताएं? ऐसा सवाल वो भी पूछते हैं जिनकी फ्रेंड लिस्ट में हजारों फ्रेंड्स होते हैं। जब दोस्तों की वाकई जरूरत होती है तो कोई भी दोस्त उनका साथ देने के लिए आगे नहीं आता और यही उनकी सबसे बड़ी त्रासदी बन जाती है। दुनिया भले ही आधुनिक तकनीक के कारण जेब में आ गई हो, लेकिन हर रिश्ता सोशल मीडिया तक ही सीमित रह गया है। 'फ्रेंडशिप डे' सिर्फ नाम के लिए रह गया है। सब कुछ सफलता- असफलता, आर्थिक लाभ, स्वार्थ के तराजू में तौला जा रहा है। ऐसे में यह सोचना जरूरी है कि आपके फेसबुक पर कितने दोस्त हैं, आप कितने व्हाट्सएप ग्रुप पर हैं, बजाय इसके कि आपके जीवन में कितने करीबी दोस्त हैं। 

शनिवार, 26 नवंबर 2022

गरीब पाकिस्तान में, शासक मालामाल

 पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद का कार्यकाल 29 नवंबर को समाप्त होगा। लेकिन उससे पहले ही एक सनसनीखेज खबर के चलते बाजवा विवादों में घिर गए हैं। यह जानकारी उनकी पत्नी की संपत्ति से जुड़ी है। एक पाकिस्तानी पत्रकार द्वारा प्रकाश में लाई गई जानकारी के अनुसार, बाजवा के परिवार की पाकिस्तान और विदेशों में संपत्ति और व्यवसायों का कुल मूल्य 12. 7 अरब से अधिक है। यह सर्वविदित तथ्य है कि पाकिस्तान में चुनी हुई सरकार नाममात्र की होती है और सारी शक्तियाँ सेना के हाथ में होती हैं। इससे खुलासा हुआ है कि बाजवा ने इस ताकत का गलत इस्तेमाल कर अपना घर भर लिया है।  पाकिस्तान में इस समय सरकारी संपत्ति को लूटा जा रहा है।

भारत का पड़ोसी देश पाकिस्तान पिछले कुछ समय से आर्थिक तंगी से जूझ रहा है और यह बात सामने आई है कि देश के पास कर्ज की किस्त चुकाने के लिए पैसे नहीं हैं। पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति दयनीय स्थिति में पहुंच गई है। वहां महंगाई चरम पर है।  ईंधन समेत रोजमर्रा की जरूरत की चीजों के दाम आसमान छू गए हैं। ऐसे में पाकिस्तान सरकार के पास वित्तीय अनुशासन बनाए रखने के लिए लोगों पर वित्तीय बोझ डालने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। लेकिन इससे जनता की कमर टूट सकती है।  क्योंकि अगले कुछ दिनों में पाकिस्तान में बड़ी संख्या में लोगों के पास खाने-पीने के लिए भी पैसे की कमी हो जाएगी। साथ ही, पैसे के बावजूद, राक्षसी महंगाई के सामने उनका मूल्य नगण्य होने वाला है। ऐसा समय पाकिस्तान पर आने के लिए पूरी तरह से पाकिस्तान के हुक्मरानों और उन्हें अपने इशारों पर नचाने वाले लष्करशाह जिम्मेदार हैं।  पाकिस्तान की जनता निर्वाचित सरकार की अप्रभावी, व्यवहारशून्य और दिशाहीन नीतियों से पीड़ित है।

पाकिस्तान के आम लोगों की दुर्दशा इतनी भयावह है कि किसी भी हमदर्द का दिल दहल जाए। इस बीच, पाकिस्तान पर शासन करने वाले राजनीतिक और सैन्य नेताओं की विलासिता रत्ती भर भी नहीं बदली है। वहीं दूसरी तरफ जिस तरह से उनकी कमाई में इजाफा हो रहा है उसे देखकर कोई भी हैरान रह जाएगा। पाकिस्तान का आज कोई ऐसा नेता नहीं है जिसने इस गरीबी की हालत में भी बहुत पैसा जमा न किया हो। इस तथ्य को इन नेताओं द्वारा विलासिता पर करोड़ों रुपये खर्च करने से आसानी से देखा जा सकता है। पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान और मौजूदा प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ भले ही दुनिया के सामने देश की गरीबी का गाना गा रहे हों, लेकिन सियासी और फौजी नेताओं की फिजूलखर्ची छिपी नहीं है। 

देश में आर्थिक संकट के बावजूद अमीर बनने वालों की लिस्ट में अब एक नया नाम जुड़ गया है। नाम है पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल कमर जावेद बाजवा।  जनरल बाजवा 29 नवंबर को रिटायर हो रहे हैं। इससे पहले ही उनकी संपत्ति के आंकड़े से एक चौंकाने वाला खुलासा हो चुका है। इस हिसाब से पिछले छह साल में ही उनकी संपत्ति में आश्चर्यजनक इजाफा हुआ है। इसमें खुलासा हुआ है कि पाकिस्तान और विदेशों में संपत्तियों और व्यवसायों का कुल मूल्य 12.7 अरब से अधिक है।  जनरल बाजवा के बेटे की हाल ही में शादी हुई है। लेकिन उससे 9 दिन पहले ही उनकी बहू की संपत्ति में अचानक इजाफा हुआ है। बहु की संपत्ति में भी अचानक वृद्धि हुई।  एक पाकिस्तानी वेबसाइट 'फैक्ट फोकस' ने दावा किया है कि ये बहु अब अरबपति बन गई है। जनरल बाजवा के परिवार ने उनकी बहू महनूर साबिर के पिता साबिर मिठू हमीद के साथ एक ज्वाइंट वेंचर शुरू किया। वेबसाइट ने यह भी दावा किया कि हमीद ने पाकिस्तान के बाहर काफी पैसा ट्रांसफर किया और विदेश में संपत्ति खरीदी है। इतना ही नहीं इस वेबसाइट का कहना है कि जनरल कमर जावेद बाजवा की पत्नी भी अचानक अरबपति बन गई हैं। जनरल बाजवा की पत्नी आयशा बाजवा ने गुलबर्ग ग्रीन्स इस्लामाबाद और कराची में एक बड़ा फार्म हाउस, लाहौर में कई भूखंड, डीएचए योजनाओं में वाणिज्यिक भूखंड और  प्लाजा खरीदे हैं। जब बाजवा पाकिस्तान के सेना प्रमुख नहीं थे, तब उनकी पत्नी को एक गृहिणी बताया गया था और उन्होंने आयकर भी नहीं दिया था। इसका मतलब यह है कि यह संपत्ती बाजवा के सेना प्रमुख के कार्यकाल के दौरान हासिल की गई है। जनरल बाजवा के करीबी हों या दूर के रिश्तेदार, हर कोई इन दिनों अमीर है। बाजवा के समधी एक सामान्य व्यापारी थे।  उनका कारोबार बड़ा नहीं था और वह अरबपति भी नहीं था। लेकिन बाजवा के सेना प्रमुख बनते ही दोनों परिवारों की सूरत बदल गई।

कई बार देखा गया है कि पाकिस्तान के राजनीतिक नेता और सैन्य नेता पैसे के कितने लालची होते हैं। यद्यपि वहां लोकतान्त्रिक राज्य व्यवस्था है, वह केवल नाम की है। क्योंकि वहां की अदालतें भी संप्रभु और स्वायत्त नहीं हैं। वे वहां सेना के अप्रत्यक्ष नियंत्रण में हैं।  इसके अलावा पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरपंथियों ने न्यायपालिका पर भी काफी दबाव बनाया है। हालाँकि पाकिस्तान भारत की तरह लोकसभा के आम चुनाव आयोजित करता है, यह एक तरह से 'फार्स' है; क्योंकि चुने हुए जनप्रतिनिधियों द्वारा स्थापित सरकार कठपुतली गुड़िया की तरह होती है। इन गुड़ियों की डोर सेना और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के हाथ में है। पाकिस्तान की सरकार और इस सरकार के मंत्री बिना सेना की मंजूरी के एक भी फैसला नहीं ले सकते। इसलिए वहां की सेना के पास सारी ताकत है और फौजी अफसर उसका गलत इस्तेमाल कर बेशुमार दौलत बटोर रहे हैं। हाल ही में पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश गुलज़ार अहमद ने सैन्य उद्देश्यों के लिए सेना को दी गई भूमि के व्यावसायिक उपयोग के मुद्दे को उठाया था। ऐसा इसलिए क्योंकि सरकारी जमीन को सैन्य उद्देश्यों के लिए लिया जा रहा है और उस पर सिनेमा हॉल, मैरिज हॉल, पेट्रोल पंप, शॉपिंग मॉल बनाए जा रहे हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि पाकिस्तानी सेना का स्वार्थ किस हद तक पहुंच गया है।

पाकिस्तान हमेशा भारत की बराबरी करने की फिराक में रहता है। लेकिन भारत और पाकिस्तान के बीच बुनियादी अंतर बहुत है। भारत में भी भ्रष्टाचार है लेकिन हमारी न्यायपालिका अभी भी सर्वोच्च है। यहां की न्याय व्यवस्था ने समय-समय पर ऐसे भ्रष्टाचारियों को आरोप साबित कर जेल भेजने का फैसला किया है, चाहे वे कोई भी हों। दूसरी ओर, भारतीय सेना देश की रक्षा के लिए पूरी तरह से समर्पित है। भारतीय सेना को यहां के लोगों से जो सम्मान और आदर मिलता है, वह उसके सैनिकों के समर्पण में निहित है।  लोगों को उनकी वफादारी, पारदर्शिता, ईमानदारी, निष्पक्षता पर भरोसा है। इस विश्वास को हमारे सेना के अधिकारियों ने, सेवा में  और सेवानिवृत्ति के बाद भी जवानों ने कायम रखा है। वित्तीय गबन, भ्रष्टाचार, अवैध धन के मामलों में हमारे सैन्य अधिकारी कभी शामिल नहीं रहे हैं। हालाँकि इतिहास में कुछ मामले सामने आए होंगे;  लेकिन इस संबंध में छानबीन करके एक निष्पक्ष निर्णय लिया गया है। इसके विपरीत पाकिस्तान में है।  वहां पाकिस्तान सरकार का खजाना सेना के लिए चारागाह है। इसीलिए सेना के साथ-साथ सरकार पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं। जनरल बाजवा का मामला हिमशैल का सिरा है। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, मुक्त पत्रकार 

रविवार, 20 नवंबर 2022

कृषि उपज के निर्यात में कठिनाइयाँ

भारत एक कृषि प्रधान देश है और हम पशुधन की संख्या के मामले में दुनिया में सबसे आगे हैं। फिर भी पशुधन उत्पादकता कम है। हालांकि देश हरित क्रांति के बाद खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हो गया, लेकिन अपनी कृषि कभी लाभदायक नहीं रही। कृषि कानूनों को लेकर किसानों का ऐतिहासिक आंदोलन हुआ। प्रस्तावित कानूनों को बाद में निरस्त कर दिया गया। लेकिन हमें इस बात का जवाब नहीं मिला है कि कृषि उपज का अच्छा बाजार मूल्य मिलने से किसान कैसे समृद्ध होंगे। कृषि उत्पादों और प्रसंस्कृत (प्रक्रियाकृत) खाद्य पदार्थों का निर्यात कैसे और कहाँ किया जाए, इस पर भारत की कोई स्पष्ट नीति नहीं है। यही वजह है कि पिछली बार अंगूर का सीजन शुरू होने के बाद भी चीन को निर्यात जारी नहीं रहा। यही हाल प्याज और डेयरी उत्पादों का भी रहा। सौभाग्य से, वित्तीय वर्ष 2021-22 में, भारत ने 50 बिलियन डॉलर मूल्य की कृषि वस्तुओं का निर्यात किया। और अप्रैल से सितंबर 2022 तक इसमें 16 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।

केंद्र सरकार ने 13 मई को गेहूं के निर्यात पर रोक लगा दी थी। इसके बावजूद अप्रैल-सितंबर 2022 के दौरान गेहूं का निर्यात लगभग दोगुना होकर 46 लाख टन हो गया। 24 मई, 2022 को चीनी के निर्यात को मुक्त सूची से बाहर कर नियंत्रित सूची में रखा गया। 2021-22 में चीनी का अधिकतम निर्यात प्रतिबंधित था। 8 सितंबर को टूटे (तुकडा) चावल के निर्यात पर रोक लगा दी गई और गैर-बासमती चावल के निर्यात पर 20 फीसदी टैक्स लगा दिया गया. इसके बावजूद अप्रैल-सितंबर 2022 में चीनी निर्यात पिछले साल के मुकाबले 45 फीसदी बढ़कर 2.65 अरब डॉलर पर पहुंच गया। पिछले साल चीनी का कुल निर्यात 4.6 अरब डॉलर का था। ऐसे संकेत हैं कि हम इस साल और आगे बढ़ेंगे। चालू वर्ष की पहली छमाही में बासमती चावल के निर्यात में दो लाख टन की वृद्धि हुई है, जबकि गैर-बासमती चावल के निर्यात में सात लाख टन की वृद्धि हुई है। बेशक, इसके बावजूद भारत में कृषि उत्पादों के आयात में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।

2013-14 में, कृषि वस्तुओं के आयात और निर्यात में 27 बिलियन अमरीकी डालर का अधिशेष (आधिक्य) था। आज यह अधिशेष घटकर 17 अरब डॉलर रह गया है। हालाँकि निर्यात में 16 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, यह परिस्थिती आयात में 27 प्रतिशत की वृद्धि के कारण हुई है। अप्रैल-सितंबर 2021 में कपास का निर्यात 1.1 अरब डॉलर था। इस साल इसी अवधि में यह घटकर आधे से भी कम रह गया है। पिछले साल कपास का उत्पादन घटा था। इसलिए कपड़ा मिलों को विदेशों से कपास का आयात करना पड़ा था। हाल के दिनों में मिर्च, पुदीना उत्पाद, जीरा, हल्दी और अदरक का निर्यात बढ़ा है। लेकिन भारत काली मिर्च और इलायची जैसे पारंपरिक मसालों का आयात कर रहा है। काली मिर्च के मामले में वियतनाम, श्रीलंका, इंडोनेशिया और ब्राजील ने भारत को पीछे छोड़ दिया है, जबकि इलायची के मामले में ग्वाटेमाला ने भी भारत को पीछे छोड़ दिया है।

2021-22 में भारत ने 45 करोड़ रुपए के काजू का निर्यात किया।  साथ ही हमने 125 करोड़ डॉलर के काजू का भी आयात किया। इस वर्ष की पहली छमाही में इन आयातों में काफी वृद्धि हुई है। जब देश कोरोना से बीमार था तब भी भारत ने चीन को दो हजार टन अंगूर भेजे थे। तो हरा रंग, लंबी माला और  काले जंबो अंगूर चीन को  निर्यात करके हमने 40 करोड़ रुपये कमाए। इस साल हालांकि निर्यात के लिए अनुकूल माहौल के बावजूद नीति के अभाव और सीजन की उचित योजना के चलते लंबे समय तक निर्यात नहीं हो सका। फैसला लेने में देरी की वजह क्या रही, इसका पता नहीं चल सका है। यूरोपीय देश के सख्त अंगूर निर्यात नियमों का पालन करते हुए, भारत में किसानों ने पिछले साल एक लाख टन से अधिक अंगूर का निर्यात किया।

चीन को निर्यात करते समय ऐसी सख्त शर्तें नहीं लगाई जाती हैं। वहां का बाजार भी बहुत बड़ा है। फिर भी सरकार की देरी का खामियाजा किसानों को भुगतना पड़ रहा है। इसी तरह दूध और दुग्ध उत्पादों के उत्पादन में हम दुनिया की तुलना में कहीं नहीं हैं। हम यूरोप को मक्खन निर्यात कर सकते हैं। लेकिन सरकार को नीति बनानी चाहिए ताकि यहां की डेयरियां गुणवत्ता के मानकों पर खरी उतरें। हम बांग्लादेश और खाड़ी देशों को मक्खन निर्यात करते हैं। लेकिन वहां निर्यात को उतनी कीमत नहीं मिलती, जितनी यूरोपीय देशों में मिलती है। दूध पाउडर नीतियों को लेकर केंद्र सरकार की धरसौड़ी नीति है। जब अतिरिक्त दूध की समस्या उत्पन्न होती है तो हम दूध पाउडर का निर्यात करने के लिए जाग जाते हैं। हमारी समस्या के कारण, उससे उबरने के लिए, जब हम दुग्ध पाउडर का निर्यात करते हैं, तो विश्व बाजार से कीमतों की मांग कम की जाती है। इस साल निर्यात करना, लेकिन अगले साल निर्यात नहीं करना है, ऐसा नहीं चलता। ऐसी नीति काम नहीं करती।

केंद्र और राज्यों ने मिल्क पाउडर के लिए एक्सपोर्ट सब्सिडी दी है, लेकिन हम उम्मीद के मुताबिक एक्सपोर्ट नहीं कर पाए हैं। क्योंकि अगर निर्यात में निरंतरता रहती है, तो बड़ी कंपनियां और देश हमारे साथ व्यापार करने के इच्छुक रहतें हैं, अन्यथा नहीं। किसान संघ के दिवंगत नेता शरद जोशी कृषि उपज के उचित मूल्य की मांग कर रहे थे और उनका कहना था कि आयात-निर्यात के व्यापार में सरकार को दखल नहीं देना चाहिए। लेकिन आज भी कीमत न होने के कारण जब प्याज को सड़क पर फेंकने का वक्त आता है तो निर्यात का ख्याल आने लगता है और जब प्याज के दाम थोड़े बढ़ जाते हैं और किसानों को थोड़े बहुत ज्यादा पैसे मिलने लगते हैं तो 'प्याज ने गृहिणियों की आंखों में पानी ला दिया' ऐसा चिल्लाया जाता है। फिर प्याज आयात करने का फैसला लिया जाता है। सरकार चाहे किसी भी दल की हो।  कृषि निर्यात नीति में निरंतरता होनी चाहिए। - मच्छिंद्र ऐनापुरे, मुक्त पत्रकार

गुरुवार, 17 नवंबर 2022

2050 में विश्व जनसंख्या वृद्धि की दर धीमी हो जाएगी

 15 नवंबर 2022 को दुनिया की आबादी 800 करोड़ के आंकड़े को पार कर गई।  यह भविष्यवाणी 14 नवंबर को संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में की गई थी। चीन और भारत इस आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा हैं। दिलचस्प बात यह है कि इसी रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र ने भी भविष्यवाणी की है कि जनसंख्या के मामले में भारत चीन को पछाड़कर दुनिया में पहले स्थान पर पहुंच जाएगा। यह भी अनुमान है कि विश्व की जनसंख्या 2030 तक 850 करोड़, 2050 तक 970 करोड़ और 2100 तक 1040 करोड़ हो जाएगी। 2080 में दुनिया की आबादी चरम पर होगी।  2100 के बाद जनसंख्या घटने लगेगी।

संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट में अलग-अलग भविष्यवाणी की गई है। इसने यह भी भविष्यवाणी की कि जब भारत, जो जनसंख्या में दूसरा सबसे बड़ा देश है, चीन को पीछे छोड़ देगा और पहला देश बन जाएगा। इसके मुताबिक भारत अगले साल यानी 2023 में चीन को पछाड़कर मौजूदा दर से आबादी में नंबर वन बन जाएगा। 2050 तक विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या वृद्धि केवल आठ देशों में होगी। इसमें कांगो, मिस्र, इथियोपिया, भारत, नाइजीरिया, पाकिस्तान, फिलीपींस और तंजानिया शामिल हैं। संयुक्त राष्ट्र की वार्षिक विश्व जनसंख्या संभावना रिपोर्ट सोमवार (14 नवंबर) को विश्व जनसंख्या दिवस पर प्रकाशित हुई थी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि वर्तमान जनसंख्या वृद्धि दर 1950 के बाद से सबसे कम है। 2020 में जनसंख्या वृद्धि दर 1 प्रतिशत से भी कम थी।

दुनिया की आबादी को 700 करोड़ से 800 करोड़ होने में कुल 12 साल लगे। अब इस आबादी को 800 से बढ़ाकर 900 करोड़ करने में 15 साल लगेंगे। यानी साल 2037 में 900 करोड़ आबादी पहुंच जाएगी।  इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इसके कारण विश्व की जनसंख्या वृद्धि दर धीमी हो गई है। ब्रिटिश अर्थशास्त्री थॉमस रॉबर्ट माल्थस ने जनसंख्या वृद्धि पर एक सिद्धांत प्रतिपादित किया था। उसका नाम माल्थस थ्योरी है। माल्थस के सिद्धांत के अनुसार जनसंख्या प्रत्येक 25 वर्ष में दुगनी हो जाती है।  जब संसाधन सामान्य दर से बढ़ते हैं तो जनसंख्या वृद्धि दर दोगुनी हो जाती है। उदा.  यदि जनसंख्या 2 से 4 और 4 से 8 हो जाती है, संसाधन 2 से 3 और 3 से 4 हो जाता है।

माल्थस के सिद्धांत के अनुसार यदि जनसंख्या तेजी से बढ़ती है तो संसाधन कम होने लगते हैं। इससे भोजन और प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव पड़ता है। माल्थस का कहना है कि ऐसी स्थिति में जनसंख्या नियंत्रण के लिए स्वतः ही प्राकृतिक घटनाएं घटित होती हैं। उदा.  जनसंख्या को सूखा, महामारी, युद्ध और प्राकृतिक आपदाओं जैसी घटनाओं द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
हालाँकि, माल्थस के सिद्धांत की कई बार आलोचना की गई है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, उपचार और प्रौद्योगिकी में प्रगति सार्वजनिक स्वास्थ्य, पोषण, स्वच्छता और चिकित्सा को अधिक सुलभ बना रही है। इसके कारण महामारी की दर में कमी आई है।  महामारी हो भी जाए तो मरने वालों की संख्या पहले से कम है, क्योंकि इलाज उपलब्ध है। स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण जीवन प्रत्याशा बढ़ी है।  इससे मृत्यु दर में कमी आई है और जनसंख्या में वृद्धि हुई है। आज दुनिया की आबादी आठ अरब यानी 800 करोड़ हो गई है।  निश्चित रूप से यह एक ऐतिहासिक दिन है। पटाया-थाईलैंड में अंतर्राष्ट्रीय परिवार नियोजन सम्मेलन संपन्न हुआ। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) के कार्यकारी अध्यक्ष डॉ.  नतालिया कानेम ने यह जानकारी दी। उन्होंने कहा कि 'आठ' अंक सांकेतिक है।  यदि इसे क्षैतिज रूप से घुमाया जाए तो अनंत की तस्वीर बनती है।  इस संख्या को पार करने वाली दुनिया में अब महिलाओं और लड़कियों के लिए विकास की अनंत संभावनाएँ होनी चाहिए।

जमीन को देखने का नजरिया बदलें

भूमि प्रकृति का सबसे महत्वपूर्ण और उदात्त तत्व है। कोई भी जीवित वस्तु मिट्टी से उत्पन्न होती है और मिट्टी में समाप्त हो जाती है। इसीलिए सभी सजीवों के जीवन चक्र में भूमि को अधिक महत्व दिया जाता है। भूमि जीवों के लिए भोजन, वस्त्र और आश्रय प्रदान करती है। इसलिए धरती को माता कहा जाता है। स्वस्थ रहने के लिए जीवित जीवों के लिए स्वच्छ हवा, पानी और समग्र अच्छे वातावरण को बनाए रखने में भूमि महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह सभी जीवित जीवों के अवशेषों को अपने पेट में लेकर उन्हें संसाधित करने से पर्यावरण को कोई खतरा नहीं होता है। सूर्य के प्रकाश की तीव्रता कम या ज्यादा होने के बाद प्रकृति में तापमान को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी पृथ्वी की होती है। जब पानी वातावरण में वाष्पित हो जाता है, तो हम पर्यावरण को कोई हानिकारक पदार्थ और लवण भेजे बिना इसे अपने शरीर में रखकर पर्यावरण को स्वच्छ रखने की कोशिश करते हैं। ऐसे कई मामलों में जमीन अहम भूमिका निभाती है। सभी जीवित चीजें प्रकृति को उतना ही लौटाती हैं जितना वे इससे लाभान्वित होती हैं। प्रकृति से मानव जाति को कई गुना लाभ हो रहा है, इसलिए प्रकृति की रक्षा करना मनुष्य की अधिक जिम्मेदारी है। लेकिन आज मनुष्य की बढ़ती जरूरतों और बढ़ते स्वार्थी स्वभाव के कारण मनुष्य भूमि और पर्यावरण की उचित देखभाल करना भूलता जा रहा है।

पर्यावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती मात्रा, मिट्टी के क्षरण और पेड़ों की घटती संख्या के कारण तापमान बढ़ रहा है। यदि मिट्टी में 25 प्रतिशत हवा, 25 प्रतिशत पानी, 45 प्रतिशत खनिज और 5 प्रतिशत कार्बनिक पदार्थ हों तो वो मिट्टी सर्वोत्तम मानी जाती है।दिन-ब-दिन रासायनिक खादों का प्रयोग बढ़ता गया और जैविक खादों का प्रयोग कम होता गया।   परिणामस्वरूप, मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा कम हो गई और खनिजों की मात्रा बढ़ गई। कार्बनिक पदार्थों से भरपूर मिट्टी स्पंज की तरह काम करती है, सूरज की रोशनी को अवशोषित करती है और प्रकृति में तापमान को नियंत्रित करने में मदद करती है। लेकिन कार्बनिक पदार्थों की मात्रा घट गई और खनिजों की मात्रा बढ़ गई। इससे भूमि कठोर हो जाती है। उनमें सूर्य के प्रकाश के अवशोषण की क्रिया कम हो जाती है और परावर्तन की मात्रा बढ़ जाती है। तेज धूप के कारण क्षारीय-खनिज मिट्टी जल्दी गर्म हो जाती है।

जमीन को गर्म होने के बाद ठंडा होने में ज्यादा समय लगता है। इस प्रकार पूरे विश्व में जलवायु का तापमान बढ़ रहा है। बर्फ के पहाड़ का पिघलना बढ़ गया है। यदि तापमान वृद्धि की दर इसी दर से जारी रही तो बर्फीले पानी के कारण समुद्र का स्तर ऊपर उठ जाएगा। यही कारण है कि भविष्यवाणी की जाती है कि अगले पचास वर्षों में आधा मुंबई समुद्र के नीचे होगा। मिट्टी की सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करने की क्षमता में वृद्धि के बिना पर्यावरण में तापमान कम नहीं होगा, इसलिए मनुष्य को मिट्टी की उचित देखभाल करके मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ाना, मिट्टी को कार्बनिक पदार्थ से ढकना,  भारी मात्रा में पेड़ लगाना जैसे कार्य करने होंगे। नहीं तो मनुष्य जैसे सभी प्राणियों का शरीर गर्मी से पीड़ित होगा, इसलिए भूमि का ध्यान रखना होगा।

प्रकृति में, जन्म और मृत्यु जीवित प्राणियों के जीवन में अपरिहार्य घटनाएँ हैं। मनुष्य, पशु, पौधे, सूक्ष्म जीव और सभी जीवित प्राणी जन्म लेते हैं और मृत्यु अवश्यंभावी है। किसी भी जीवित जीव में आत्मा (जीव) के नष्ट हो जाने के बाद, यह निर्जीव हो जाता है और सड़ने लगता है। उसका शरीर सड़ कर नष्ट हो जाता है और मिट्टी में मिल जाता है। लेकिन अगर हम इस घटना के इंटीरियर पर गौर करें तो कई महत्वपूर्ण घटनाओं पर ध्यान दिया जाएगा। यदि अपघटन प्रक्रिया न होती तो इन सभी सजीवों के शरीरों से कितना पर्यावरण प्रदूषण होता।

पर्यावरण को स्वच्छ रखने के लिए अपघटन क्रिया बहुत जरूरी है। इस अपघटन प्रक्रिया में मिट्टी का महत्व अद्वितीय है। मृत मिट्टी में अपघटन नहीं होता है।  क्योंकि जिस मिट्टी में जीवित बैक्टीरिया, केंचुए और अन्य स्थलीय जानवर होते हैं, वहां अपघटन होता है। यानी जीवित मिट्टी और जीवित जीवों के अपघटन के बीच घनिष्ठ संबंध है। यदि किसी जीवित जीव के अवशेष जमीन या मिट्टी में मिल जाते हैं, तो यह मिट्टी का जीव तुरंत काम पर चला जाता है और पर्यावरण को स्वच्छ रखते हुए उन्हें विघटित कर देता है। यह इसमें से हानिकारक तत्वों को फसल-मिट्टी के लिए आवश्यक उपयोगी पोषक तत्वों में भी परिवर्तित करता है। यह सारी प्रक्रिया सुनियोजित तरीके से चल रही होती है। मनुष्य को उसके लिए पैसा खर्च करने या योजना बनाने और काम करने में समय नहीं लगाना पड़ता है। लेकिन प्रकृति में मानवीय हस्तक्षेप के कारण यह प्रक्रिया बाधित हुई है और प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया है।

भूमि अपनी आवश्यकता के अनुसार जल उपलब्ध कराने के लिए उत्तरदायी है जिसे जीवन कहा जाता है। भूमि बहुत ही कम समय में होने वाली वर्षा को संचित करने और जीवित प्राणियों की आवश्यकताओं के अनुसार उपलब्ध कराने का एक बड़ा काम करती है। इतनी बड़ी मात्रा में जल संचय करने का कार्य जो कोई नहीं कर सकता, भूमि द्वारा किया जाता है। जल के बिना जीव जीवित नहीं रह सकता। अत: यह भूमि का कार्य अत्यंत मूल्यवान है। मिट्टी में पानी को पकड़ने और जमा करने के लिए अलग-अलग तंत्र हैं। मनुष्य का यह कार्य है कि वह इस कार्य प्रणाली को बढ़ावा देकर और इसकी रक्षा करके मिट्टी में जल भंडारण को बढ़ाने का प्रयास करे। मिट्टी के पानी के दो कार्य हैं। मिट्टी की ऊपरी परत का पानी जीवों के लिए उपलब्ध होता है जबकि निचली परत का पानी पर्यावरण के तापमान को नियंत्रित करने के लिए उपयोगी होता है। लेकिन आधुनिक आदमी 400-500 फीट या उससे भी ज्यादा गहराई से बोर लगाकर पानी खींचता है। इसलिए, जमीन के रेडिएटर में  पानी कम हो जाता है और यह तापमान वृद्धि को प्रभावित करता है।

हालांकि, पानी निकालने के दौरान लोगों ने पानी रिचार्ज (पुनर्भरण) करने का काम बंद कर दिया है। एक केंचुए जैसा जानवर अवमृदा में बिल बनाता है और  भूमि  की छलनी करता है। जो वर्षा होती है वह इस छलनी जैसी मिट्टी में आसानी से समा जाती है। साथ ही, मिट्टी में होनेवाले कार्बनिक पदार्थ पानी को स्टोर करते हैं। आज की कृषि प्रणाली में कार्बनिक पदार्थों के पूर्ण प्रबंधन और रासायनिक उर्वरकों के बढ़ते प्रयोग के कारण मिट्टी की छंटाई ( छलणी) बंद हो गई है। जल धारण क्षमता घटी। यह मिट्टी में जल पुनर्भरण को धीमा कर देता है । इससे जल उपलब्धता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। अतः मनुष्य का यह प्राथमिक कर्तव्य है कि वह प्रकृति द्वारा जलापूर्ति के लिए बनाई गई मृदा प्रणाली को नष्ट करने की बजाय उसका संरक्षण करे। जमीन के प्रति अपना नजरिया बदलने की जरूरत है। यह जानना महत्वपूर्ण है कि भूमि प्रकृति की प्रत्येक घटना में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, न कि केवल भूमि को आय देने वाली प्रणाली के बारे में सोचना सोचना होगा। ।

बुधवार, 16 नवंबर 2022

कृषि का विकास, लेकिन किसानों का पतन!, आजादी के 75 साल

जीवन के समग्र इतिहास की तुलना में मनुष्य का इतिहास बहुत छोटा अर्थात 12 से 15 हजार वर्ष है और इसका कारण कृषि है। दो पैरों पर चलना, भाषा का विकास होना, आग का नियंत्रित प्रयोग करना, औजार के रूप में पत्थरों के प्रयोग की शुरुआत मानव इतिहास के विशिष्ट मोड़ हैं। साथ ही कृषि की शुरुआत भी एक बहुत ही महत्वपूर्ण मोड़ है, यह वास्तव में पहली औद्योगिक क्रांति है। हालाँकि, प्रचलित राय के अनुसार, पहली औद्योगिक क्रांति की शुरुआत 1776 में जेम्स वॉटसन के भाप इंजन के आविष्कार के साथ हुई, और तब से दस से बारह हज़ार साल तक कृषि का प्रभुत्व कम होने लगा। मतलब 10-12 हजार वर्ष से 1750 ई. तक मुख्य रूप से कृषि द्वारा प्रदान की जाने वाली आय समस्त विकास का मुख्य आधार बनी रही। बेशक, 1750 के बाद की तीन औद्योगिक क्रांतियों ने कृषि को विनिर्माण और सेवा क्षेत्र के पीछे पहले से तीसरे स्थान पर धकेल दिया। लेकिन एक बात को कभी भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है , वह है की वर्ष 1750 से पहले इस धरती पर जो भौतिक और अन्य शानदार चीजें हुईं, वे गर्मी, मानसून और सर्दियों में दिन-रात काम करने वाले किसान परिवार की कठिनाइयों की जड़ में हैं। यह मामला भारत के लिए बेहद अहम है। 1700 से पहले, भारत की जीडीपी भारत की कृषि, कच्चे माल और उस पर आधारित उद्योगों, मसाला उत्पादों या वस्त्रों के कृषि-आधारित निर्यात आदि के कारण दुनिया की जीडीपी के एक-चौथाई के बीच थी। और यह दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति थी। उस समय भारत से कृषि आधारित तकनीक का निर्यात भी किया जाता था।

दुर्भाग्य से, पिछले 250 वर्षों में, कृषि को कम शिक्षित या कम उन्नत लोगों के लिए एक पेशे के रूप में माना गया है। इस पृष्ठभूमि में आजादी के बाद के 75 वर्षों में कृषि के विकास या पतन की चर्चा करते हुए कृषि के गौरवशाली इतिहास की उपेक्षा करना इन मजदूरों के साथ विश्वासघात होगा। कृषि के कारण भारत एक वैश्विक आर्थिक शक्ति था, यह तथ्य छुपाया नहीं जा सकता और आज की औद्योगिक और सूचना प्रौद्योगिकी की पीढ़ियों को इससे अवगत कराना होगा, जो कि वे अभी तक नहीं कर पाए हैं, जैसा कि भारतीय किसानों ने किया। यद्यपि छोटी फसलें जैसे कपास और बांध-सिंचाई आदि ब्रिटिश शासन के दौरान शुरू की गई थीं, लेकिन उन्होंने भारतीय कृषि की पूरी तरह से उपेक्षा की। परिणामस्वरूप, 1891 से 1946 तक 50 से अधिक वर्षों की अवधि के लिए कृषि की विकास दर केवल 0.8 प्रतिशत रही, और किसानों की स्थिति खराब हो गई।

1947 में स्वतंत्रता के समय देश की जनसंख्या 34 करोड़ थी और खाद्यान्न उत्पादन 5 करोड़ टन था। 2021 में यह 31.5 करोड़ टन हो गया यानी 75 साल में छह गुना से ज्यादा ।  और आबादी चौगुनी हो गई है।
यह तथ्य है कि पिछले 75 वर्षों में जनसंख्या में 411 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और खाद्यान्न उत्पादन में 630 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है। ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में भोजन की कमी के कारण लाखों लोग भूख से मर रहे थे। विशेष रूप से 1865-67 के उड़ीसा के अकाल के कारण 50 लाख, 1876-77 में दक्षिण भारत में सूखे के कारण 60 लाख से एक करोड़, पूरे भारत में अकाल के कारण वर्ष 1896-97 में 1.2 से 1.6 करोड़ और अंत में 1943 के ग्रेट बंगाल अकाल के कारण 20 से 30 लाख के बीच लोग मारे गये। याने की 1865 से 1943 तक 80 साल की इस अवधि में अकाल के कारण लगभग 4.8 करोड़ लोग मारे गए। यह ब्रिटिश शासन पर सबसे बड़ा दाग था।

आजादी के बाद यह तस्वीर पूरी तरह बदल गई। भारत खाद्यान्न उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर हो गया और कुछ हद तक निर्यात योग्य हो गया। बेशक, इसकी तुलना अन्य कृषि रूप से उन्नत देशों के साथ करना संभव नहीं है, लेकिन आजादी से पहले और आजादी के बाद के बीच इस तरह की तुलना महत्वपूर्ण है। स्वतंत्रता के कगार पर, भारतीय कृषि, किसानों और अर्थव्यवस्था की स्थिति बहुत खराब थी। स्वतंत्रता के बाद देश की प्रगति की नींव एक ठोस नींव पर रखी गई थी और इसमें मुख्य रूप से कृषि क्षेत्र शामिल था। इन सबसे ऊपर, पंचवर्षीय योजना और पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की दूरदर्शिता का परिणाम था। 1951 में प्रथम पंचवर्षीय योजना का आदर्श वाक्य 'कृषि विकास' था। इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि कृषि क्षेत्र के विकास के उद्देश्य की नींव गंभीरता से ध्यान देकर रखी गई थी। देश में हरित क्रांति होगी या देश के खाद्यान्न में आत्मनिर्भर बनने का अधिकांश श्रेय इस प्रथम पंचवर्षीय योजना की शुरुआत के रूप में और व्यक्तिगत रूप से पंडित नेहरू को जाता है। प्रथम पंचवर्षीय योजना में 2069 करोड़ (बाद में 2378 करोड़) के कुल परिव्यय में से कुल 48.7 प्रतिशत यानि लगभग आधी राशि सिंचाई और ऊर्जा के विकास, कृषि विकास, भूमिहीन किसानों के पुनर्वास के लिए उपलब्ध कराई गई। यह कृषि क्षेत्र के विकास के लिए तत्कालीन नेतृत्व के सचेत प्रयास को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। पंचवर्षीय योजना के साथ-साथ अधिक अनाज उगाना कार्यक्रम, गन्ने की किस्म सीओ 740 का विकास, 1951 में फोर्ड फाउंडेशन मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग, कृषि के लिए सामूहिक विकास कार्यक्रम का शुभारंभ, गेहूं की किस्म एनपी-809 का विकास, प्रथम राज्य कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना, ज्वार की किस्म सीएचएस-1 का विकास, कृषि समर्थन मूल्य (एमएसपी) की शुरूआत, नाबार्ड की स्थापना, गेहूं की किस्म एचडी-2329 का विकास, राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड की स्थापना आदि कार्यक्रमों के माध्यम से कृषि विकास कार्यक्रमों को क्रियान्वित किया गया। पिछले 75 वर्षों में कृषि विकास की प्रगति को भारत में जलवायु, भूमि या मिट्टी के प्रकार, मानसून की सनक, जनसंख्या के कारण भूमि के विखंडन जैसी कई समस्याओं की पृष्ठभूमि के पर शानदार कहा जाना चाहिए। लेकिन इसके साथ ही किसानों का विकास हुआ है या नहीं, यह सवाल भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

वास्तविक कृषि विकास का अर्थ है  जिसके श्रम पर कृषि निर्भर करती है, उस किसान के जीवन में समृद्धि  आती है, यह स्वाभाविक है। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। हालांकि कृषि विकास और किसानों का विकास अन्योन्याश्रित हैं, परंतु वे पूरी तरह से अलग रह गये। हालांकि पिछले 75 वर्षों में कृषि में काफी प्रगति हुई है, लेकिन पिछले 75 वर्षों में किसानों की स्थिति खराब हुई है। बेशक, कुछ लोग मेरी राय का पुरजोर विरोध करेंगे और उनकी संतुष्टि के लिए मैं ऐसा कहूंगा की "जिस हद तक कृषि ने प्रगति की है, उतनी किसानों की वित्तीय भलाई में वृद्धि नहीं हुई है" और इससे उन्हें इनकार भी नहीं किया जा सकता है। विनिर्माण या द्वितीयक क्षेत्र और सेवा या तृतीयक क्षेत्र में आर्थिक विकास हुआ, लेकिन साथही कृषि या प्राथमिक क्षेत्र में गिरावट आई। कोई समस्या नहीं है, क्योंकि भले ही इन दोनों क्षेत्रों ने रोजगार सृजित किया है, कृषि पर निर्भर जनसंख्या का अनुपात अनुपातिक रूप से कम नहीं हुआ है। और कृषि क्षेत्र में प्रति व्यक्ति उत्पादन कम हुआ है और किसानों की स्थिति आर्थिक रूप से कमजोर बनी हुई है। 1950-51 में देश का सकल घरेलू उत्पाद 2,93,900 करोड़ रुपए था, जिसमें से प्राथमिक क्षेत्र यानी कृषि का हिस्सा 1,50,200 करोड़ रुपए या 51.10 फीसदी यानी आधे से ज्यादा था। साथ ही प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर जनसंख्या 70 प्रतिशत से अधिक थी। दूसरे शब्दों में, देश की 70 प्रतिशत आबादी सकल उत्पादन के 50 प्रतिशत से अधिक के लिए जिम्मेदार थी। हाल की रिपोर्टों के अनुसार, 2011 की जनगणना के अनुसार देश की 54 से 55 प्रतिशत आबादी अभी भी कृषि और संबद्ध क्षेत्रों पर निर्भर है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का केवल 17-18 प्रतिशत इस क्षेत्र के खाते में है। इसका अर्थ है कि 75 वर्षों की अवधि में केवल 15 प्रतिशत जनसंख्या कृषि से विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में स्थानांतरित हुई है। लेकिन सकल उत्पादन 51 प्रतिशत से गिरकर 17 प्रतिशत हो गया, 34 प्रतिशत की गिरावट आयी है। यानी कृषि पर निर्भरता कम करने के लिए उस क्षेत्र पर निर्भर आबादी का अनुपात घटकर 17-18 फीसदी रह जाना चाहिए था, जो नहीं हुआ।

1776 की औद्योगिक क्रांति के बाद, कई देशों में विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध हो गया, और कृषि पर निर्भर आबादी बड़े पैमाने पर इन दो क्षेत्रों में समाहित हो गई। अमेरिका की आबादी का केवल एक प्रतिशत अब कृषि पर निर्भर करता है, और सकल घरेलू उत्पाद का केवल एक प्रतिशत कृषि से आता है। अधिकांश विकसित देशों में मामूली अंतर के साथ स्थिति ऐसी ही समान है। पहली तीन औद्योगिक क्रांतियों में, विकसित देशों ने अपनी कृषि पर निर्भर आबादी को विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में समाहित कर लिया। बेशक, प्रत्येक औद्योगिक क्रांति के दौरान विनिर्माण और सेवाओं में भारी रोजगार था। भारत के मामले में, पहली दो औद्योगिक क्रांतियों के दौरान, देश को औद्योगीकरण से ज्यादा लाभ नहीं हुआ क्योंकि देश स्वतंत्र नाही था। और परिणामस्वरूप, कृषि पर निर्भरता जारी रही और कृषि पर निर्भर आबादी को विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में समाहित करने का बहुत कम अवसर मिला। देश में आर्थिक असमानता को कम करने के लिए पहले, दूसरे और तीसरे क्षेत्रों पर निर्भर लोगों का प्रतिशत जितना है उस प्रतिशत में उस पर निर्भर लोगों की संख्या आवश्यक है। हालाँकि, वर्तमान स्थिति समान नहीं होने के कारण, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर लोगों की आय कम है और उनकी आर्थिक स्थिति विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों की तुलना में खराब है। उनके दुष्प्रभाव कम प्रति व्यक्ति आय, आय की असुरक्षा और और इन सबसे ऊपर, उत्पादन की लागत के साथ लाभप्रद रूप से खेती करने की स्वतंत्रता की कमी और वापसी की दरों का निर्धारण करके लाभ निर्धारित किया गया। कृषि की प्रगति के लिए केंद्र सरकार जैसी नीतियों की योजना बनाई और उन्हें सफल बनाया, वैसी नीतियां किसानों की प्रगति के लिए कम ही बनाई गई हैं। कम दर वाले ऋण, सामयिक ऋण माफी, फसली ऋण बीमा योजना जैसी अक्षम, अलाभकारी नीतियां बनाई गईं और 'किसानों के विकास के लिए कुछ कर रहे हैं' के नारे के अलावा पिछले 75 सालों में किसी पार्टी ने कोई विशेष अभियान नहीं चलाया। इसमें सब्सिडी आदि का खेल बेशक पेश किया गया, लेकिन यह इस बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश करने जैसा भी रहा कि 'कुछ' किसानों के लिए किया गया, न कि इस वर्ग की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के लिए।  परिणामस्वरूप किसानों की आत्महत्या जैसी समस्या उत्पन्न हो गई। दुर्भाग्य से, कृषि और किसानों की अर्थव्यवस्था, रोजगार के मुद्दे कभी भी देश की आर्थिक नीति का प्रमुख हिस्सा नहीं रहे हैं।

वास्तव में देश की विकास नीति को एक ठोस आधार पर खड़ा होना चाहिए। महत्वपूर्ण सिद्धांत' यह होना चाहिए कि पहले (कृषि और समान) दूसरे (विनिर्माण) और तीसरे (सेवा) क्षेत्रों द्वारा सकल आय के सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के भीतर जनसंख्या को क्षेत्र पर निर्भर रखना, यह विकसित देशों की तरह पहले ही हो जाना चाहिए था।  अब चौथी औद्योगिक क्रांति में ऐसा करना बेहद मुश्किल होने वाला है। उसके लिए हमें उस रास्ते से अलग रास्ता चुनना होगा जो विकसित देशों ने इसके लिए किया है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस), कॉग्निटिव एनालिसिस, 3डी प्रिंटिंग, रोबोटिक्स, एल्गोरिथम तकनीक आदी पर आधारित सिस्टम्स और टेक्नोलॉजिस्ट के हाथों की कठपुतली बन रही सरकारी व्यवस्था के कारण मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर में रोजगार के अवसर चौथी औद्योगिक क्रांति के दौरान कम हो जाएंगे। इसलिए, विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में कृषि पर निर्भर भारतीय आबादी को समायोजित करने के दरवाजे बंद हो रहे हैं। इसलिए कृषि पर निर्भर 50-55 प्रतिशत आबादी को विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में अवसर प्रदान करके, उनके अनुपात को 17 प्रतिशत पर लाकर अब कृषि क्षेत्र से होने वाली सकल आय को जीडीपी के सापेक्ष करना असंभव है। यह अत्यावश्यक है कि राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व, अर्थशास्त्री और अन्य नीति निर्माता इसका समाधान खोजें।

मैंने दो साल पहले इस संबंध में एक समाधान सुझाया था और वह है सकल कृषि उत्पादन को सुदृढ़ कर कृषि पर निर्भर 50-55 प्रतिशत जनसंख्या की प्रति व्यक्ति आय को विनिर्माण एवं सेवा क्षेत्रों पर निर्भर लोगों के प्रति व्यक्ति उत्पादन के स्तर तक लाना। इसके लिए मैन्युफैक्चरर्स को डिजिटल टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करते हुए मैन्युफैक्चरिंग या सर्विस सेक्टर में उत्पादों की कीमतें तय करने की आजादी है। वैसे ही किसानों को उनकी उपज का विक्रय मूल्य तय करने के लिए सशक्त बनाने के लिए स्वतंत्रता या कानूनी व्यवस्था प्रदान करना। साथ ही, कृषि उत्पादों को छोड़कर, 80 प्रतिशत उत्पादों या सेवाओं की कीमत उत्पादकों द्वारा तय की जाती है। साथ ही राइट्स इकोनॉमी का करीब 20 फीसदी हिस्सा कृषि उत्पादन को देने में कोई दिक्कत नहीं हो सकती। ऐसा करने के लिए सरकार अगर 'फर्स्ट परचेज मिनिमम प्राइस' या 'फर्स्ट ट्रेड मिनिमम प्राइस' (एफटीएमपी) की अवधारणा को लागू करती है या वैधानिक प्राधिकरण के साथ एक डिजिटल प्लेटफॉर्म बनाकर बेहतर अवधारणा बनाती है, तो किसान भी विकास कर सकते हैं। एक और मुद्दा यह है कि जो किसान निर्वाह खेती में लगे हैं, वे अपनी जमीन बेच कर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। वे वहां जाते हैं और झुग्गियों में रहते हैं। उसके व्यर्थ जीवन पर विराम लगाना, अंकुश लगाना आवश्यक है। कृषि के इस तरह के अवैध हस्तांतरण को रोकने के लिए अभियान चलाया जाना चाहिए। बेशक, यह मुद्दा गंभीर है और सभी शासकों और किसानों को इस पर विचार करना चाहिए।