गुरुवार, 1 दिसंबर 2022

हमें वनों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए

पृथ्वी, जंगल, जल, वायु, पशु-पक्षी सभी हमारे संसाधन हैं। मनुष्य इसी धन के आधार पर जीता आया है। उसी के आधार पर उन्होंने अपना विकास किया है। लेकिन अब वही शख्स उनकी जान लेने के लिए उठ खड़ा हुआ है। वह प्रकृति को नोंच रहा है। उसे नष्ट कर रहा है। इससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है। यह उसके लिए घातक होगा। अर्थात कुल्हड़ स्वयं के पैरों पर मार रहा है।  मनुष्य को आने वाले संकटों के प्रति सचेत रहना चाहिए।

प्रकृति के विशाल चक्र में मनुष्य भी एक तत्व है। वह लगातार इस चक्र के विभिन्न तत्वों से कुछ न कुछ लेता रहता है। वन भी उनमें से एक हैं। इसलिए वनों की सुरक्षा और संरक्षण जरूरी है। यह बात सभी के मन में अंकित होनी चाहिए। इसके लिए दुनिया भर काम होना चाहीए। आज पूरी दुनिया में जंगलों के बारे में दो बातें कही जाती हैं। एक, वनों की कटाई और दो, वनों की गिरती गुणवत्ता। वन संसाधनों, अन्य जीवित प्राणियों और भूमि इन सब पर विचार करके जंगल की गुणवत्ता निर्धारित की जाती है। इन कसौटियों पर हमारे देश में वनों की गुणवत्ता की जांच होनी चाहिए। दूसरे, वनों की कटाई और जानबूझकर जंगलों को जलाने से वनों का तेजी से क्षरण होता है। वनों के इस प्रकार सोचने का कारण यह है कि मानव संस्कृति की दृष्टि से वनों का अत्यधिक महत्व है। मनुष्य जंगलों से बहुत सी चीजें लेता है। मनुष्य कहे जाने वाले 'जानवर' को 'मानव' की पहचान मिलने से पहले भी वह वनों पर निर्भर था और आज भी है। मनुष्य को उपलब्ध पीने योग्य पानी का तीन-चौथाई हिस्सा जंगलों से आता है। वहां के जल संचयन वाले नैसगिर्क स्थानों की इसमें बड़ी भूमिका होती है। वन वर्षा के पानी को मिट्टी में सोखने में मदद करते हैं। मिट्टी का कटाव रोकता है। वन भूस्खलन को भी रोकते हैं। हमारे पास 'देवरई' होने का एक तरीका है।  देवरई क्षेत्र में साल भर हरियाली रहती है और वहां का पानी कभी कम नहीं होता। कोंकण क्षेत्र में देवराई, उसका घना जंगल, उसकी पैरों के घुटनों तक आनेवाली वनस्पति, उसकी लताएँ और उसकी हरी-भरी वनस्पतियाँ, जो दोपहर के बारह बजे भी सूर्य की किरणों को धरातल पर नहीं पहुँचने देतीं, इस बात का एहसास होता है कि देवरई कितना मूल्यवान है। यह महसूस किया जाता है कि यह क्षेत्र में मानव बस्ती के लिए कितना महत्व रखता है।

पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध में, प्रदूषण, वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड गैस की बढ़ती मात्रा और परिणामस्वरूप हवा के गर्म होने की चर्चा शुरू हुई। पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध में ही इस धरती पर बहुरंगी जीवन की आश्चर्यजनक विविधता कम होने लगी थी। वन इस विविधता को बनाए रखने और जलवायु परिवर्तन को कम करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। यानी स्वच्छ हवा और पानी, जैविक विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र 'स्वास्थ्य' के लिए वन आवश्यक हैं; इसके अलावा, जंगलों में कई औषधीय वनस्पतीयां हैं। बीमार पड़ने पर चिंपैंजी क्या खाते थे, यह देखकर मनुष्य ने कई औषधीय पौधों की खोज की। आयुर्वेद ने इस संबंध में बहुत अच्छा काम किया है।  हमें वनों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए जो मनुष्य को रोगमुक्त करने के लिए आवश्यक औषधि प्रदान करते हैं। आधुनिक विज्ञान वनों से प्रेरणा लेकर तरह-तरह के प्रयोग कर रहा है।

    पौधों की पत्तियाँ प्रकाश संश्लेषण द्वारा अपना भोजन स्वयं बनाती हैं।  हाल ही में, इसी सिद्धांत का उपयोग करके सौर ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए 'सौर सेल' बनाने में सफलता प्राप्त हुई है। इस तकनीक से परंपरागत रूप से उपयोग किए जाने वाले सिलिकॉन से छुटकारा मिल जाएगा और इसलिए इससे उत्पन्न होने वाले हानिकारक कचरे से छुटकारा मिल जाएगा। अब दावा किया जा रहा है कि जिन 'कृत्रिम पत्तियों' को विकसित किया गया है, उन्हें इमारतों की खिड़कियों में लगाया जा सकता है और सौर ऊर्जा का उपयोग किया जा सकता है। ऐसा माना जाता है कि हाइड्रोजन गैस के प्रयोग से हम वैकल्पिक ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं और एक दिन यह मिट्टी के तेल, डीजल, कोयले की जगह ले लेगी। उस संबंध में शोध भी चल रहा है।

पौधे उत्प्रेरक की मदद से हाइड्रोजन को ऑक्सीजन से अलग करते हैं,इससे प्रेरित होकर, शोधकर्ताओं ने अब एक कृत्रिम पत्ती के माध्यम से उसी रासायनिक प्रतिक्रिया को करने का प्रयास किया है। मनुष्य हमारे साथ रहने वाले वनस्पती, प्राणी, जंगल से कुछ ना कुछ नया सीख रहा है। यदि हम इस सब पर विचार करें तो हम जानते हैं कि मनुष्य पौधों पर और इसलिए वनों पर कितना निर्भर है। यह भी महसूस किया जाता है कि उनकी रक्षा करना सार्वभौमिक हित में है। इससे यह देखा जा सकता है कि तुकाराम महाराज के 'वृक्षवल्ली अम्हा सोयरे' के कथन को इक्कीसवीं सदी में एक नया प्रभाव मिला है। वर्तमान समय का अर्थ सभी के मन में गहराई से निहित होना चाहिए;  क्योंकि उसी से मनुष्य को नए युग का प्रभावी ढंग से सामना करने की ताकत मिलेगी। - मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली। महाराष्ट्र।

     

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