सभी पड़ोसी देश वर्तमान में अस्थिरता का अनुभव कर रहे हैं और जल्द ही किसी भी समय समाप्त होने के कोई संकेत नहीं हैं। इस संबंध में भारत को अगले दो साल तक बेहद सतर्क रहना होगा। हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारे देश में स्थिरता, अनुशासन और सद्भाव बना रहे। 2022 दुनिया के इतिहास में एक 'अस्वास्थ्यकर वर्ष' के रूप में याद किया जाएगा।कोरोना के संकट से उबरती हुए दुनिया धीरे-धीरे एक नई उथल-पुथल में घिर गई है। यूक्रेन में युद्ध उस अशांति का सबसे बड़ा लक्षण है। इस युद्ध ने रूस, यूक्रेन और अन्य देशों को भी प्रभावित किया है। पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार और अफगानिस्तान जैसे पड़ोसी देशों में भी बेचैनी और अशांति बढ़ रही है।युद्ध के कारण ईंधन की कीमतें बढ़ीं और इसी तरह मुद्रास्फीति भी हुई। इस बीच, इन पड़ोसी देशों ने कुछ नीतिगत गलतियाँ कीं। कुछ जगहों पर प्राकृतिक आपदाओं ने स्थिति को और खराब कर दिया। चूंकि यह स्थिति डेढ़ साल में और खराब होने की संभावना है, इसलिए भारत को सतर्क रहने की जरूरत है।
जनवरी में अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन और फ्रांस की महाशक्तियों ने एक साथ आकर परमाणु युद्ध से बचने का संकल्प लिया। जिससे हर तरफ उम्मीद का माहौल बना हुआ है। अमेरिका और रूस के बीच अहम बातचीत भी शुरू हो गई थी। ऐसा लग रहा था कि महाशक्तियों के बीच कोई बड़ा युद्ध नहीं होगा। लेकिन, यूक्रेन पर रूस के हमले ने दुनिया में इसके विपरीत स्थिति पैदा कर दी।ईंधन और भोजन की कमी और मुद्रास्फीति की समस्या न केवल यूरोप में बल्कि अफ्रीका और एशिया के कई देशों में भी महसूस की जाती है। सबसे प्रमुख उदाहरण श्रीलंका का है। वहां नाटकीय घटनाक्रम हुए। ईंधन और आवश्यक वस्तुओं की कमी के कारण, इस जगह के लोगों ने विद्रोह कर दिया और राष्ट्रपति महल पर कब्जा कर लिया और गोटबाया राजपक्षे को अपदस्थ कर दिया और उन्हें देश से बाहर निकाल दिया।हालाँकि रानिल विक्रमसिंघे ने तब से राष्ट्रपति पद ग्रहण किया है और स्थिति पर नियंत्रण कर लिया है, फिर भी कई बुनियादी सवाल बने हुए हैं। श्रीलंका कोई रास्ता निकालने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से बातचीत कर रहा है। एक पड़ोसी धर्म के रूप में, भारत ने भी श्रीलंका को लगभग दो अरब डॉलर की पेशकश की। इसने कुछ स्थिरता लाई है, लेकिन चुनौतियां बनी हुई हैं।
आर्थिक कठिनाइयों के साथ-साथ म्यांमार में राजनीतिक संघर्ष भी जारी है। उस देश की नेता आंग सान सू की को सेना ने सालों तक जेल में रखा है। वहां असमंजस की स्थिति है। उत्तर की ओर यानि नेपाल को देखें तो वहां भी महंगाई का प्रकोप है। वहां की राजनीती पार्टियां एक-दूसरे को समझना और साथ काम करना नहीं चाहती हैं।वहां नवंबर में चुनाव होने वाले है। सभी पार्टियां इन चुनावों को जीतने और सत्ता हासिल करने पर केंद्रित हैं। ऐसे में प्रशासनिक कार्यों की उपेक्षा की जा रही है। भारत ने भी इस देश की कुछ हद तक मदद की है। बांग्लादेश अपेक्षाकृत स्थिर है। लेकिन आर्थिक दिक्कतें भी हैं। भले ही पाकिस्तान में चुनाव एक साल दूर हैं, लेकिन वहां एक बड़ा राजनीतिक परिवर्तन होने जा रहा है।सेना प्रमुख जनरल बाजवा नवंबर में सेवानिवृत्त होंगे। नए सेना प्रमुख की नियुक्ति की जाएगी। सेना प्रमुख का वहां प्रधान मंत्री या राष्ट्रपति से अधिक महत्वपूर्ण पद होता है। वहां की सरकार दोपहिया की सरकार है। एक पहिया चुनी हुई सरकार और दूसरा है सेना। इसमें सेना की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण होती है। इसलिए, पाकिस्तान में सेना प्रमुख के परिवर्तन को लेकर बहुत चर्चा और विवाद शुरू है और कुछ अस्थिरता भी है। वहां की आर्थिक स्थिति पहले से ही बिकट है।
पाकिस्तान को हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से एक अरब डॉलर से अधिक प्राप्त हुआ है। साथ ही सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात ने भी मदद की है। इसलिए, भले ही पाकिस्तान ने अस्थायी रूप से आर्थिक सत्ता अपने हाथ में ले ली हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे रसातल में जाने से बचेंगे। आईएमएफ ने पाकिस्तान को सहायता प्रदान करते हुए कई शर्तें लगाईं।पाकिस्तान में विपक्षी दलों को शर्तों के बारे में कोई जानकारी नहीं है; लेकिन मीडिया के पास भी उनका पता नहीं है। इसलिए नाराजगी है। जानकारों ने संभावना जताई है कि श्रीलंका में बगावत की तरह ही अगले साल चुनाव से पहले पाकिस्तान में भी बगावत होगा। उस देश में एक तरफ विपदाओं की बाढ़ आई है तो दूसरी तरफ भारी बारिश से बाढ़ आई है।सिंध में मंचर झील समुद्र में बदल गई है। वहां की सरकार बाढ़ पीड़ितों की मदद नहीं कर पा रही है। मंचर झील से पानी छोड़े जाने के कारण कुछ गांव जलमग्न हो गए और अंत में पानी वापस झील में आ गया। उस फैसले ने नुकसान को और बढ़ा दिया। बाढ़ के कारण कृषि के नुकसान सहित पहले से ही मुद्रास्फीति का प्रकोप है।कपास बड़े पैमाने पर उस देश में उगाया जाता है; लेकिन बारिश के कारण आधी से ज्यादा फसल बर्बाद हो गई। नतीजतन, कपास और पूरे देश का निर्यात क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हुआ। आर्थिक कुप्रबंधन और प्राकृतिक आपदाओं ने उस देश की आर्थिक रीढ़ तोड़ दी है। इसका असर वहां के सभी प्रांतों में देखा जा सकता है। इसके बावजूद वहां की पार्टियां साथ काम करने को तैयार नहीं हैं।
उल्टे यादवी के संकेत मिल रहे हैं.शबाज़ शरीफ़ सरकार और विपक्ष के नेता इमरान ख़ान के बीच तनातनी चरम पर पहुंच गई है। शाहबाज शरीफ के साथ इमरान खान लगातार सेना, सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग पर जुबानी हमले कर रहे हैं। तो शायद सुप्रीम कोर्ट उन्हें राजनीति में सक्रिय होने से रोक सकता है। लेकिन इमरान खान को जन समर्थन है।वे शासकों के लिए सिरदर्द बनेंगे। हर प्रांत बेचैन है। बलूचिस्तान में आजादी की लड़ाई चल रही है। आरोप है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियां सूबे की स्वायत्तता का खुलकर समर्थन करने वाले युवाओं की हत्या कर रही हैं। खैबर पख्तूनख्वा अफगानिस्तान की सीमा पर स्थित है और तालिबान के शासन के बाद कई तालिबान वहां बस गए हैं और वे वहां स्थानीय शासन लेने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे पाकिस्तान और तालिबान के बीच झड़पें हो रही हैं।तीसरा प्रांत गिलगित बाल्टिस्तान यानि पाकव्याप्त कश्मीर है। वहां शिया-सुन्नी संघर्ष है। शिया और अहमदी जैसे अल्पसंख्यक मारे जा रहे हैं। सिंध में बाढ़ से भयानक नुकसान हुआ है और धार्मिक पार्टी 'जमाते इस्लामी' ने सरकार से ज्यादा बाढ़ पीड़ितों की मदद की है।इसलिए इस पार्टी के प्रति लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है। विश्लेषकों का अनुमान है कि कराची में आगामी स्थानीय चुनावों में जमात-ए-इस्लामी सरकार सत्ता में आएगी और एक नया विवाद छिड़ जाएगा। पंजाब प्रांत बाढ़, राजनीतिक और आर्थिक तनाव से अस्थिर हो गया है। वहां इमरान खान की 'तहरीक -ए- पाकिस्तान' सरकार है, लेकिन गुटबाजी भी चल रही है।
अफगानिस्तान पर तालिबान का शासन है; लेकिन चूंकि वे सरकार चलाने में सक्षम नहीं हैं, वहां भी अस्थिरता है।भारत को सावधान रहना चाहिए और सोचना चाहिए कि स्थिति का भारत पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। जैसे-जैसे पड़ोसी देशों में चुनाव नजदीक आ रहे हैं, तत्काल आर्थिक उपायों और सुशासन की कोई संभावना नहीं है। 1971 की तरह, पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच संघर्ष के कारण शरणार्थी भारत आए। वैसे ही शरणार्थियों के आने की संभावना है। भारत को जागरूक होना होगा। सभी पड़ोसी देशों के साथ दो साल तक बेहद सावधान रहना होगा। बाहर से आने वाले संकटों का सामना करने के लिए हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारे देश में स्थिरता, अनुशासन और सद्भाव बना रहे। हमें छोटे-छोटे मुद्दों पर अराजकता पैदा किए बिना वैश्विक और उपमहाद्वीप की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। यह हमारा राष्ट्रीय हित है।
-मच्छिंद्र ऐनापुरे
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