शुक्रवार, 9 दिसंबर 2022

मानवाधिकारों का सम्मान करने के प्रति उदासीनता

दुनिया में सभी को समानता का अधिकार मिले, इस दुनिया में जो भी हैं सभी समान रूप से जीने का अधिकार रखते हैं। इसीलिए हर साल 10 दिसंबर को मानवाधिकार दिवस मनाया जाता है। मंच पर मानवाधिकारों पर चर्चा होती है, आदेश जारी होते हैं, कार्यक्रम भी होते हैं। हालांकि, मानवाधिकारों का सम्मान करने और बनाए रखने के प्रति उदासीनता है। शैक्षिक क्षेत्र में इस पर एक पाठ्यक्रम शामिल करने के लिए भी कदम उठाए गए। लेकिन शिक्षा सहित कई क्षेत्रों में अधिकारों को कम आंका जा रहा है। यह एक सच्चाई है कि मानवाधिकारों के उल्लंघन और दुरुपयोग का ग्राफ नीचे नहीं जाता है। यहां तक ​​कि मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र आयोग ने भी ऐसी घटनाओं को रिकॉर्ड करने के अलावा कुछ ठोस नहीं किया है। क्योंकि यदि विश्व राजनीति में मानवाधिकारों का हनन हो रहा है तो समझौता करने की शक्ति केवल अमेरिका और अमेरिका के नेतृत्व वाले यूरोप के कुछ देशों के पास है, इसलिए अन्य देशों और कुछ संगठनों की भूमिकाएं अर्थहीन होती जा रही हैं। मानव अधिकारों के उल्लंघन का संदर्भ युद्धों, आंतरिक विद्रोहों, आतंकवादी हमलों, जातीय, धार्मिक और सांप्रदायिक दंगों तक ही सीमित रहता है। इसे अक्सर कम या ज्यादा स्वायत्तता और आत्मनिर्णय के लिए लड़ने वाले अल्पसंख्यक समुदाय का उल्लेख आवश्यकतानुसार किया जाता है।

एक व्यक्ति के रूप में हम अपने दैनिक जीवन में समाज की अनेक संस्थाओं के संपर्क में आते हैं। आज, यह देखना महत्वपूर्ण है कि किसी को अपना काम करने का अनुभव, विशेष रूप से प्रशासनिक या शैक्षिक व्यवस्था में, मानवाधिकारों के उल्लंघन के दायरे में आता है या नहीं। सरकार का प्रशासन कितना भी पारदर्शी और सिंगल विंडो क्यों न हो, हकीकत में कैसा है?  यह सात-बारह प्रमाणपत्र (जमीन के कागज) लेने और पैतृक संपत्ति का नामकरण करने के अनुभव से उभरता है। हालांकि इसके लिए व्यक्तिगत रूप से कोई जिम्मेदार नहीं है, लेकिन प्रशासनिक ढांचे के चलते अच्छे मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रशासनिक व्यवस्था के सामने झुकते नजर आते हैं। इसी तरह की स्थिति, वास्तव में शिक्षा प्रणाली में बदतर से बदतर वास्तविकता का अनुभव करती है। शिक्षा क्षेत्र के जुड़ाव को कभी-कभी भारतीय संस्कृति की दृष्टि माना जाता है। इसलिए आज भी नालंदा, तक्षशिला का उल्लेख भारतीय संस्कृति और संस्कारों के मंदिरों के रूप में मिलता है। लेकिन आधुनिक समय में शिक्षा क्षेत्र का स्वरूप बहुत बदल गया है। प्राथमिक विद्यालयों में जहां प्राथमिक शिक्षकों द्वारा बच्चों को मानवाधिकारों और अधिकारों से परिचित कराया जाता है, वहां व्यवस्था द्वारा उनके मानवाधिकारों का गला घोंटा जा रहा है। सबसे अधिक शोषित वर्ग प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक हैं। पिछले कई वर्षों से, प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक और शिक्षक जनगणना के काम से लेकर चुनाव के दौरान मतदाता पंजीकरण, पोलियो की खुराक और उसी के बारे में जागरूकता के काम में व्यस्त हैं। नहीं तो सिर पर प्रशासनिक डंडों की लटकती तलवार है। इसके अलावा और भी कई स्तरों पर इसका दोहन हो रहा है। यहां तक ​​कि इसके बारे में किसी और से बात करना भी कई लोगों के लिए कठीण बन जाता है।

 यह देखा गया है कि कई प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान महिला शिक्षकों के हककों और अधिकारों के प्रति उदासीन हैं। साथ ही विशाखा गाइडलाइंस के मुताबिक उन्हें कोई भी सुविधा उपलब्ध नहीं है। महिला विकास केंद्र नहीं हैं। दूसरी ओर आंगनबाडी सेविका- सहायिकाएं हैं, जिन्हें कार्य की प्रकृति के अनुसार उचित पारिश्रमिक नहीं मिलता है। इसलिए वे दो दशकों से सरकार को अपनी भावनाओं का इज़हार करते आ रहे हैं। ऐसे कई उदाहरण हमारे आसपास पाए जाते हैं। यह एक गहन प्रश्न है कि तथाकथित 'नागरिक' समाज में दूसरों के मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता कब पैदा होगी। इसका पता कोविड काल में चला। कोविड काल में वर्चुअल शिक्षा प्रणाली से वही लाभान्वित हुए जिनके पास साधन और आर्थिक संसाधन थे। बाकी वंचित रह गए और कुछ ने हताशा में अपनी जान गंवा दी। शिक्षा क्षेत्र में 'डिजिटल-डिव्हाइड’' ने समाज में अमीरों और वंचितों के बीच की खाई को चौड़ा कर दिया है। नतीजतन, भ्रम था कि कौन किसके अधिकारों के लिए लड़े। मानवाधिकारों और मूल्यों के मायने बदल गए हैं। नैतिक और अनैतिक के बीच की सीमाएं मिट गईं। आज है, लेकिन कल की गारंटी नहीं, जब सारा समाज आंदोलन की स्थिति में है, तो शिक्षा क्षेत्र को कौन पूछता है? हालांकि, इस सेक्टर से जुड़े कुछ फाउंडर्स ने दलालों की मध्यस्थता से उनकी प्रतिष्ठा  और सफेद कर दी। इन लोगों ने खूब लूटपाट की है। कोविड काल उनके लिए स्वर्णिम काल था। जरूरतमंद छात्रों, शोधार्थियों, नवनियुक्त शिक्षक-वर्गों, शिक्षा सेवकों को अपना शिकार बनाया। विभिन्न शिक्षण संस्थानों के इन साहूकारों ने बिना किसी परवाह के जितना खा सकते थे, खा लिया। जहाँ मानव और अमानव का भेद नहीं था, वहाँ अधिकारों पर 'ब्र' के उच्चारण का प्रश्न ही नहीं उठता था। इसकी पृष्ठभूमि यह है कि सरकार द्वारा शिक्षक का नाम 'नौकर' स्वीकार किए जाने के बाद इस पेशे के प्रति समाज का दृष्टिकोण बदल गया है। उसमें यह शिक्षक सेवक राजनीतिक दलों और नेताओं द्वारा प्रायोजित शिक्षण संस्थानों से चुनाव प्रचार में शामिल हुआ था। इसका भी एक अलग गणित है, यानी चुनाव के दिन वही शिक्षक वर्ग कभी चुनाव आयोग के प्रतिनिधि के रूप में, कभी मतदान अधिकारी तो कभी बूथ पदाधिकारियों के रूप में नजर आता है। एक शिक्षक जो मानव अधिकार सिखाता है वह अपने स्वयं के मानवाधिकारों के बारे में शिकायत नहीं कर सकता। यदि आप ऐसा करते हैं, तो आप परिणाम भुगतना पडता हैं। इसलिए  कोई परिणाम भूगतने के लिए तैयार नहीं होता हैं।  इसलिए ये शिक्षाविहीन राजनीतिक संस्थाएं और भी फायदा उठाते हैं। मानव अधिकारों के प्रति उदासीन प्रतीत होने वाले समाज के लिए नौवीं से बारहवीं कक्षा के लिए सरकारी स्तर पर 20 साल पहले एक नए और स्वतंत्र पाठ्यक्रम 'मानवाधिकार शिक्षा' की योजना बनाई गई थी। ताकि मानवाधिकारों को लेकर छात्रों, शिक्षकों और समाज के कुछ अन्य तत्वों की संवेदनशीलता को और जाग्रत किया जा सके। कई विश्वविद्यालयों ने 'मानवाधिकार' पर आधारित डिप्लोमा और सर्टिफिकेट कोर्स शुरू किए हैं। मानवाधिकारों और 'समान अवसर सिद्धांत' पर व्याख्यान, सेमिनार, अनुसंधान और प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय और राज्य मानवाधिकार आयोगों द्वारा और कभी-कभी कई शैक्षणिक संस्थानों द्वारा राष्ट्रीय सेवा योजना के माध्यम से पहल की गई है। 10 दिसंबर के मौके पर इन सभी योजनाओं को एक बार फिर से पुनर्जीवित करने की जरूरत है।-मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली। महाराष्ट्र।


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