बुधवार, 16 नवंबर 2022

कृषि का विकास, लेकिन किसानों का पतन!, आजादी के 75 साल

जीवन के समग्र इतिहास की तुलना में मनुष्य का इतिहास बहुत छोटा अर्थात 12 से 15 हजार वर्ष है और इसका कारण कृषि है। दो पैरों पर चलना, भाषा का विकास होना, आग का नियंत्रित प्रयोग करना, औजार के रूप में पत्थरों के प्रयोग की शुरुआत मानव इतिहास के विशिष्ट मोड़ हैं। साथ ही कृषि की शुरुआत भी एक बहुत ही महत्वपूर्ण मोड़ है, यह वास्तव में पहली औद्योगिक क्रांति है। हालाँकि, प्रचलित राय के अनुसार, पहली औद्योगिक क्रांति की शुरुआत 1776 में जेम्स वॉटसन के भाप इंजन के आविष्कार के साथ हुई, और तब से दस से बारह हज़ार साल तक कृषि का प्रभुत्व कम होने लगा। मतलब 10-12 हजार वर्ष से 1750 ई. तक मुख्य रूप से कृषि द्वारा प्रदान की जाने वाली आय समस्त विकास का मुख्य आधार बनी रही। बेशक, 1750 के बाद की तीन औद्योगिक क्रांतियों ने कृषि को विनिर्माण और सेवा क्षेत्र के पीछे पहले से तीसरे स्थान पर धकेल दिया। लेकिन एक बात को कभी भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है , वह है की वर्ष 1750 से पहले इस धरती पर जो भौतिक और अन्य शानदार चीजें हुईं, वे गर्मी, मानसून और सर्दियों में दिन-रात काम करने वाले किसान परिवार की कठिनाइयों की जड़ में हैं। यह मामला भारत के लिए बेहद अहम है। 1700 से पहले, भारत की जीडीपी भारत की कृषि, कच्चे माल और उस पर आधारित उद्योगों, मसाला उत्पादों या वस्त्रों के कृषि-आधारित निर्यात आदि के कारण दुनिया की जीडीपी के एक-चौथाई के बीच थी। और यह दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति थी। उस समय भारत से कृषि आधारित तकनीक का निर्यात भी किया जाता था।

दुर्भाग्य से, पिछले 250 वर्षों में, कृषि को कम शिक्षित या कम उन्नत लोगों के लिए एक पेशे के रूप में माना गया है। इस पृष्ठभूमि में आजादी के बाद के 75 वर्षों में कृषि के विकास या पतन की चर्चा करते हुए कृषि के गौरवशाली इतिहास की उपेक्षा करना इन मजदूरों के साथ विश्वासघात होगा। कृषि के कारण भारत एक वैश्विक आर्थिक शक्ति था, यह तथ्य छुपाया नहीं जा सकता और आज की औद्योगिक और सूचना प्रौद्योगिकी की पीढ़ियों को इससे अवगत कराना होगा, जो कि वे अभी तक नहीं कर पाए हैं, जैसा कि भारतीय किसानों ने किया। यद्यपि छोटी फसलें जैसे कपास और बांध-सिंचाई आदि ब्रिटिश शासन के दौरान शुरू की गई थीं, लेकिन उन्होंने भारतीय कृषि की पूरी तरह से उपेक्षा की। परिणामस्वरूप, 1891 से 1946 तक 50 से अधिक वर्षों की अवधि के लिए कृषि की विकास दर केवल 0.8 प्रतिशत रही, और किसानों की स्थिति खराब हो गई।

1947 में स्वतंत्रता के समय देश की जनसंख्या 34 करोड़ थी और खाद्यान्न उत्पादन 5 करोड़ टन था। 2021 में यह 31.5 करोड़ टन हो गया यानी 75 साल में छह गुना से ज्यादा ।  और आबादी चौगुनी हो गई है।
यह तथ्य है कि पिछले 75 वर्षों में जनसंख्या में 411 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और खाद्यान्न उत्पादन में 630 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है। ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में भोजन की कमी के कारण लाखों लोग भूख से मर रहे थे। विशेष रूप से 1865-67 के उड़ीसा के अकाल के कारण 50 लाख, 1876-77 में दक्षिण भारत में सूखे के कारण 60 लाख से एक करोड़, पूरे भारत में अकाल के कारण वर्ष 1896-97 में 1.2 से 1.6 करोड़ और अंत में 1943 के ग्रेट बंगाल अकाल के कारण 20 से 30 लाख के बीच लोग मारे गये। याने की 1865 से 1943 तक 80 साल की इस अवधि में अकाल के कारण लगभग 4.8 करोड़ लोग मारे गए। यह ब्रिटिश शासन पर सबसे बड़ा दाग था।

आजादी के बाद यह तस्वीर पूरी तरह बदल गई। भारत खाद्यान्न उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर हो गया और कुछ हद तक निर्यात योग्य हो गया। बेशक, इसकी तुलना अन्य कृषि रूप से उन्नत देशों के साथ करना संभव नहीं है, लेकिन आजादी से पहले और आजादी के बाद के बीच इस तरह की तुलना महत्वपूर्ण है। स्वतंत्रता के कगार पर, भारतीय कृषि, किसानों और अर्थव्यवस्था की स्थिति बहुत खराब थी। स्वतंत्रता के बाद देश की प्रगति की नींव एक ठोस नींव पर रखी गई थी और इसमें मुख्य रूप से कृषि क्षेत्र शामिल था। इन सबसे ऊपर, पंचवर्षीय योजना और पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की दूरदर्शिता का परिणाम था। 1951 में प्रथम पंचवर्षीय योजना का आदर्श वाक्य 'कृषि विकास' था। इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि कृषि क्षेत्र के विकास के उद्देश्य की नींव गंभीरता से ध्यान देकर रखी गई थी। देश में हरित क्रांति होगी या देश के खाद्यान्न में आत्मनिर्भर बनने का अधिकांश श्रेय इस प्रथम पंचवर्षीय योजना की शुरुआत के रूप में और व्यक्तिगत रूप से पंडित नेहरू को जाता है। प्रथम पंचवर्षीय योजना में 2069 करोड़ (बाद में 2378 करोड़) के कुल परिव्यय में से कुल 48.7 प्रतिशत यानि लगभग आधी राशि सिंचाई और ऊर्जा के विकास, कृषि विकास, भूमिहीन किसानों के पुनर्वास के लिए उपलब्ध कराई गई। यह कृषि क्षेत्र के विकास के लिए तत्कालीन नेतृत्व के सचेत प्रयास को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। पंचवर्षीय योजना के साथ-साथ अधिक अनाज उगाना कार्यक्रम, गन्ने की किस्म सीओ 740 का विकास, 1951 में फोर्ड फाउंडेशन मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग, कृषि के लिए सामूहिक विकास कार्यक्रम का शुभारंभ, गेहूं की किस्म एनपी-809 का विकास, प्रथम राज्य कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना, ज्वार की किस्म सीएचएस-1 का विकास, कृषि समर्थन मूल्य (एमएसपी) की शुरूआत, नाबार्ड की स्थापना, गेहूं की किस्म एचडी-2329 का विकास, राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड की स्थापना आदि कार्यक्रमों के माध्यम से कृषि विकास कार्यक्रमों को क्रियान्वित किया गया। पिछले 75 वर्षों में कृषि विकास की प्रगति को भारत में जलवायु, भूमि या मिट्टी के प्रकार, मानसून की सनक, जनसंख्या के कारण भूमि के विखंडन जैसी कई समस्याओं की पृष्ठभूमि के पर शानदार कहा जाना चाहिए। लेकिन इसके साथ ही किसानों का विकास हुआ है या नहीं, यह सवाल भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

वास्तविक कृषि विकास का अर्थ है  जिसके श्रम पर कृषि निर्भर करती है, उस किसान के जीवन में समृद्धि  आती है, यह स्वाभाविक है। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। हालांकि कृषि विकास और किसानों का विकास अन्योन्याश्रित हैं, परंतु वे पूरी तरह से अलग रह गये। हालांकि पिछले 75 वर्षों में कृषि में काफी प्रगति हुई है, लेकिन पिछले 75 वर्षों में किसानों की स्थिति खराब हुई है। बेशक, कुछ लोग मेरी राय का पुरजोर विरोध करेंगे और उनकी संतुष्टि के लिए मैं ऐसा कहूंगा की "जिस हद तक कृषि ने प्रगति की है, उतनी किसानों की वित्तीय भलाई में वृद्धि नहीं हुई है" और इससे उन्हें इनकार भी नहीं किया जा सकता है। विनिर्माण या द्वितीयक क्षेत्र और सेवा या तृतीयक क्षेत्र में आर्थिक विकास हुआ, लेकिन साथही कृषि या प्राथमिक क्षेत्र में गिरावट आई। कोई समस्या नहीं है, क्योंकि भले ही इन दोनों क्षेत्रों ने रोजगार सृजित किया है, कृषि पर निर्भर जनसंख्या का अनुपात अनुपातिक रूप से कम नहीं हुआ है। और कृषि क्षेत्र में प्रति व्यक्ति उत्पादन कम हुआ है और किसानों की स्थिति आर्थिक रूप से कमजोर बनी हुई है। 1950-51 में देश का सकल घरेलू उत्पाद 2,93,900 करोड़ रुपए था, जिसमें से प्राथमिक क्षेत्र यानी कृषि का हिस्सा 1,50,200 करोड़ रुपए या 51.10 फीसदी यानी आधे से ज्यादा था। साथ ही प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर जनसंख्या 70 प्रतिशत से अधिक थी। दूसरे शब्दों में, देश की 70 प्रतिशत आबादी सकल उत्पादन के 50 प्रतिशत से अधिक के लिए जिम्मेदार थी। हाल की रिपोर्टों के अनुसार, 2011 की जनगणना के अनुसार देश की 54 से 55 प्रतिशत आबादी अभी भी कृषि और संबद्ध क्षेत्रों पर निर्भर है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का केवल 17-18 प्रतिशत इस क्षेत्र के खाते में है। इसका अर्थ है कि 75 वर्षों की अवधि में केवल 15 प्रतिशत जनसंख्या कृषि से विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में स्थानांतरित हुई है। लेकिन सकल उत्पादन 51 प्रतिशत से गिरकर 17 प्रतिशत हो गया, 34 प्रतिशत की गिरावट आयी है। यानी कृषि पर निर्भरता कम करने के लिए उस क्षेत्र पर निर्भर आबादी का अनुपात घटकर 17-18 फीसदी रह जाना चाहिए था, जो नहीं हुआ।

1776 की औद्योगिक क्रांति के बाद, कई देशों में विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध हो गया, और कृषि पर निर्भर आबादी बड़े पैमाने पर इन दो क्षेत्रों में समाहित हो गई। अमेरिका की आबादी का केवल एक प्रतिशत अब कृषि पर निर्भर करता है, और सकल घरेलू उत्पाद का केवल एक प्रतिशत कृषि से आता है। अधिकांश विकसित देशों में मामूली अंतर के साथ स्थिति ऐसी ही समान है। पहली तीन औद्योगिक क्रांतियों में, विकसित देशों ने अपनी कृषि पर निर्भर आबादी को विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में समाहित कर लिया। बेशक, प्रत्येक औद्योगिक क्रांति के दौरान विनिर्माण और सेवाओं में भारी रोजगार था। भारत के मामले में, पहली दो औद्योगिक क्रांतियों के दौरान, देश को औद्योगीकरण से ज्यादा लाभ नहीं हुआ क्योंकि देश स्वतंत्र नाही था। और परिणामस्वरूप, कृषि पर निर्भरता जारी रही और कृषि पर निर्भर आबादी को विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में समाहित करने का बहुत कम अवसर मिला। देश में आर्थिक असमानता को कम करने के लिए पहले, दूसरे और तीसरे क्षेत्रों पर निर्भर लोगों का प्रतिशत जितना है उस प्रतिशत में उस पर निर्भर लोगों की संख्या आवश्यक है। हालाँकि, वर्तमान स्थिति समान नहीं होने के कारण, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर लोगों की आय कम है और उनकी आर्थिक स्थिति विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों की तुलना में खराब है। उनके दुष्प्रभाव कम प्रति व्यक्ति आय, आय की असुरक्षा और और इन सबसे ऊपर, उत्पादन की लागत के साथ लाभप्रद रूप से खेती करने की स्वतंत्रता की कमी और वापसी की दरों का निर्धारण करके लाभ निर्धारित किया गया। कृषि की प्रगति के लिए केंद्र सरकार जैसी नीतियों की योजना बनाई और उन्हें सफल बनाया, वैसी नीतियां किसानों की प्रगति के लिए कम ही बनाई गई हैं। कम दर वाले ऋण, सामयिक ऋण माफी, फसली ऋण बीमा योजना जैसी अक्षम, अलाभकारी नीतियां बनाई गईं और 'किसानों के विकास के लिए कुछ कर रहे हैं' के नारे के अलावा पिछले 75 सालों में किसी पार्टी ने कोई विशेष अभियान नहीं चलाया। इसमें सब्सिडी आदि का खेल बेशक पेश किया गया, लेकिन यह इस बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश करने जैसा भी रहा कि 'कुछ' किसानों के लिए किया गया, न कि इस वर्ग की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के लिए।  परिणामस्वरूप किसानों की आत्महत्या जैसी समस्या उत्पन्न हो गई। दुर्भाग्य से, कृषि और किसानों की अर्थव्यवस्था, रोजगार के मुद्दे कभी भी देश की आर्थिक नीति का प्रमुख हिस्सा नहीं रहे हैं।

वास्तव में देश की विकास नीति को एक ठोस आधार पर खड़ा होना चाहिए। महत्वपूर्ण सिद्धांत' यह होना चाहिए कि पहले (कृषि और समान) दूसरे (विनिर्माण) और तीसरे (सेवा) क्षेत्रों द्वारा सकल आय के सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के भीतर जनसंख्या को क्षेत्र पर निर्भर रखना, यह विकसित देशों की तरह पहले ही हो जाना चाहिए था।  अब चौथी औद्योगिक क्रांति में ऐसा करना बेहद मुश्किल होने वाला है। उसके लिए हमें उस रास्ते से अलग रास्ता चुनना होगा जो विकसित देशों ने इसके लिए किया है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस), कॉग्निटिव एनालिसिस, 3डी प्रिंटिंग, रोबोटिक्स, एल्गोरिथम तकनीक आदी पर आधारित सिस्टम्स और टेक्नोलॉजिस्ट के हाथों की कठपुतली बन रही सरकारी व्यवस्था के कारण मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर में रोजगार के अवसर चौथी औद्योगिक क्रांति के दौरान कम हो जाएंगे। इसलिए, विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में कृषि पर निर्भर भारतीय आबादी को समायोजित करने के दरवाजे बंद हो रहे हैं। इसलिए कृषि पर निर्भर 50-55 प्रतिशत आबादी को विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में अवसर प्रदान करके, उनके अनुपात को 17 प्रतिशत पर लाकर अब कृषि क्षेत्र से होने वाली सकल आय को जीडीपी के सापेक्ष करना असंभव है। यह अत्यावश्यक है कि राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व, अर्थशास्त्री और अन्य नीति निर्माता इसका समाधान खोजें।

मैंने दो साल पहले इस संबंध में एक समाधान सुझाया था और वह है सकल कृषि उत्पादन को सुदृढ़ कर कृषि पर निर्भर 50-55 प्रतिशत जनसंख्या की प्रति व्यक्ति आय को विनिर्माण एवं सेवा क्षेत्रों पर निर्भर लोगों के प्रति व्यक्ति उत्पादन के स्तर तक लाना। इसके लिए मैन्युफैक्चरर्स को डिजिटल टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करते हुए मैन्युफैक्चरिंग या सर्विस सेक्टर में उत्पादों की कीमतें तय करने की आजादी है। वैसे ही किसानों को उनकी उपज का विक्रय मूल्य तय करने के लिए सशक्त बनाने के लिए स्वतंत्रता या कानूनी व्यवस्था प्रदान करना। साथ ही, कृषि उत्पादों को छोड़कर, 80 प्रतिशत उत्पादों या सेवाओं की कीमत उत्पादकों द्वारा तय की जाती है। साथ ही राइट्स इकोनॉमी का करीब 20 फीसदी हिस्सा कृषि उत्पादन को देने में कोई दिक्कत नहीं हो सकती। ऐसा करने के लिए सरकार अगर 'फर्स्ट परचेज मिनिमम प्राइस' या 'फर्स्ट ट्रेड मिनिमम प्राइस' (एफटीएमपी) की अवधारणा को लागू करती है या वैधानिक प्राधिकरण के साथ एक डिजिटल प्लेटफॉर्म बनाकर बेहतर अवधारणा बनाती है, तो किसान भी विकास कर सकते हैं। एक और मुद्दा यह है कि जो किसान निर्वाह खेती में लगे हैं, वे अपनी जमीन बेच कर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। वे वहां जाते हैं और झुग्गियों में रहते हैं। उसके व्यर्थ जीवन पर विराम लगाना, अंकुश लगाना आवश्यक है। कृषि के इस तरह के अवैध हस्तांतरण को रोकने के लिए अभियान चलाया जाना चाहिए। बेशक, यह मुद्दा गंभीर है और सभी शासकों और किसानों को इस पर विचार करना चाहिए।

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