रविवार, 18 दिसंबर 2022

देश का उज्जवल भविष्य सुसंस्कृत पीढ़ियों में निहित है

संस्कार बहुत गहरा और अनमोल शब्द है। सामान्य तौर पर संस्कारों पर बहुत चर्चा होती है।  लेकिन संस्कारी पीढ़ी बनाने के लिए कुछ खास होता नहीं दिख रहा है। हमारी पीढ़ी सुसंस्कृत होनी चाहिए, हम ऐसा करने के लिए बहुत कुछ करने की आवश्यकता हैं, लेकिन हम करने के लिए तैयार नहीं हैं। संस्कार का जप करने से संस्कार नहीं होता है, इसका ध्यान रखना चाहिए। समय बहुत बदल गया है, समय के साथ-साथ सब कुछ बदल गया है। पहले लोगों के पास पैसे कम हुआ करते थे। कठिनाइयाँ अनंत थीं पर उनमें संस्कार की समृद्धि थी। एक साथ परिवार व्यवस्था और भाइयों और बहनों के बीच एक विचार प्रशंसनीय था। एक-दूसरे की आय पर विचार किए बिना परिवार के लिए मिलकर काम करने का दृढ़ संकल्प उस समय देखा गया था। उनकी उसी से प्रगती होती थी। आज समाज में एकल परिवार प्रणाली बढ़ती जा रही है।  बच्चों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया जाता है कि उनके माता-पिता ही उनका परिवार हैं। दादा-दादी, मौसेरे भाई-बहनों का परिवार अलग है, यह ज्ञान और संस्कृति उनके मन-मस्तिष्क में जड़ जमा रही है।

हमें एक बार यह तय कर लेना चाहिए कि अपने जीवन में सफलता को अपने संस्कारों से नापना है या पैसों से। आज के युवा जो शराब, सिगरेट आदि खतरनाक नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं, आज की पीढ़ी जो डांस बार, पब, किटी पार्टियों में लिप्त हैं, बड़े-बड़े शहरों में अश्लील कपड़े पहनकर अश्लील हरकत करने वाले युवक-युवतियों की संख्या बढती जा रही है। फ्रीडम या आज़ादी के नाम पर हो रही मनमानी के बाद अगर 'लिव-इन-रिलेशनशिप' की किस्म न बढ़ने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं! कुछ महिलाओं का रोल मॉडल कहाँ है जो कम उम्र में विधवा हो गईं और अपने बच्चों को पालने के लिए अपना पूरा जीवन बलिदान में लगा दिया? आज की दुनिया में कागज के निशान और कागज के नोट इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं कि वे यह भ्रम पैदा कर रहे हैं कि उन्हें प्राप्त करना ही जीवन का उद्देश्य है। जो उनके लिए भी खतरनाक है और इस देश के लिए भी। क्या इन दिनों अपने दादा-दादी, माता-पिता या रिश्तेदारों के साथ रहने के बजाय लिव-इन रिलेशनशिप में  एक अजनबी के साथ रहना  यह आज के संस्कार  है?

बाबासाहेब अंबेडकर, महात्मा गांधी जैसे कई महापुरुषों ने ठान लिया होता तो बेशुमार दौलत इकट्ठी कर लेते। लेकिन उन्होने जो रास्ता चुना उसने ऊन्हे अमर बना दिया। जब तक धरती रहेगी, उनका यश इस संसार में रहेगा, इसी को सफलता कहते हैं और इसे कहते हैं सफल लोग। आज के परिवार में बच्चों को वह सब कुछ मिल रहा है जो वे चाहते हैं।  वास्तव में जिसकी आवश्यकता नहीं है, वह भी मिल रहा है। लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही परंपरा का भारी अभाव है। भारत जैसे धार्मिक देश में संस्कारों की महान परंपरा रही है। विभिन्न संप्रदायों, धार्मिक रीतियों के आधार पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी संस्कार देने के कारखाने हैं। महाराष्ट्र को 'संतों की भूमि' कहा जाता है।  यहां जन्म लेना सौभाग्य की बात है। संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम महाराज, समर्थ रामदास, संत एकनाथ, चक्रधर स्वामी जैसे सैकड़ों संतों का साहित्य संस्कारों की कभी न समाप्त होने वाली धारा है। हाल के दिनों में, छत्रपति शिवाजी महाराज, भारतरत्न बाबासाहेब अम्बेडकर, महात्मा फुले, लोकमान्य तिलक, आगरकर, स्वामी विवेकानंद, राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज संस्कार के अनुकरणीय उदाहरण हैं। बचपन में बनने वाले संस्कारों का पूरे जीवन में बहुत महत्व होता है। बचपन के संस्कार के कारण बच्चे अपने व्यवहार से सीखते हैं न कि हमारे निर्देशों से। क्योंकि बच्चे, वास्तव में, सभी मनुष्य नकलची ( अनुकरणप्रिय) होते हैं। संस्कार उसी से उकेरा जाता है। बच्चों के लिए उनका घर ही उनकी पूरी दुनिया होती है।  आगे के स्कूल और कॉलेज उनके लिए आदर्श हैं। लेकिन आजकल सभी स्कूल बच्चों को शिक्षित करने के कारखाने और कॉलेज स्नातक बनाने के कारखाने मात्र हैं! स्कूल-कॉलेजों में बढ़ी भीड़ को देखते हुए संस्कार के आसार बिलकुल नहीं हैं।

महानुभव सम्प्रदाय, वारकरी सम्प्रदाय सैकड़ों वर्षों से संस्कार की शिक्षा दे रहे हैं। हाल के दिनों में, स्वाध्याय परिवार और कई अन्य आध्यात्मिक संप्रदाय, पंथ इस परंपरा को मजबूती से आगे बढ़ा रहे हैं। सभी धर्म और संप्रदाय इन संस्कारों की शिक्षा देते हैं, लेकिन आज भी संस्कारों के योग्य पीढ़ी बनाने के मामले में हम पिछड़ रहे हैं, इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता। संस्कृति समय की मांग है।  विज्ञान ने दुनिया को कितना ही करीब ला दिया है, विज्ञान अंतरंगता और प्रेम को बढ़ावा देने में विफल रहा है। समाज के सामाजिक-आर्थिक स्तर में सुधार हुआ है, लेकिन उग्रवाद, भोग और विलासिता की प्रवृत्ति बढ़ रही है। पैसे कमाने के तरीके और पैसे का प्यार बढ़ता गया। हालाँकि, हम देशभक्ति को बढ़ावा देने और भ्रष्टाचार को समाप्त करने में विफल रहे हैं। मानव मस्तिष्क का उपयोग करके हजारों नए उपकरणों की खोज की। लेकिन हम मानसिक स्थिति, मानसिक भ्रम और मनोविकार को नहीं रोक सकते। यहां हकीकत यह है कि आज की पीढ़ी अपने माता-पिता की देखभाल करने के लिए भी तैयार नहीं है, समाज की सेवा की बात तो दूर की है।

क्या आपने कभी सोचा है कि रोज-रोज के घरेलू ड्रामे और टीवी सीरियल्स में देखने वाले विवाद, संसद में हंगामा, समाज के तथाकथित प्रतिष्ठित नेताओं की गालियां, उनका व्यवहार आने वाली पीढ़ी पर क्या असर डाल रहा है? यदि आप चाहते हैं कि मेरे बच्चे व्यसनी न हों, यदि आप चाहते हैं कि आपके बच्चे अपने माता-पिता की इच्छा के अनुसार विवाह करें, तो माता-पिता को पहले अपना व्यवहार बदलने की आवश्यकता है। अपने वस्त्र, अपनी वाणी, अपने व्यवहार, अपने चलने का एक बार ध्यानपूर्वक अध्ययन करना चाहिए। नीम के पेड़ में आम नहीं लगते, जो बीज बोये जाते हैं वे बड़े होते हैं ,इसलिए अभिभावकों को आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। बालसंस्कार या संस्कार केंद्र के संस्कार की तुलना में हमारे घर के संस्कार का बच्चों पर अधिक प्रभाव पड़ता है। प्रतिदिन 18-18 घंटे अध्ययन करने वाले, निःस्वार्थ रहकर देश के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले भारतरत्न बाबासाहेब अम्बेडकर विश्व में प्रसिद्ध हुए। ऐसे महापुरुषों की संस्कृति को नई पीढ़ी में बिठाना जरूरी है। आने वाले समय में आने वाली पीढ़ी को कागजी शिक्षा के साथ-साथ संस्कारी शिक्षा देकर सुसंस्कृत पीढि़यों का निर्माण करना अति आवश्यक है, अन्यथा देश का पतन होते देर न लगेगी। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली। महाराष्ट्र।

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