शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

(कहानी) अच्छी बातें


एक राजा के पास सुलक्षण नाम का एक हाथी था। एक बार वह हाथी पागल हो गया। उसने अपने पास आने वाले महावत को मार डाला। जो भी उसके पास गया, उसने उसे सूंड से उठा लिया और पीट-पीटकर मार डाला। पूरे शहर में कोहराम मच गया। "सुलक्षण पागल हो गया है" तो खबर हर जगह चली गई। राजा ने कई महावतों को बुलाया। उन्हें भारी इनाम की पेशकश की गई, लेकिन कोई भी महावत हाथी को शांत नहीं कर सका।

एक बार  महात्मा बोधिसत्व उस देश में घूमते हुए आए। वे ऐसी गजपरिक्षा में भी कुशल थे। राजा ने उन्हें यह समाचार सुनाया कि हाथी पागल हो गया है और उनसे हाथी को होश में  लाने का अनुरोध किया। बोधिसत्व ने कहा, 'आओ, मुझे हाथी दिखाओ।'

बोधिसत्व ने हाथी को देखा।  बहुत देर तक देखने के बाद, उन्होंने देखा कि हाथी में पागलपन का कोई लक्षण नहीं है। उन्होंने कहा, 'सुलक्षण बिल्कुल भी पागल नहीं है। उसने महूता से पूछा, "यहाँ कौन कौन आता है?"  वे क्या कहते हैं?' 'महुत ने कहा, "यहां आने वाले कुछ लोग हिंसा, चोरी, द्युत, कौर्य, शराब की बात करते हैं।"  यह सुनकर हाथी पागल हो जाता है।

बोधिसत्व राजा के पास आये और कहा, "महाराज, हाथी बुरे विचार सुनकर क्रूर हो गया है। सज्जनों को गजशाला के चारों ओर घूमने दें। हाथी शांत हो जाएगा।'' राजा ने साधूओं को बुलाया और उनसे गजशाला के पास रहने का अनुरोध किया।

"हिंसा मत करो, दया करो, शांत रहो।" इस तरह उपदेश करते हुए साधू घूमते रहे। ये अच्छे विचार सुलक्षण हाथी के कानों में पड़ते ही हाथी शांत हो गया।

इस कहानी से कोई भी महसूस कर सकता है कि आजकल युवा पीढ़ी टेलीविजन और मोबाईल के आक्रमण के कारण हिंसक और क्रूर होती जा रही है।अगर उन पर लगातार ऐसें ही बमबारी होती रही, तो उनसे अच्छी चीजों की उम्मीद करना गलत होगा। उनके पास अच्छी संस्कृति के लिए, उन्हें अच्छे विचारों को सुनना चाहिए, इसके लिए अनुकूल वातावरण बनाना चाहिए, तभी यह पीढ़ी शांतिपूर्ण और अच्छी तरह से व्यवहार करेगी। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली (महाराष्ट्र)





रविवार, 25 सितंबर 2022

(बाल कहानी) जीवन शिल्प बनाए


वो एक महान चित्रकार था।  धन, प्रसिद्धि उसे बहुतायत में मिली थी;  लेकिन अंदर से वह असंतुष्ट था।  वह एक ऐसी पेंटिंग बनाना चाहता था जो उसकी मृत्यु के बाद भी जीवित रहे। अंत में, उसने कंस ने चट्टान से मारकर देवकी के शिशु को मार डाला इस दृश्य को चित्रित करने का फैसला किया।  सबसे पहले उसने  शिशु का चित्र बनाने के लिए उस बच्चे की तलाश की। उसने सैकड़ों बच्चे देखे, लेकिन  मासूम, सुंदर, भावुक बच्चा आखिरकार उसे एक झुग्गी में पाया। उसके शराबी पिता को प्रतिदिन भुगतान करने का  निर्णय लेने के बाद उसने चित्रकार को बच्चे की तस्वीर बनाने की अनुमति दे दी। जब पैसा हाथ में आता, तो वह तुरंत शराब पिने के लिए निकल जाता।

15-20 दिनों में बच्चे की तस्वीर बनकर तैयार हो गई।

   लेकिन उसे एक क्रूर, दुष्ट दिखने वाला, शैतानी चेहरा वाला आदमी नहीं मिला जो कंस की तस्वीर बना सके।

 साल दर साल बीतते गये। पच्चीस साल बीत चुके।

 अपनी तस्वीर कभी पुरी नहीं होगी, ऐसा उसे महसुस होने लगा। लेकिन अचानक एक दिन उसने वह चेहरा अखबार में देखा। यह एक हत्यारे की तस्वीर थी जिसे अपनी पत्नी और दो बच्चों की हत्या के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।

तुरंत उसने महसूस किया, 'यही हमारा कंस है!'

उसने सरकारी स्तर पर प्रयास किए और अनुमति प्राप्त की।

वह जेल जाकर कैदी को सामने खड़ा कर कंस का चित्र बनाने लगा। और कंस का चित्र बनाने लगा। जैसे ही चित्र पूरा होने लगा, चित्रकार को खुशी होने लगी। उसे यकीन था कि उनकी तस्वीर कमाल की होगी। वह चित्र बनाते वक्त कैदी से बात करता था।

इससे उसे पता चला कि शराब पीने के बाद घर आने पर  बिवीने कहा, घर में खाने को कुछ नहीं है और 

 बच्चे भी भूखे है, इसलिए क्रोध में आकर  उसने तीनों के सिर पर बैट मार कर मार डाला। यह कहते हुए उसे बुरा नहीं लगा। तस्वीर एक महीने के भीतर पूरी हो गई।

चित्रकार पूरी तरह से संतुष्ट था। उसने कहा कि,'आपका काम खत्म हो गया है।'

तब कैदी ने कहा, "श्रीमान, क्या मैं देख सकता हूं कि मेरी तस्वीर कैसी बनी है?"

'ओह, देखो, और मुझे भी बताओ कि यह कैसा है।' जब चित्रकार ने यह कहा तो कैदी ने आगे आकर चित्र की ओर देखा। उसके चेहरे का अहंकार गायब हो गया, उसकी आँखों में पानी आ गया और वह रोने लगा।  चित्रकार कुछ समझ नहीं सका।

'क्यों रो रहे हो?"  जब उसने यह पूछा, तो कैदी ने अपना चेहरा अपने हाथों से ढँक लिया और कहा, 'साब..., साब..., वो बच्चा मैं  हूँ, वो बच्चा मैं ही हूँ। मेरी माँ हमेशा मुझसे कहती थी, जन्म लेने वाला शिशु निष्पाप ही होता है। संस्कार से वह साधु बन जाता है।  नहीं तो शैतान।'

अर्थ: भाग्य को दोष देने के बजाय अच्छे संस्कार अपनाएं।

-मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली (महाराष्ट्र)






शनिवार, 24 सितंबर 2022

जीवन बोझ बन गया...


हालांकि केंद्र सरकार का दावा है कि देश आर्थिक तरक्की कर रहा है और रोजगार पैदा हो रहा है, लेकिन हकीकत यह है कि यह कोरी बकवास है।  राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने हाल ही में देश में आत्महत्या के आंकड़े जारी किए हैं।  यह किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति के लिए एक सदमा है। दैनिक वेतन भोगियों द्वारा आत्महत्या की दर पिछले आठ वर्षों से लगातार बढ़ रही है।  इस विभाग के आंकड़े कहते हैं कि पिछले एक साल में ऐसे 42 हजार 4 लोगों ने अपनी जान ली. पिछले साल देश में कुल 1 लाख 64 हजार 33 आत्महत्याएं दर्ज की गईं।  इनमें दैनिक वेतन भोगियों का अनुपात 25.6 प्रतिशत है।  यह कुल आत्महत्याओं का एक चौथाई से अधिक है।  चार आत्महत्याओं में से एक दिहाड़ी मजदूर था।  2020 में भी इस श्रेणी में आत्महत्या की दर सबसे अधिक थी।  उस साल एक लाख 53 हजार 52 लोगों ने आत्महत्या की थी।  दैनिक वेतन भोगियों की संख्या 37 हजार 666 थी।  यानी 24.6 फीसदी।  पिछले साल इसमें एक फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी।  पिछले साल 2019 में कोरोना फैलने से पहले ऐसे 32 हजार 563 लोगों की मौत हुई थी.  उनका अनुपात 23.4 प्रतिशत था और उस वर्ष भी सबसे अधिक था।

पिछले साल दिहाड़ी  मजदूरों के बाद स्वरोजगार क्षेत्र में 20 हजार 231 लोगों ने आत्महत्या की। यह अनुपात 16.73 प्रतिशत है।  इनकी संख्या भी हर साल बढ़ रही है।  किसानों की आत्महत्या दर में थोड़ी कमी आई है।  पिछले साल देश में 5 हजार 318 किसानों ने की आत्महत्या;  लेकिन खेत मजदूरों की आत्महत्या दर में वृद्धि हुई है।पिछले साल 5 हजार 563 खेतिहर मजदूरों ने अपनी जान दे दी थी।  राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट कहती है कि 2019 और 2002 की तुलना में मामलों की संख्या में तेज वृद्धि हुई है।  इसके मुख्य कारण की पहचान करने के लिए सामाजिक वैज्ञानिक की आवश्यकता नहीं है।  बहुत कम आय ये मूल कारण  है। यह निष्कर्ष निकालना आसान है कि चाहे स्वरोजगार करने वाला व्यक्ति हो या दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी, उनकी स्थिति समान है।
लखनौ जैसे शहर में भी, आप रोज़ सुबह चौक पर काम पाने की उम्मीद में गरीब मजदूरों की कतारें देख सकते हैं।  इसमें महिलाएं भी हैं।  वे पेंटिंग, कंस्ट्रक्शन जैसी नौकरियों की तलाश में हैं।  उन्हें उम्मीद है कि एक ठेकेदार आएगा और काम के लिए बुलाएगा;  लेकिन कभी-कभी ऐसा नहीं हो पाता।  कई दिनों तक काम नहीं मिलने के बाद सवाल उठता है कि कैसे अपने दम पर गुजारा करें और परिवार का भरण पोषण कैसे करें।
वह यह तय नहीं कर सकते तो ये लोग जीना बंद कर देंते हैं।  पहले मजदूरों के 'गिरोह' निर्माण स्थल पर स्लैब डालने आते थे;  लेकिन 'प्री-मिक्स्ड' कंक्रीट और मशीनों ने उन्हें विफल कर दिया। रंग के क्षेत्र में आधुनिक तकनीक और मशीनें भी आ गई हैं।  इससे अकुशल श्रमिकों की दुर्दशा बढ़ गई है।  इन लोगों को जिंदा रहने के लिए रोज संघर्ष करना पड़ता है। कई इसे खो देते हैं।  फिर मौत के सिवा कोई चारा नहीं।  यह एक सामाजिक त्रासदी है।  स्वरोजगार का मतलब हर कोई डॉक्टर, वकील, सलाहकार नहीं होता। बहुत से ऐसे लोग हैं जो एक कूरियर या फूड डिलीवरी कंपनी में काम करते हैं।  उनके पास कोई नौकरी और वेतन स्थिरता नहीं है।  व्यक्ति को उसके द्वारा दिए गए  'ऑर्डर्स' के अनुसार भुगतान किया जाता है। उसे सरकारी दफ्तरमें  'वेतनभोगी व्यक्ति' के रूप में भी दर्ज किया जा सकता है;  लेकिन कौन जाँचेगा कि क्या यह जीवित रहने के लिए पर्याप्त है?
अशिक्षित, कम शिक्षित, कम आय वाले लोगों में कुल आत्महत्याओं का अनुपात सबसे अधिक है।  सार्वजनिक क्षेत्र के संगठनों या सरकारी कर्मचारियों की आत्महत्या दर सबसे कम है;  लेकिन निजी क्षेत्र के कर्मचारियों का अनुपात काफी है। इसके पीछे निराशा और तनाव भी एक प्रमुख कारण है।  छात्रों, वरिष्ठ नागरिकों, विवाहित पुरुषों और महिलाओं में आत्महत्याओं में मामूली वृद्धि हुई है।  इसके पीछे के कारणों में पारिवारिक कलह या बीमारी शामिल है;  लेकिन मजदूरों की आत्महत्या की बढ़ती दर चिंताजनक है। अत्यधिक हताशा के कारण आत्महत्या की जाती है, ऐसा कहा जाता है;  लेकिन यह परिवार, समाज और सरकार की जिम्मेदारी है कि वह इस निराशा के कारणों का पता लगाएं और इसके समाधान की योजना बनाएं।  श्रमिकों को जीने का साधन मिलना चाहिए। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, मुक्त पत्रकार


उचित आहार, व्यायाम और स्वस्थ सोच


हमारे पूर्वजों ने हमें प्राचीन काल से ही स्वस्थ शरीर का महत्व बताया है।  वेद शास्त्र, शास्त्रों, संतों का साहित्य, महापुरुष सभी ने शरीर की देखभाल करके शरीर को स्वस्थ रखने के उपाय बताए हैं।  कई जगहों पर कहा गया है कि स्वस्थ शरीर से ही हम धर्म का भली-भांति अभ्यास कर सकते हैं। धन कमाने से लेकर ईश्वर प्राप्ति तक शरीर का उपयोग होता है।  इसलिए स्वस्थ शरीर का महत्व सभी को पता होना चाहिए।  शरीर मन को प्रभावित करता है और मन शरीर को प्रभावित करता है।  शरीर से मन में और मन से शरीर में कई बीमारियां फैलती हैं।  तन और मन का संतुलन जरूरी है।

प्राचीन काल में हमारे पूर्वजों की जीवन शैली बहुत अलग थी।  शारीरिक परिश्रम अधिक होता था।  लेकिन मानसिक तनाव कम होता था।  नतीजतन, शरीर अधिक स्वस्थ रहता था।  हालाँकि, आज स्थिति बहुत बदल गई है।  असली सवाल हमें खुद से पूछना चाहिए कि क्या हम आधुनिकता और भागदौड़ के युग में अपनी भौतिक संपत्ति की उचित देखभाल कर रहे हैं?हमारे पास धन, पद पाने की कोई सीमा नहीं है।  लेकिन शरीर और जीवन की बड़ी सीमाएँ हैं।  जब तक शरीर चल रहा है, तब तक हमें शरीर की कीमत का पता नहीं चलता।  लेकिन शरीर को थोड़ी सी भी चोट लग जाए तो भी हम शरीर की कीमत समझते हैं।  शरीर में होने वाले अधिकांश रोग अनुचित आहार और व्यायाम के कारण होते हैं। यदि शरीर में कोई रोग अनुवांशिक रूप से होता है, तो हमें उस रोग के अनुसार जीवन शैली की दिनचर्या में परिवर्तन करने की आवश्यकता होती है।  यह परिवर्तन निश्चित रूप से आपके शरीर को स्वस्थ रखने में मदद करेगा!  लेकिन आज के भागदौड़ भरे इस दौर में इसके लिए किसी के पास समय नहीं है।  स्कूली छात्रों से लेकर मंत्री तक सभी यहां व्यस्त हैं। जिस काम के लिए दौड़ना चल रहा है उसका उपयोग तभी किया जा सकता है जब शरीर अच्छी स्थिति में हो।  अन्यथा, इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए कि सफलता का लाभ उठाने के लिए शरीर अच्छी स्थिति में नहीं होगा।
पहले मधुमेह, रक्तचाप की दवाएं लेने वाले लोग नहीं मिलती थे।  अगर किसी को इस तरह की बीमारी होती तो उस शख्स को हर कोई जानता था।  आज यह रोग आम हो गया है।  ग्रामीण इलाकों में स्थिति थोड़ी बेहतर है लेकिन शहरी इलाकों में 20 से 22 साल के युवा हाई ब्लड प्रेशर से पीड़ित नजर आ रहे हैं. यह बहुत ही चौंकाने वाला और दुखद है।  यदि विश्व में सर्वाधिक युवा जनसंख्या वाले देश में युवा इस रोग से प्रभावित होते हैं तो निश्चय ही इसका किसी देश की प्रगति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।  क्योंकि देश का युवा देश का स्तंभ है, इसे बहुत गंभीरता से देखने की जरूरत है।खराब शारीरिक स्वास्थ्य के कई कारण हैं, और लगभग सभी प्रमुख कारणों को बदला जा सकता है।  इसके लिए हमें बस अपनी मानसिक शक्ति को बढ़ाने की जरूरत है।  शरीर के बिगड़ने के पीछे आहार और व्यायाम मुख्य कारक हैं। हमें यह याद रखना चाहिए कि आहार और व्यायाम न केवल शरीर के लिए बल्कि मन के लिए भी हैं।  शरीर का खराब पोषण कई बीमारियों को आमंत्रण देता है।  आजकल बाजार में मिलने वाला फास्ट फूड, बर्गर, पिज्जा, केक आदि सभी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। इसमें मौजूद रासायनिक प्रिझर्व्हेटिव्ह का शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।  होटल में खाने-पीने में ग्राहकों की सेहत का ख्याल नहीं रखा जाता।  पैसा कमाने के लिए सरकार द्वारा बनाए गए कई नियमों और मानदंडों को तोड़ा जाता है।  एक बार इस बात की जांच कर लेनी चाहिए कि खाना बनाने में इस्तेमाल होने वाली सामग्री खाने योग्य तो नहीं है।  खाद्य अपमिश्रण विभाग को कागज के घोड़ों पर नाचने के बजाय ईमानदारी से निरीक्षण और छापा सत्र का प्रयोग करने की जरूरत है।
घर का खाने का डिब्बा और घर का खाना होटल से बेहतर है इसलिए जहां हो सके घर का खाना ही लें।  अगर बाहर खाने का समय है, तो फल, सलाद, सब्जियों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।  तैलीय, तला हुआ भोजन, फास्ट फूड, चाइनीज, बर्गर, पिज्जा से बचना चाहिए।  इसके साथ ही भोजन के समय का भी ध्यान रखना चाहिए। भोजन शरीर में उसी समय प्रवेश करना चाहिए जब शरीर को खाने की आदत हो।  सरकारी और निजी कार्यस्थलों में इन समयों का कठोर से पालन किया जाना चाहिए।  सही समय पर और सही मात्रा में सही भोजन करना महत्वपूर्ण है।  इससे बचने की सलाह दी जाती है कि हम अक्सर अपने शरीर की जरूरत से ज्यादा भोजन का सेवन करते हैं।  स्कूली बच्चों और युवाओं को घर का बना खाना ही दिया जाना चाहिए। घर में खाना बनाना थोड़ा तनावपूर्ण रहेगा लेकिन बच्चों का स्वास्थ्य अच्छा रहेगा।  घर में भी खाना बनाते समय नमक, तेल, चीनी, मैदा आदि का कम से कम इस्तेमाल करना जरूरी है।  आहार मौसम और वातावरण के अनुसार होना चाहिए।  प्रत्येक भोजन में ठंडा और गर्म करने के गुण होते हैं और इसे ध्यान में रखकर ही सेवन करना चाहिए।
चाय, कॉफी, शीतल पेय के अत्यधिक सेवन से भी बचना चाहिए।  इसके बजाय जरूरी है कि छाछ, नींबू पानी, नारियल पानी, प्राकृतिक फल खाने की आदत डालें।  अधिक खाने के साथ-साथ शराब और व्यसनों से बचना सबसे अच्छा है।  जैसा कि आज के युवा विभिन्न व्यसनों के आदी हैं, भविष्य में उनकी कार्यक्षमता कितनी बनी रहेगी, इसमें संदेह है। उचित आहार के साथ-साथ उचित विहार ( व्यायाम) भी आवश्यक है।  विहार शब्द का दायरा बहुत विस्तृत है।  इसमें उचित व्यायाम, उचित मेहनत, उचित कसरत शामिल है जो स्वस्थ शरीर के लिए आवश्यक है।  योग, पैदल चलना, साइकिल चलाना, तैराकी, एरोबिक्स जैसे व्यायाम करने चाहिए।  पैदल या साइकिल चलाने के बजाय अक्सर कम दूरी के लिए कार या बाइक का उपयोग ना करें।  यदि आपके पास व्यायाम के लिए बहुत कम समय है, तो आप घरेलू साइकिल और घरेलू मशीनों का उपयोग करके कम समय में व्यायाम कर सकते हैं।
कपालभाति, अनुलोम-विलोम, प्राणायाम आदि अनेक प्रभावशाली प्राणायाम क्रियाएँ करना भी आवश्यक है।  शरीर के लिए व्यायाम और मन के लिए ध्यान और अन्य उपायों को जीवन में शामिल करना चाहिए।  बहुत से लोगों के पास सुबह का समय नहीं होता है, तो उन्हें शाम को व्यायाम करना चाहिए।  आहार और व्यायाम के साथ-साथ नींद भी एक बहुत ही महत्वपूर्ण कारक है।  पर्याप्त आराम की नींद कई बीमारियों के विकास को रोकती है।  इसलिए मोबाइल फोन पर समय बर्बाद करने के बजाय उचित और पर्याप्त नींद लेने के बारे में सोचें। हम अपने वाहन, अपने घर और अपनी पसंदीदा चीजों का बहुत ध्यान रखते हैं।  लेकिन हम अपने सबसे कीमती शरीर के लिए कुछ नहीं करते।  जब आप बीमार होते हैं, तो आपको वास्तव में अस्पतालों या क्लीनिकों के बजाय बीमार होने से बचने के लिए प्रयास करना चाहिए।  स्वस्थ शरीर, स्वस्थ युवा से हमारा देश भी स्वस्थ रहेगा, इसलिए आहार और व्यायाम और स्वस्थ सोच पर नियंत्रण रखना आवश्यक है।-मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली (महाराष्ट्र)

जैविक खेती की छलांग कहाँ तक?


बढ़ती फसलों में रासायनिक खाद और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग के दुष्परिणाम सामने आने के बाद जैविक खाद्यान्न, सब्जियों और फलों की मांग बढ़ गई है।  लेकिन देश में जैविक खेती कहां तक ​​फैली है?  जैविक खेती के सामने कौन सी प्रमुख चुनौतियाँ हैं?

जैविक खेती वास्तव में क्या है?-जैविक खेती बिना किसी रासायनिक खाद या कीटनाशकों के प्रयोग के की जाने वाली खेती है।  ऐसे कृषि उत्पादों में रसायनों का कोई अंश नहीं होता है।  दूरदराज, पहाड़ी और आदिवासी क्षेत्रों में कृषि भूमि को छोड़कर, देश में अन्य जगह की मिट्टी और पानी दूषित हो गयी है। इसलिए, कृषि में किसी भी रसायन का उपयोग नहीं किया जाता है, हालांकि उत्पादों में रसायनों के अंश पाए जाते हैं।  इसलिए, ऐसे कृषि उत्पादों को जैविक कृषि उत्पाद नहीं कहा जा सकता है।  अंगूर, अनार आदि निर्यात योग्य फसलों में स्वास्थ्य के लिए हानिकारक रसायनों की मात्रा नहीं होती है, लेकिन उन्हें जैविक उत्पाद नहीं कहा जा सकता है।  क्योंकि इन फलों के उत्पादन में रासायनिक खाद और दवाओं का उपयोग किया जाता है।

जैविक खेती का विकास किस हद तक है?-केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के अनुसार मार्च 2020 तक लगभग 2.78 मिलियन हेक्टेयर कृषि भूमि जैविक खेती के अंतर्गत आ चुकी है।  देश का कुल कृषि योग्य क्षेत्रफल 140.1 मिलियन हेक्टेयर है।  उसमें से जैविक खेती के अंतर्गत आने वाला क्षेत्र दो प्रतिशत है।  मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, सिक्किम और गुजरात ने जैविक खेती के लिए पहल की है।  हालांकि सिक्किम जैविक खेती अपनाने वाला देश का पहला राज्य है, मध्य प्रदेश में जैविक खेती के तहत सबसे बड़ा क्षेत्र है।

जैविक खेती की राज्यवार स्थिति क्या है?- सिक्किम के साथ, मेघालय, मिजोरम, उत्तराखंड, गोवा राज्यों में जैविक खेती के तहत कुल बोए गए क्षेत्र का 10 प्रतिशत या उससे अधिक है।  गोवा को छोड़कर, अन्य राज्य पहाड़ी, सुदूर क्षेत्रों में हैं।  उन राज्यों के स्थानीय आदिवासियों या मूल निवासियों द्वारा पारंपरिक तरीके से जैविक खेती की जाती है। केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली, दादरा और नगर हवेली, दीव और दमन, लक्षद्वीप और चंडीगढ़ में भी जैविक खेती के तहत उनके शुद्ध बोए गए क्षेत्र का 10 प्रतिशत या उससे अधिक है।  लेकिन इनका कृषि योग्य क्षेत्रफल बहुत कम है।  मध्य प्रदेश में खेती योग्य क्षेत्र का 4.9 प्रतिशत हिस्सा है जो देश में सबसे ज्यादा 0.76 मिलियन हेक्टेयर जैविक खेती का है। राजस्थान में 2 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 1.6 प्रतिशत क्षेत्र जैविक खेती के अधीन है।  अन्य सभी राज्यों में कुल कृषि योग्य क्षेत्र का एक प्रतिशत से भी कम भाग जैविक खेती के अंतर्गत आता है।

क्या ऐसी खेती के लिए कोई ठोस नीति है?-सिक्किम के साथ आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, केरल, उत्तराखंड, मिजोरम, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश राज्यों ने पूरी तरह से जैविक या प्राकृतिक खेती करने की इच्छा व्यक्त की है।  लेकिन इस संबंध में कोई ठोस प्रयास नहीं किया जा रहा है।  उदाहरण के लिए, कर्नाटक ने 2004 में और केरल में 2010 में जैविक कृषि नीति की घोषणा की;  लेकिन कर्नाटक में कुल बुवाई क्षेत्र का केवल 1.1 प्रतिशत और केरल में 2.7 प्रतिशत जैविक खेती के अधीन है।

 जैविक उत्पादों के बाजार के लिए अच्छा दिन?-जैविक खेती महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, तेलंगाना, सिक्किम, बिहार, कर्नाटक, ओडिशा, राजस्थान, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में की जाती है।  फिर इस कृषि उपज को एपीडा (एपीईडीए) जैसे संगठन के माध्यम से जैविक प्रमाण पत्र के साथ निर्यात किया जाता है।  एमपी ऑर्गेनिक, ऑर्गेनिक राजस्थान, नासिक ऑर्गेनिक, बस्तर नेचुरल, केरल नेचुरल, ऑर्गेनिक झारखंड, नागा ऑर्गेनिक, ऑर्गेनिक अरुणाचल, ऑर्गेनिक मणिपुर, त्रिपुरा ऑर्गेनिक जैसे ब्रांड विकसित किए गए हैं।  अच्छा बाजार मिल रहा है।

सरकार के स्तर से जैविक खेती को बढ़ावा ?- 2005 में केंद्र सरकार ने देश की जैविक खेती नीति की घोषणा की थी।  देश में कुल 2.78 मिलियन हेक्टेयर जैविक खेती में से 1.94 मिलियन हेक्टेयर 'राष्ट्रीय जैविक उत्पादन कार्यक्रम' के अंतर्गत है।  प्राकृतिक या पारंपरिक कृषि विकास योजना के तहत 0.59 मिलियन हेक्टेयर, 'मिशन ऑर्गेनिक वैल्यू चेन डेवलपमेंट फॉर नॉर्थ ईस्टर्न रीजन' के तहत 0.07 मिलियन हेक्टेयर और राज्य योजनाओं या गैर-योजनाओं के तहत 0.17 मिलियन हेक्टेयर जैविक खेती के तहत हैं। देश में कुल जैविक खेती क्षेत्र का 70 प्रतिशत भाग विभिन्न सरकारी योजनाओं के अधीन है।  राष्ट्रीय जैविक उत्पादन कार्यक्रम के अन्तर्गत सर्वाधिक क्षेत्रफल मध्यप्रदेश में है।  उसके नीचे महाराष्ट्र, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, उत्तराखंड, तेलंगाना और बिहार राज्य हैं।  मार्च 2020 तक, भारत में 1.9 मिलियन किसान जैविक खेती कर रहे थे।  देश में लगभग 146 मिलियन किसान हैं, जिनमें जैविक खेती का हिस्सा 1.3 प्रतिशत है।  इसके अलावा, पहाड़ी, आदिवासी और वर्षा आधारित क्षेत्रों में पारंपरिक जैविक खेती की जाती है।

जैविक खेती के सामने क्या चुनौतियाँ हैं?-जैविक खेती के सामने कृषि उपज की उत्पादकता में गिरावट एक बड़ी चुनौती है।  बिना रासायनिक खाद, दवाओं, कीटनाशकों के उगाए गए उत्पाद बाजार में नहीं टिकते।  प्राकृतिक रूप से उगाए गए टमाटर एक समान नहीं होते, ज्यादा लाल नहीं होते हैं।  हालांकि बाजार में आकर्षक रंगों वाले टमाटरों की काफी मांग है।  वही हाल अन्य पत्तेदार सब्जियों, फलों का है।  जैविक उत्पादों के दाम ऊंचे हैं। ऐसे में आम उपभोक्ता इससे मुंह मोड़ लेता है।  फसलों पर बढ़ते रोग, कीटों और फंगस के कारण अक्सर जैविक खेती संभव नहीं हो पाती है।  उदाहरण के लिए, नीम की पत्तियों और बीजों का उपयोग जैविक कीटनाशकों के रूप में किया जाता है।  लेकिन हाल ही में इस पेड़ पर कीटों और बीमारियों का हमला हो गया है।  100 प्रतिशत जैविक खेती की यात्रा रसायनों के न्यूनतम उपयोग से शुरू होती है। ऐसे कृषि उत्पादों की उपलब्धता और लोगों की आवश्यकता को देखते हुए वर्तमान में 100 प्रतिशत जैविक कृषि उत्पादों पर जोर देना संभव नहीं है, लेकिन न्यूनतम रसायनों वाले कृषि उत्पादों पर जोर दिया जा सकता है।


शुक्रवार, 23 सितंबर 2022

दुनिया बन गई है और अधिक असुरक्षित


अमेरिका ही नहीं बल्कि दुनिया सितंबर महीने में अमेरिका (9/11) पर हुए हमले को याद करती है।  जबकि आतंकवाद के खिलाफ युद्ध भारत के लिए एक उपलब्धि है, अमेरिका के लिए यह अपने स्वयं के राष्ट्रीय हितों को प्राप्त करने का एक साधन है।  भारत और अमेरिका के बीच आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में यही बुनियादी अंतर है।अमेरिका पर हुए आतंकी हमले को दो दशक बीत चुके हैं।  इस घटना, जिसने वैश्विक राजनीति को उलट-पुलट कर दिया है, ने अमेरिका के नेतृत्व वाली विश्व व्यवस्था पर बुनियादी सवालिया निशान खड़े कर दिए हैं। उस हमले के बाद, अमेरिका 'आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध' के बारे में चिल्लाया; लेकिन यह वास्तव में एक वैश्विक युद्ध नहीं हो सका और नहीं हो सकता था, और इसका कारण  महाशक्ति की राजनीति है।  'हमारी जमीन पर हमले' की बात ने उस देश को और भी परेशान कर दिया।  दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में संघर्ष भड़कते हैं और अमेरिका अपने तरीके से सूत्र चलता है।  हम इसे यूक्रेन में मौजूदा उग्र युद्ध के साथ देख रहे हैं।  लेकिन 9/11 का हमला महाशक्ति के दिल में ही हुआ था।  इस हमले के बाद पुल के नीचे काफी पानी बह चुका है, जिसमें देश-विदेश के करीब तीन हजार लोग मारे गए थे।  हमले के लिए जिम्मेदार आतंकवादी संगठन अल-कायदा के नेता ओसामा बिन लादेन और अल-जवाहरी मारे गए।  लेकिन इतना ही नहीं।

प्रतिशोध से जलते हुए, संयुक्त राज्य अमेरिका ने वैश्विक मानदंडों को रौंद डाला और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के नाम पर अफगानिस्तान, इराक, सीरिया और लीबिया के देश में एक आभासी अराजकता पैदा कर दी।  इस भावनात्मक नीति ने विश्व राजनीति को और अधिक संवेदनशील बना दिया है।इस नीति ने कुछ बुनियादी सवाल खड़े किए हैं।उदाहरण के लिए, क्या हमें खुश होना चाहिए कि अल-कायदा का प्रभाव कम हो गया है, या हमें आईएसआईएस के बारे में चिंता व्यक्त करनी चाहिए, जो अमेरिकी नीति के एक बच्चे के रूप में पैदा हुआ था?  क्या 2001 में तालिबान को सत्ता से बेदखल करने के लिए अमेरिका की प्रशंसा की जानी चाहिए या फिर 2021 में तालिबान को फिर से सत्ता में आने देने के लिए अमेरिका को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए?  क्या आतंकवादियों को पनाह देने वाले देशों को खलनायक बना दिया जाना चाहिए, या अमेरिका जो आसानी से आतंकवाद की रक्षा करता है?  क्या हमें लोकतंत्र के नाम पर यादवी बनाने वाले अमेरिका का अनुसरण करना चाहिए या भारत का अनुसरण करना चाहिए, जो लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखते हुए संयम से आतंकवाद से लड़ता है?  आज 21 साल बाद पीछे मुड़कर देखें तो हमें यह सुनिश्चित करने के लिए बार-बार ये सवाल पूछने चाहिए कि दुनिया में कहीं भी 9/11 जैसा हमला दोबारा न हो।
विश्व राजनीति में आतंकवादी संगठन 'अराज्य अवयव' की अवधारणा के अंतर्गत आते हैं।  अर्थात्, इन संस्थाओं का संप्रभु राष्ट्रों की तरह अपना कोई विशेष अस्तित्व नहीं है।  उन्हें अस्तित्व में रहने के लिए संप्रभु राष्ट्रों की सहायता की आवश्यकता है। इसकी मदद के बिना कोई भी आतंकी संगठन आकार नहीं ले सकता।  यह सहायता मुख्य रूप से हमारे क्षेत्र में आश्रय, प्रशिक्षण, हथियारों की आपूर्ति, जनशक्ति या रसद के रूप में है। वैश्विक आतंकवाद की चर्चा मुख्य रूप से इसी ढांचे में की जाती है।  इसलिए, स्वाभाविक रूप से, पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे देश, जो आतंकवादियों को पनाह देकर खलनायक बन जाते हैं। वे वैसे हैं, यह  निःसंदेह  हैं।  लेकिन विश्व राजनीति में कई खलनायक हैं।  अक्सर उनकी अनदेखी की जाती है।  छोटे 'अपराधियों' पर ध्यान केंद्रित करने से बड़े अपराधी रडार से दूर रहते हैं।  उन्हें जांच के केंद्र में लाने का प्रयास किया जाना चाहिए।  समय-समय पर इस बात की समीक्षा करना भी आवश्यक है कि 9/11 जैसे भयानक हमले को अंजाम देने की हिम्मत इन अराजक तत्वों में से कहां से आती है।
अमेरिकी राजनीति भी आतंकवादी संगठनों के हौसले के लिए जिम्मेदार है।  अरब-इजरायल संघर्ष और अफगानिस्तान-सोवियत संघ संघर्ष को अमेरिका ने हवा दी थी।  यह अमेरिका के अपने आधिपत्य को बनाए रखने के प्रयासों के कारण है कि 'मध्य एशिया' और 'दक्षिण एशिया' के क्षेत्रों को 'दुनिया में सबसे खतरनाक क्षेत्र' माना जाता है। नियम-आधारित विश्व व्यवस्था बनाने की स्व-घोषित जिम्मेदारी लेने वाले अमेरिका की वास्तविक नीति इसके ठीक विपरीत है।  चाहे वह आधुनिक दुनिया में परमाणु शक्ति का पहला प्रयोग हो, चाहे वह 1980 के दशक में अफगानिस्तान से सोवियत संघ को बाहर करने के लिए तालिबान को जीवन और धन की पेशकश कर रहा हो, चाहे वह अफगानिस्तान पर बमबारी कर रहा हो, इराक में हस्तक्षेप कर रहा हो या इराक-सीरिया पर आक्रमण कर रहा हो। लोकतंत्र के नाम पर इराक-सीरिया-लिबिया इस संगठन के निर्माण के लिए जो भी दायरा दिया गया है, उसके पीछे 'सॉफ्टवेयर' अमेरिका का है। इस अवधि के दौरान लोकतंत्र की स्थापना नहीं हुई थी;  लेकिन तालिबान, अल-कायदा, इसिस और तालिबान ने एक बार फिर आतंकवादी संगठनों का घेरा पूरा कर लिया है।9/11 के हमलों का सबक सिर्फ अमेरिका तक ही सीमित नहीं है।  यह हमला उन सभी देशों के लिए एक वेक-अप कॉल है, जिन्होंने अपने हितों के लिए आतंकवाद पर भरोसा किया है। हमले के प्रतिशोध में, अमेरिका ने अपनी सारी ऊर्जा अफगानिस्तान में और बेवजह इराक में खर्च कर दी।  एक साथ दो युद्धों में लिप्त होने के कारण घरेलू वित्तीय संसाधनों पर दबाव पड़ा।  इसके परिणामस्वरूप मंदी आई।  यह जानने के बावजूद कि 2008 की आपदा 9/11 के हमलों से जुड़ी हुई थी, अमेरिका ने मध्य एशियाई देश में अनावश्यक रूप से हस्तक्षेप किया।  इससे बने यादवों के कारण ही आतंकवादी संगठन 'इसिस' का जन्म हुआ। तालिबान को वापस आने से अमेरिका नहीं रोक सका।
9/11 के हमले इस बात का उदाहरण हैं कि हम जिन नीतियों को लागू करते हैं, उनका उल्टा असर हो सकता है।  वास्तविक आतंकवाद के खिलाफ भारत द्वारा दिखाए गए तरीके अनुकरणीय हैं।  भारत जितना आतंक किसी ने नहीं झेला है। एक कमजोर नीति के रूप में, भारत की आतंकवाद विरोधी नीति का दुनिया और घर में कितना भी उपहास उड़ाया गया हो,  लेकिन भारत ने जो रास्ता अपनाया है, वह स्थायी सुरक्षा के लिए सही है। 2001 में संसद पर हमले या 2008 में मुंबई हमले के बावजूद, भारत ने अमेरिका की तरह अपने लोगों को युद्ध के गड्ढे में नहीं डुबोया।  अगर ऐसा किया जाता तो शायद भारत को अमेरिका से भी ज्यादा विकट संकट का सामना करना पड़ता।  दूसरी ओर, कसाब जैसे आतंकवादी को लोकतंत्र में कानून की प्रक्रिया का पालन करते हुए फांसी पर लटका दिया गया और दुनिया के सामने मूल्य-आधारित नीति की मिसाल कायम की। अपने अन्याय का रचनात्मक रूप से प्रयोग करने की भारत की नीति ने पाकिस्तान पर दो बार सर्जिकल स्ट्राइक करने के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से एक भी शब्द नहीं उठाया है।  भारत द्वारा अपनाई गई नीति के कारण न तो आतंकवादी संगठनों का प्रसार हुआ और न ही किसीं  देश  में संघर्ष बन पाया और न ही भारत ने अपने आर्थिक विकास को युद्ध से प्रभावित होने दिया।  अमेरिका में ठीक इसके विपरीत हुआ। जबकि आतंकवाद के खिलाफ युद्ध भारत के लिए एक उपलब्धि है, अमेरिका के लिए यह अपने स्वयं के राष्ट्रीय हितों को प्राप्त करने का एक साधन है।  आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भारत और अमेरिका के बीच यही मूलभूत अंतर है।  उसे अमेरिकी नीति को न दोहराने और किसी भी प्रकार के आतंकवाद को बढ़ावा न देने के बारे में लगातार जागरूक रहना चाहिए।  9/11 के हमलों के वैश्विक समुदाय के लिए यह निहित चेतावनी 21 साल बाद भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, मुक्त पत्रकार

गुरुवार, 22 सितंबर 2022

मानव जीवन की समृद्धि सुनिश्चित करनी होगी


संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा हाल ही में प्रकाशित मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) 2021-22 के अनुसार, 90 प्रतिशत देश मानव विकास सूचकांक में नीचे गिर गए हैं।  कोरोना के बाद यूक्रेन पर रूस के आक्रमण और जलवायु परिवर्तन के संकट ने 32 वर्षों में पहली बार वैश्विक मानव विकास को ठप कर दिया है। मानव विकास सूचकांक की गणना संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या प्रभाग, यूनेस्को, विश्व बैंक जैसे संगठनों से एकत्रित जानकारी के आधार पर की जाती है।  यह मानव विकास का एक संयुक्त सूचकांक है, जो जन्म के समय जीवन प्रत्याशा, स्कूली शिक्षा के औसत वर्ष, शिक्षा के अपेक्षित वर्ष और प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय को तीन बुनियादी आयामों में मापता है: लंबा और स्वस्थ जीवन, शिक्षा और एक सभ्य जीवन स्तर। यह सूचकांक 0 और 1 के बीच मापा जाता है।  जिस देश का सूचकांक 0 है उसका कोई मानव विकास नहीं है।  तो जिस देश का सूचकांक 1 होता है उसे पूर्ण मानव विकास माना जाता है।

दुनिया भर में,कोविड के बाद  बड़े पैमाने पर सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों से लेकर यूक्रेन में युद्ध और जलवायु परिवर्तन के बाद,नब्बे प्रतिशत से अधिक देशों ने अपने मानव विकास सूचकांक में गिरावट देखी है।कई देश गतिरोध में हैं या मानव विकास की श्रेणी में आ रहे हैं।  फिलीपींस और वेनेजुएला जैसी उच्च एचडीआई अर्थव्यवस्थाएं मध्यम विकास श्रेणी में आ गई हैं।  लैटिन अमेरिका, कैरिबियन, उप-सहारा अफ्रीका और दक्षिण एशिया को भारी नुकसान हुआ है। रिपोर्ट में यह भी देखा गया है कि 60 प्रतिशत से अधिक निम्न और मध्यम मानव विकास सूचकांक और उच्च मानव विकास सूचकांक देशों में गिरावट आई है।  191 देशों की रैंकिंग में स्विट्जरलैंड 0.962 के मान के साथ पहले स्थान पर है। नॉर्वे 0.961 के मान के साथ दूसरे स्थान पर है, जबकि आइसलैंड 0.959 के मान के साथ तीसरे स्थान पर है।  मानव विकास सूचकांक में चीन 79वें स्थान पर है, जबकि भूटान 127वें स्थान पर है। पाकिस्तान 161वें, बांग्लादेश 128वें और दक्षिण सूडान 191वें स्थान पर है।
भारत के मानव विकास सूचकांक की स्थिति में एक बार फिर गिरावट देखने को मिली है।  भारत को मध्यम मानव विकास देशों की रैंकिंग में शामिल किया गया है क्योंकि देश का मानव विकास स्कोर 2020 में 0.645 से गिरकर 2021-22 में 0.633 हो गया है। देश 191 देशों में 132वें स्थान पर है।  भारत में स्कूली शिक्षा का अपेक्षित वर्ष 11.9 वर्ष है, जबकि औसत वर्ष 6.7 वर्ष है।  रिपोर्ट में प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय स्तर 6,590 डॉलर (5.25 लाख रुपये) दिखाया गया है।हालांकि भारत लिंग विकास सूचकांक में 132वें स्थान पर है, लेकिन महिलाओं की जीवन प्रत्याशा 2020 में 71 वर्ष से घटकर 2021-22 में 68.8 वर्ष हो गई है।  दिलचस्प बात यह है कि भारतीयों की औसत जीवन प्रत्याशा पिछले साल के 69.7 साल से घटकर अब 67.2 साल हो गई है। भारत बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) में 27.9 प्रतिशत के समग्र अनुपात के साथ 0.123 अंक प्राप्त करता है, जबकि 8.8 प्रतिशत जनसंख्या गंभीर बहुआयामी गरीबी के अधीन है।  रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत ने पिछले एक दशक में 271 मिलियन लोगों को बहुआयामी गरीबी से बाहर निकाला है।
हालांकि भारत ने दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान चलाकर और सामाजिक सुरक्षा को बढ़ावा देकर इस क्षेत्र में नेतृत्व किया है, लेकिन देश का एचडीआई मूल्य, जो 1990 के दशक में 1.2 प्रतिशत के वार्षिक औसत से बढ़कर पहले दशक में 1.6 प्रतिशत हो गया था,  जितना की 2010-21 में  0.9 प्रतिशत गिर गया है। हालांकि, इसी अवधि में भारत के पड़ोसियों में बांग्लादेश के एचडीआई मूल्यों में 1.64 प्रतिशत, भूटान में 1.25 प्रतिशत, चीन में 0.97 प्रतिशत और नेपाल में 0.94 प्रतिशत का सुधार देखा गया। इसके अलावा, जबकि स्कूली शिक्षा के औसत वर्षों में वृद्धि, जो पहले दो दशकों में आधी हो गई थी, 2010 के बाद से मामूली सुधार हुआ है, अब यह महामारी के दौरान धीमा हो गया है। स्कूली शिक्षा के अपेक्षित और औसत वर्षों में गिरावट और ठहराव का लंबे समय में उत्पादकता और आय वृद्धि पर गंभीर प्रभाव पड़ता है।  साथ ही, असमानता देश के सामने मुख्य चुनौती है और यह आर्थिक विकास के लिए हत्यारा है।  हाल ही में सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की यूथ इन इंडिया 2022 रिपोर्ट ने भविष्यवाणी की है कि 2021-36 के दौरान जनसंख्या में युवाओं की हिस्सेदारी घटेगी और बुजुर्गों की हिस्सेदारी बढ़ेगी।  इसे ध्यान में रखते हुए, व्यापक सामाजिक सुरक्षा और पेंशन प्रणाली की स्थिरता में सुधार के लिए सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल और दीर्घकालिक रणनीति महत्वपूर्ण होगी।
1990 में प्रकाशित पहली मानव विकास रिपोर्ट ने घोषित किया कि 'लोग राष्ट्रों की सच्ची संपत्ति हैं'।  यह इस भूमिका से है कि संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम अपनी मानव विकास रिपोर्ट का मार्गदर्शन करता है।लेकिन इसका संदेश और अर्थ समय के साथ और समृद्ध होता गया है। लेकिन दुनिया के अधिकांश देश अभी भी अपने कुल स्वास्थ्य बजट का दो प्रतिशत से भी कम लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं।  इसलिए, वैश्विक स्तर पर नागरिकों के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की समस्या का सामना करना पड़ रहा है। इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है कि दुनिया भर में अरबों लोग पिछले दो सालों से मानसिक विकारों जैसे तनाव, उदासी और चिंता से जूझ रहे हैं।  तदनुसार, पूरी दुनिया ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्देशित सास्वत विकास के लिए 2030 एजेंडा के सख्त कार्यान्वयन और पेरिस समझौते की महत्वपूर्ण वार्ता पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता को रेखांकित किया है। इन कारकों को ध्यान में रखते हुए, यह रिपोर्ट आज उभरी अनिश्चितता, असमानता और असुरक्षा पर काबू पाने पर केंद्रित है।  अधिक आशाजनक भविष्य के लिए, हमें लोगों के अवसरों और विकल्पों पर ध्यान देना होगा और अर्थव्यवस्था की समृद्धि के बजाय मानव जीवन की समृद्धि सुनिश्चित करनी होगी। इसके लिए, दुनिया को वैश्विक पक्षाघात से आगे बढ़ना चाहिए और हमारी आम और परस्पर जुड़ी चुनौतियों का समाधान करने के लिए मानव विकास को बढ़ावा देने के लिए नवीन रणनीतियों के योजना के बारे में  आवश्यक निवेश पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।  वास्तव में, रिपोर्ट बताती है कि यह निरंतर मानव समृद्धि का मार्ग है। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, मुक्त पत्रकार



बुधवार, 21 सितंबर 2022

तकनीक के हाथ में युद्ध के सूत्र


21वीं सदी के मध्य तक रक्षा प्रौद्योगिकी में कई बड़े बदलाव होंगे।  इसे देखते हुए प्रौद्योगिकी का विकास एक सतत प्रक्रिया है और विभिन्न क्षेत्रों में हुए परिवर्तनों के पीछे प्रौद्योगिकी में सुधार है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी किसी देश के आर्थिक और सामाजिक विकास में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं।  यह कहना गलत नहीं होगा कि तकनीक वर्तमान आधुनिक दुनिया के हाथ में है।  ये सभी कारक थोड़े अधिक परिवर्तन के साथ सभी कारकों को प्रभावित कर सकते हैं।  रक्षा क्षेत्र कोई अपवाद नहीं है। अगले दो से तीन दशकों में रक्षा क्षेत्र पर इस तकनीकी परिवर्तन के वास्तव में क्या प्रभाव होगा, और उसका अध्ययन करना दिलचस्प होगा।  यही रक्षा तकनीक भविष्य के युद्ध की दिशा तय करेगी।

हम देख सकते हैं कि प्रथम विश्व युद्ध के बाद से रक्षा क्षेत्र तकनीकी विकास में सबसे आगे रहा है।  ऐसा प्रतीत होता है कि बहुत से तकनीकी अनुसंधान पहले सैन्य मोर्चे पर हुए और फिर नागरिक जीवन में प्रवेश किया। (जैसे: कंप्यूटर, इंटरनेट, जीपीएस, आदि) शीत युद्ध के बाद, दुनिया के कई हिस्सों में बड़े सामाजिक परिवर्तन देखे गए।  वैश्वीकरण और उदारीकरण की प्रक्रिया का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर बड़ा प्रभाव पड़ा है।  अब तकनीकी विकास की प्रगति सैन्य जरूरतों पर निर्भर नहीं रह गई है।
वर्तमान में यह देखा जा रहा है कि बाजारों की जरूरतों से नए शोध सामने आ रहे हैं।  अब वही तेजी से विकसित हो रही नई प्रौद्योगिकियां वाणिज्यिक अर्थव्यवस्था में भी प्रवेश करती दिखाई दे रही हैं।  यही बदलाव रक्षा क्षेत्र पर भी दूरगामी प्रभाव डालता दिख रहा है।  वर्तमान समय में आधुनिक समय में देश की तकनीकी ताकत और श्रेष्ठता की अवधारणाओं ने सत्ता की राजनीति में बहुत महत्व प्राप्त कर लिया है। नई प्रौद्योगिकियों के आगमन ने मौजूदा रक्षा संरचनाओं में प्रमुख अभिसरण देखा है।  इसके लिए हम केवल डिजिटल फोटोग्राफी के उदाहरण पर विचार करें।  फिलहाल यह तकनीक स्मार्टफोन में भी उपलब्ध है।  इस तकनीक के आगमन ने फिल्म (टेप) की आवश्यकता को समाप्त कर दिया है।  (ऐसा प्रतीत होता है कि कोडक फिल्म अब व्यवसाय से बाहर हो गई है।) इस घटना को एक प्रमुख तकनीकी परिवर्तन के रूप में माना जाना चाहिए।  अगले दो से तीन दशकों में इसी तर्ज पर बड़े तकनीकी परिवर्तन होंगे।  यह अनुसंधान का शिखर होगा। दुनिया वर्तमान में चौथी औद्योगिक क्रांति (उद्योग 4.0) के शिखर पर खड़ी है।  एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता साइबर-भौतिक प्रणालियों का व्यापक उपयोग है।
'इंटेलिजेंट नेटवर्क सिस्टम्स' में एक नए युग की शुरुआत हुई है।  बिग डेटा एनालिटिक्स, इंटरनेट ऑफ थिंग्स (आई ओ टी), क्लाउड कंप्यूटिंग, 3D प्रिंटिंग, ऑटोनॉमस वेपन्स, ड्रोन और रोबोटिक्स, बायोटेक्नोलॉजी, एनर्जी टेक्नोलॉजी नागरिक और सैन्य दोनों मोर्चों पर प्रभाव डालते हुए दिखाई दे रहे हैं।  उद्योग 4.0 के मूलभूत पहलुओं में डिजिटल, भौतिक और जैविक प्रौद्योगिकियां शामिल होंगी। भविष्य के युद्धक्षेत्र संचालन नई विकसित तकनीक के माध्यम से किया जाएगा।यह तकनीक सैन्य इकाइयों  की मदद में होगी।  यह भी माना जा रहा है कि रोबोट सेना में जनशक्ति की जगह लेंगे।  स्मार्ट सेंसर, स्मार्ट हथियार, हाई-टेक हथियार जो वर्दी की तरह शरीर पर पहने जा सकते हैं, भविष्य के युद्ध का रूप होंगे। सैन्य प्रणालियों के पास ऐसी प्रौद्योगिकियां होंगी, जिनके माध्यम से रिमोट सेंसिंग, संचार, विभिन्न संगठनों के बीच  और युद्ध के मैदान पर लड़ाकों के बीच समन्वय रखकर बहुआयामी कार्यों को अंजाम दिया जा सकता है।  कुछ उपकरण के माध्यम से निर्णय भी ले लिया जायेगा।  वे फैसले युद्ध के मैदान में लड़ने वालों के लिए  मार्गदर्शक होंगे।
भविष्य में युद्ध की रणनीति तय करने का कार्य मनुष्य और मशीन दोनों के माध्यम से किया जाएगा।  वास्तव में यह कहना गलत नहीं होगा कि इन सभी प्रक्रियाओं में मशीनों का ही वर्चस्व होगा। भविष्य के युद्ध में स्मार्ट सेंसर, अत्याधुनिक गोला-बारूद, हथियारों के परिवहन के लिए अत्याधुनिक सिस्टम, रोबोटिक सिस्टम, मानवयुक्त उपकरण शामिल होंगे।  अभी जिस तकनीक पर सबसे ज्यादा ध्यान जा रहा है वह है आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई)।  'एआई' की बदौलत मशीनें बेहतर तरीके से काम कर सकती हैं। यह अनूठी तकनीक सेंसिंग, इंटेलिजेंस, मैकेनिकल ऑटोमेशन, ऑटोनॉमस वेपन सिस्टम, हाइब्रिड सिस्टम और बड़े के साथ ही छोटे डेटा उत्पादों को समायोजित कर सकती है।  इस 'एआई' की एक और विशेषता यह है कि यह अपने आप नई चीजों को अपनाता है और इसके लिए बेहतर एल्गोरिदम का उपयोग करता है, जिससे 'सेल्फ-प्रोग्राम' करना आसान हो जाता है। यह तकनीक आपात स्थिति के दौरान विभिन्न चुनौतियों का सामना करने के लिए सेना को कई क्षमताओं को विकसित करने में सक्षम बनाती है।  यह न केवल काम की गति को बढ़ाता है;  लेकिन साथ ही निर्णय लेने की प्रक्रिया भी तेज होती दिख रही है। यह सब 'रियल टाइम' के आधार पर था।  इसी तकनीक का उपयोग सैन्य प्रशिक्षण, परिवहन और सहायक कार्यों के समग्र मूल्यांकन और प्रबंधन के लिए भी किया जा सकता है।

यूक्रेन युद्ध में रूस ने हाइपरसोनिक हथियारों का इस्तेमाल किया है।  इस प्रयोग का मकसद दुश्मन को अपनी ताकत दिखाना था।  ये अनोखे हथियार परमाणु युद्ध की मौजूदा अवधारणा और इसके जवाबी उपायों को बदल देंगे। जब कोई मिसाइल मॅक 5 (एक मॅक ध्वनि की गति के बराबर होती है) से तेज यात्रा करती है, तो मिसाइल हाइपरसोनिक श्रेणी में आती है।  ये मिसाइलें मौजूदा मिसाइल सिस्टम (थाड, एस-400 आदि) को अप्रचलित कर देंगी। ये हाइपरसोनिक हथियार ही वर्तमान परमाणु निवारक (डिटरंट) अवधारणा को चुनौती दे सकते हैं।  हालांकि रूस ने अब इस मिसाइल की क्षमताओं का प्रदर्शन कर लिया है, लेकिन रूस को इस तकनीक को पूरी तरह से चालू करने में अभी भी कुछ समय लगेगा।  चीन और अमेरिका जैसे देशों को भी कुछ साल और लगेंगे। अब ये देश भविष्य के उन्नत हथियारों के विकास में भी भारी निवेश कर रहे हैं, जिनमें उच्च शक्ति वाले माइक्रोवेव, रेल बंदूकें और 'पार्टिकल क्लाउड्स’' शामिल हैं जो उच्च गति वाले विमानों को रोक सकते हैं। इस उन्नत हथियार प्रणाली को प्रमुख देशों के लिए उपलब्ध होने में एक दशक से अधिक समय लग सकता है।  एक और तकनीक जो भविष्य के युद्ध को प्रभावित कर सकती है वह है 3डी प्रिंटिंग।  इस तकनीक के माध्यम से प्लास्टिक, धातु, पॉलीमर और अन्य सामग्रियों का उपयोग करके त्रि-आयामी संरचनाएं बनाई जा सकती हैं। इस तकनीक के कारण, निर्माण की पारंपरिक प्रक्रिया को चुनौती दी गई है।  यह तकनीक, पूर्ण होने पर, मौजूदा सैन्य योजना और हथियारों के निर्माण का चेहरा बदल देगी।  सेना के लिए आर्थिक प्रावधान में भी बड़ी कटौती होगी। ये नई प्रौद्योगिकियां पुराने को विस्थापित करने के लिए तीव्र गति से विकसित हो रही हैं, और सैन्य प्रणालियों को और अधिक सक्षम होने में दशकों लगेंगे।  2040-50 में युद्ध का चेहरा ही बदल जाएगा और ये परिवर्तन प्रकृति में क्रांतिकारी होंगे
-अमेय लेले  (अनुवाद :मच्छिंद्र ऐनापुरे)

मंगलवार, 20 सितंबर 2022

शहरी-ग्रामीण असमानता को दूर करना एक बड़ी चुनौती


भारत अपनी उच्चतम विकास दर के कारण दुनिया का ध्यान आकर्षित करता है, लेकिन शहरी-ग्रामीण असंतुलन को दूर करना और असमानता के अंतर को कम करना प्रमुख चुनौतियां हैं।  शहरीकरण की मौजूदा प्रवृत्ति को देखते हुए 2045 तक 'ग्रामीण-शहरी' आबादी 50:50 हो जाएगी।  इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए गांवों के विकास और उन्हें नागरिक सुविधाओं के प्रावधान की योजना बनाई जानी चाहिए।नहीं तो शहर और भी बढ़ेंगे।  शहरी क्षेत्रों में बढ़ती आबादी की तुलना में शहरी बुनियादी ढांचे की वास्तविक कमतरता है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह या तो अनुपस्थित है या खराब स्थिति में है।  अगर इस तस्वीर को नहीं बदला गया तो कई नई सामाजिक-आर्थिक समस्याएं खड़ी हो जाएंगी।

 भारत में 773 जिलों में छह लाख 28 हजार 221 गांव हैं।  इनमें नीति आयोग द्वारा वर्गीकृत 117 सबसे कम विकसित जिले हैं;  जो मानव जीवन सूचकांक के विभिन्न मानकों में काफी पीछे है।  इसका मतलब है कि इन जिलों में जीवन स्तर संयुक्त राष्ट्र द्वारा परिभाषित 17 शास्वत विकास लक्ष्यों से कम है। इनमें मुख्य रूप से अच्छा स्वास्थ्य, पेयजल, स्वच्छता, पर्यावरण, शिक्षा, गरीबी, अन्न, लैंगिक समानता, सभ्य कार्य, सभी के लिए शांति और न्याय शामिल हैं।  इन मानकों को प्राप्त किया जा सकता है यदि इन जिलों के सभी कस्बों और गांवों को पर्याप्त बुनियादी ढांचा प्रदान किया जाए।इन जिलों के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में भी काफी काम करने की जरूरत है।  केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और कॉरपोरेट सेक्टर इन जिलों को 'कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी' के जरिए अधिक संसाधन आवंटित कर रहे हैं। महाराष्ट्र के विभिन्न शहरों और गांवों में नागरिक सुविधाओं जैसे पानी, स्वच्छता स्वास्थ्य, शिक्षा आदि की स्थिति संतोषजनक नहीं है। देश के बाकी जिलों में भी यही हाल है। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, गुजरात, बिहार, असम, ओडिशा, कर्नाटक, केरल और पश्चिम बंगाल सहित कई अन्य राज्यों में महाराष्ट्र की तुलना में बेहतर ग्रामीण बुनियादी ढांचा है।  यह निश्चित रूप से महाराष्ट्र के लोगों के लिए संतोषजनक नहीं है।  पहले तो गांव में सड़कें नहीं हैं और जो हैं वह गड्ढों से भरे हैं। अनिश्चित बिजली या पूर्ण अंधकार, शौचालय नहीं, जहां शौचालय हैं लेकिन पानी नहीं है और खुले में शौच अभी भी जारी है।  स्कूलों और स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति भी संतोषजनक नहीं है।  राष्ट्रीय या राज्य राजमार्गों पर स्थित गांवों की स्थिति कुछ बेहतर है, लेकिन दूरदराज के इलाकों की स्थिति दयनीय है। इस सब के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन स्तर का स्तर शहरी क्षेत्रों की तुलना में बहुत कम है।रोजगार के अवसर कम हैं।  कृषि, डेयरी, मुर्गी पालन और संबद्ध गतिविधियों को छोड़कर ग्रामीण क्षेत्र ज्यादा रोजगार पैदा नहीं करते हैं।  इसके अलावा कृषि उपज के भंडारण के लिए कोल्ड स्टोरेज और गोदाम की सुविधा भी अपर्याप्त है।

नतीजतन, शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी का स्तर बहुत अधिक है।  यदि ग्रामीण विकास की यही नीतियां अगले 20 वर्षों में जारी रहीं, तो एक समय ऐसा आएगा जब कोई भी युवा गांवों में रहने को तैयार नहीं होगा।  और इससे ग्रामीण आबादी का शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन हो सकता है। बढ़ती आबादी से शहरी आधारभूत संरचना प्रभावित होगी और बढ़ते पलायन के कारण शहर ढह सकते हैं।  इसलिए, शहरी क्षेत्रों को पूर्ण नागरिक सुविधाओं, कुशल सार्वजनिक परिवहन, व्यापक गड्ढों से मुक्त सड़कों और बड़े पैमाने पर आवास आदि के साथ संपूर्ण शहरी नियोजन की आवश्यकता होती है।

 गांवों में बुनियादी ढांचे के विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी।  यदि कम से कम 25-30 वर्षों की योजना बनाकर इस समस्या का समाधान नहीं किया गया, तो ग्रामीण क्षेत्रों में केवल गरीब और अशिक्षित खेत मजदूर होंगे, जबकि जिनके पास संसाधन हैं वे शिक्षा के लिए शहरों में बस जाएंगे। इससे सामाजिक-आर्थिक समस्याएं पैदा होंगी।  शहरी शिक्षित लड़की ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले लड़के से शादी करने या ग्रामीण क्षेत्र में काम करने के लिए तैयार नहीं है।  वास्तव में ग्रामीण क्षेत्र ने भारत को एक खाद्यान्न का अतिरिक्त देश बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और अब विश्व की भूख को संतुष्ट करने के लिए उन्हें निर्यात करने में सशक्त बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। लेकिन यह देखा जाना चाहिए कि ग्रामीण क्षेत्रों को केवल कृषि आधारित बनाने के लिए पर्याप्त नहीं है, बल्कि मानव जीवन सूचकांक के मामले में भी समग्र विकास हासिल किया जाएगा।

लोग हमेशा निजीकरण के खिलाफ टिप्पणी करते हैं और बदलाव लाने में सक्षम नहीं होने के लिए सरकारी मशीनरी को दोष देते हैं।  लेकिन यह दोहरेपन है।  जनता को ग्राम विकास के लिए निजी-सार्वजनिक भागीदारी (पीपीपी) मॉडल का स्वागत करना चाहिए।समुदाय आधारित सामाजिक बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में समुदाय को कार्यान्वयन, रखरखाव और संचालन में शामिल करना चाहिए और इसके रखरखाव की देखभाल के लिए टोल के रूप में न्यूनतम राशि का शुल्क लेना चाहिए। केवल लागत के बजाय निर्माण और विनिर्माण गुणवत्ता पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए।  एक स्वतंत्र ग्रामीण और शहरी आधारभूत संरचना आयोग को एक स्वायत्त निकाय के रूप में स्थापित किया जाना चाहिए जिसमें न्यूनतम या कोई राजनीतिक हस्तक्षेप न हो।  इसका मुख्यालय नई दिल्ली में होना चाहिए और सभी राज्यों की राजधानियों में स्थानीय कार्यकारी कार्यालय होंगे।  इस आयोग का काम पानी, सड़क, स्वच्छता, स्वास्थ्य देखभाल, कौशल विकास, ग्रामीण विकास और अन्य सामाजिक बुनियादी ढांचे के विचारों के क्षेत्र में सभी परियोजनाओं को शुरू करना, निगरानी करना, विनियमित करना और मूल्यांकन करना होगा। इस आयोग का कार्य विभिन्न केंद्र सरकारों, विभिन्न राज्य सरकारों, स्थानीय प्राधिकरणों, ग्राम पंचायतों, जिला परिषदों और कृषि, ग्रामीण विकास, केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों के लोक निर्माण विभागों जैसे विभागों के बीच धन और व्यय का समन्वय करना होगा। यह बुनियादी ढांचे के विकास में गुणवत्तापूर्ण परिणामों के साथ लंबे समय तक चलने वाले समन्वित और एकीकृत प्रयासों में मदद करेगा।  कहने की जरूरत नहीं है कि समुदाय की भागीदारी पर्याप्त रूप से सुनिश्चित की जानी चाहिए।  भारत को 'वैश्विक शक्ति केंद्र' बनने से कोई नहीं रोक सकता। समय आ गया है कि अगर भारत विकसित हुआ तो दुनिया चलती रहेगी।  हाल के पूर्वानुमानों के अनुसार, भारत इस वर्ष भी अनुकूल मानसून के कारण एक और रिकॉर्ड 31 करोड़  57 लाख  मीट्रिक टन कृषि उपज का उत्पादन कर सकता है।  विश्व शांति, स्थिरता और समृद्धि के लिए सभी की निगाहें भारत, भारतीय लोगों और भारतीय नेतृत्व पर हैं। भारत दुनिया के लिए एकमात्र आशा है शहरी-ग्रामीण जीवन के बीच की खाई को मिलाने के लिए एक स्वायत्त निकाय के रूप में एक अलग 'ग्रामीण और शहरी बुनियादी ढांचा आयोग' का गठन किया जाना चाहिए।  इसमें किसी भी तरह का राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।  शहरों और गांवों के बीच असंतुलन को खत्म करना सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती है। 













सोमवार, 19 सितंबर 2022

भारत के स्टार्टअप का दुनिया पर दबदबा!


लगभग तीन दशकों के अथक प्रयासों के बाद भारत स्टार्टअप क्षेत्र में अग्रणी बन गया है।  अमेरिका, चीन और इंग्लैंड के देशों के बाद, भारत ने इस क्षेत्र में कदम रखा और अब 70 हजार कंपनियों की ताकत के साथ और उनमें से लगभग सौ यूनिकॉर्न कंपनियां, यानी 100 करोड़ की शेयर पूंजी और स्व-निवेश क्षमता वाली कंपनियों की बढ़ती संख्या दुनिया की आंखें भरने लगे हैं।भारत इस क्षेत्र में इंग्लैंड को पछाड़ तीसरे स्थान पर पहुंच गया है।  उज्बेकिस्तान के समरकंद में शंघाई सहयोग सम्मेलन में बोलते हुए, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की शानदार सफलता की सराहना की और अन्य देशों के साथ इस क्षेत्र में भारत के अनुभव को साझा करने की इच्छा व्यक्त की।इस मौके पर उन्होंने दुनिया भर में पैदा हुई आपूर्ति श्रृंखला में भोजन की कमी और व्यवधान को दूर करने की उम्मीद जताई.  उन्होंने कहा कि विश्व अर्थव्यवस्था की तीव्र प्रगति के लिए यह सहयोग आवश्यक है।  जहां पूरी दुनिया में लोग भारी महंगाई से जूझ रहे हैं, वहीं भारत भी इससे अछूता नहीं रहा है। उन्होंने युद्ध जैसी स्थिति पैदा करने वाले देशों के सामने शांति का आह्वान किया, जब अस्तित्व आम आदमी की पहुंच से बाहर था।  जहां आम आदमी दुनिया में जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहा है, वहीं उपभोक्ताओं के लाभ के लिए काम करने वाले संगठन और संस्था बेकार बैठे हैं।  ऐसे समय में आवश्यक वस्तुओं की कमी हो जाती है और इससे आम आदमी की जेब पर भारी बोझ पड़ता है।

आज के हालात में दुनिया भर में आम लोग इस आग से जल रहे हैं.  दुनिया के कई हिस्सों में, आपूर्ति श्रृंखलाओं की कमी के कारण भुखमरी आसन्न है।  श्रीलंका जैसी स्थिति किसी भी देश में उत्पन्न हो सकती है।  सवाल यह है कि ऐसे समय में आम लोगों को कैसे रहना चाहिए।  भोजन, वस्त्र और आवास की बुनियादी जरूरतों के साथ-साथ रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जीवन के आवश्यक पहलू हैं। कोरोना काल के दौरान, यह दृढ़ता से महसूस किया गया था।  फिर, जैसे ही स्थिति में सुधार होता दिख रहा था, युद्ध के बादल छा गए और दुनिया भूख से मर रही है।  दुनिया इस झटके से अभी तक उबर नहीं पाई है।  ऐसे अनिश्चित वातावरण में कैसे रहें और रोजगार पाएं?  यह एक सामान्य प्रश्न है।  ऐसे समय में भारत में स्विगी जैसे फूड डिलीवरी स्टार्टअप्स ने अपने कर्मचारियों को उनके काम को प्रभावित किए बिना दूसरे काम करने की आजादी दी है।
जबकि समाज में एक स्वर है कि यह एक समझौता है क्योंकि मजदूर वास्तव में ऐसा काम करने के लिए उपलब्ध नहीं हैं, लोगों को जीवित रहने के लिए अतिरिक्त आय की भी आवश्यकता होती है और इसके लिए यह आशा की जाती है कि वे खाद्य आपूर्ति के इस काम को करने के इच्छुक होंगे।  मुश्किल समय में साथ काम करने का यह तरीका पुराना है।  प्रधानमंत्री भी इसी तरह दूसरे देशों के विकास के लिए स्टार्टअप कंपनियों की सफलता को साझा करने के लिए तैयार हैं। निवेशकों को चिंता है कि स्टार्टअप कंपनियों में उनका निवेश डूब तो नहीं जाएगा।  लेकिन भारत में 100 से ज्यादा स्टार्टअप्स की सफलता और उनकी यूनिकॉर्न कंपनियों में गिने जाने से दुनिया भारतीय कंपनियों की तरफ उत्सुकता से देख रही है।  2010 में विजय शेखर शर्मा द्वारा शुरू किया गया, पेटीएम नोटबंदी के बाद और कोरोना के दौरान बेहद लोकप्रिय हो गया।
ओयो, एक कंपनी जो सस्ते होटल कमरे प्रदान करती है, 2013 में रितेश अग्रवाल द्वारा शुरू की गई, बायजूस, दो साल पहले विजू रवींद्र द्वारा शुरू की गई, वीएस सुधाकर, 2011 में बेंगलुरु में एक किराना डिलीवरी व्यवसाय, और बिग बास्केट, एक पांच-पार्टनर की कंपनी, 2015 में ऑनलाइन शिक्षा के लिए शुरू की गई एक अकादमी, जितेंद्र गोयल और पंकज चड्डा द्वारा 2008 में स्थापित एक होटल-टू-होम फूड डिलीवरी कंपनी ज़ोमैटो, और 2014 में स्थापित स्विगी कंपनी  जो नंदन रेड्डी, श्रीहर्ष मेजेस्टी और राहुल जेमिनी द्वारा शुरू की गई थी, जिसने ज़ोमैटो को पीछे छोड़ दिया। ये भारत के कुछ सबसे लोकप्रिय स्टार्टअप हैं।  युवा उद्यमी युवाओं ने बुद्धि, कौशल और शत-प्रतिशत व्यावसायिकता का उपयोग करके इस व्यवसाय में छलांग लगाई है और अद्वितीय सफलता दिखाई है। स्विगी जैसी कंपनियों के लिए आज होटल व्यवसायियों ने बड़ी चुनौती पेश की है।  जहां कई होटल अपने होटलों के माध्यम से डोर-टू-डोर डिलीवरी और सस्ते भोजन की पेशकश करके स्विगी को चुनौती दे रहे हैं, वहीं स्विगी ने ड्रोन के साथ होम फूड डिलीवरी को सफल बनाने के लिए गरुड़ जैसी एव्हीएशन कंपनियों के साथ करार किया है।  इसके अलावा, उन्होंने अपनी वेबसाइट पर विभिन्न खाद्य पदार्थों और होटलों का विज्ञापन करके एक बड़ा व्यवसाय बनाने का अवसर भी पाया है।
ऐसी भारतीय कंपनियों के सामने लगातार आने वाली चुनौतियों से पार पाकर अपनी विशिष्टता साबित करने के बारे में उत्सुक होना स्वाभाविक है।  एक ऐसे देश में जहां उच्च शिक्षा और उच्च वेतन वाली नौकरियां हासिल करना लक्ष्य था, यह एक अनोखी घटना है कि आम भारतीय युवाओं में अपनी शिक्षा का उपयोग खुद उद्यमी बनने के लिए करने का दृढ़ संकल्प है। सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जहां स्टीव जॉब्स, मार्क जुकरबर्ग, बिल गेट्स जैसे विदेशी सफल उद्यमी युवाओं को प्रेरणा दे रहे हैं, वहीं भारत में सामान्य परिवारों के युवा भी इसी तरह के प्रेरणादायी कार्य करते हुए आगे आ रहे हैं और उनकी कंपनियों पर जगह जगह अध्ययन किया जा रहा है।  यह सराहना का विषय है। आज की परिस्थितीयों में दुनिया को बचाने के लिए इन लोगों  जीवनी अगर प्रेरणा बन जाए तो यह भारत के लिए भी गौरव की बात होगी। 





रविवार, 18 सितंबर 2022

पर्यावरण जागरूकता बढ़ाने का प्रयास


हाल ही में प्रकाशित पर्यावरण आकलन सूचकांक में भारत की रैंकिंग गिर गई है।  भारत दुनिया के सबसे खराब पर्यावरणीय स्वास्थ्य वाले देशों में से एक है।  देश 2020 के पर्यावरण आकलन सूचकांक सर्वेक्षण में 168 वें स्थान से गिरकर इस वर्ष के सर्वेक्षण में 18.9 के स्कोर के साथ 180 वें स्थान पर आ गया है। अपशिष्ट प्रबंधन में समग्र रैंकिंग के अलावा, इसने जैव विविधता, वायु गुणवत्ता, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण, कानून के शासन और सरकारी प्रभावशीलता जैसी सभी श्रेणियों में खराब प्रदर्शन किया है।  बेशक, इस स्थिति को बिल्कुल भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।  इस संदर्भ में रिपोर्ट की टिप्पणियों को समझना अनिवार्य है।

दुनिया के विभिन्न देशों की पर्यावरण संवर्धन और संरक्षण के संबंध में पर्यावरण आकलन सूचकांक के आधार पर पर्यावरणीय स्वास्थ्य के मामले में क्रमवारी लगाई जाती है।  इंडेक्स को पहली बार 2002 में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम द्वारा पर्यावरण कानून और नीति के लिए येल सेंटर फॉर एन्व्हायर्न्मेंटल लॉ अँड और कोलंबिया यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर इंटरनेशनल अर्थ इंफॉर्मेशन नेटवर्क के सहयोग से पर्यावरण स्थिरता सूचकांक के रूप में लॉन्च किया गया था। इस वर्ष का सूचकांक पर्यावरणीय स्थिरता के 40 संकेतकों पर आधारित है, जिसमें पर्यावरणीय सुदृढ़ता, वायु गुणवत्ता, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन में दक्षता, सार्वजनिक स्वच्छता और स्वच्छ पेयजल, और पारिस्थितिकी तंत्र दक्षता इसके तहत हर दो साल में 11 मानदंडों के आधार पर इसे मापा जाता है जैसे जीवों का निवास स्थान, जैव विविधता, विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों द्वारा प्रदान की जाने वाली विभिन्न प्रकार की सेवाएं, जल संसाधन, मत्स्य पालन, ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन, प्रदूषकों का उत्सर्जन आदि। वास्तव में, रिपोर्ट दुनिया भर के लगभग 180 देशों के लिए 0-100 के पैमाने पर पर्यावरणीय स्वास्थ्य, पारिस्थितिकी तंत्र स्थिरता और जलवायु परिवर्तन इस तीन प्रमुख सूचकांकों में सबसे खराब से सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के आधार एक स्थिरता स्कोरकार्ड प्रदान करती है

डेनमार्क पर्यावरण आकलन सूचकांक 2022 में 77.9 के स्कोर के साथ शीर्ष पर है।  उसके बाद ब्रिटेन 77.7 अंकों के साथ दूसरे और फिनलैंड 76.5 अंकों के साथ तीसरे स्थान पर है।  180 देशों की रैंकिंग में भारत ने सबसे कम 18.9 अंकों के साथ स्कोर किया।  यहां तक ​​कि बांग्लादेश, म्यांमार, पाकिस्तान और वियतनाम जैसे पड़ोसियों ने भी भारत से बेहतर प्रदर्शन किया है। दुर्भाग्य से, पर्यावरणीय स्थिरता पर देश की आर्थिक विकास की प्राथमिकता ने वायु गुणवत्ता को खतरनाक बना दिया है, और तेजी से बढ़ते ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन ने देश को पहली बार क्षेत्रीय और विश्व स्तर पर लगभग सभी श्रेणियों में नीचे या अंतिम स्थान पर धकेल दिया है। 12.9 उच्चतम स्कोर और 151वीं रैंक के साथ अपशिष्ट प्रबंधन को छोड़कर सभी श्रेणियों में खराब प्रदर्शन, 5.8 अंकों के साथ जैव विविधता में खराब प्रदर्शन और 7.8 अंकों के साथ वायु गुणवत्ता में 179 वीं रैंक।  वास्तव में, रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत पर्यावरण स्वास्थ्य और पारिस्थितिकी तंत्र स्थिरता में 178 वें और जलवायु परिवर्तन मानदंड में 165 वें स्थान पर है।

एक स्वस्थ परिस्थितिकी मानव और पर्यावरण की भलाई के लिए एक महत्वपूर्ण शर्त है।  जंगलों, घास के मैदानों और पाणथळ प्रदेश,  ज्ञात जीवों और वनस्पतियों आदि और अन्य 80 प्रतिशत से अधिक लिए पारिस्थितिकी तंत्र भी प्रदान करता है। साथ में, यह दुनिया भर में 1.6 मिलियन लोगों को भोजन, आश्रय, स्वच्छ हवा, पानी, ऊर्जा, दवा, आय आदि के माध्यम से सालाना लगभग 16.2 ट्रिलियन डॉलर की सेवाएं प्रदान करता है।  जैव विविधता और पारिस्थितिक तंत्र को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष आर्थिक लाभों का संयुक्त मूल्य 125 ट्रिलियन डॉलर होने का अनुमान है। लेकिन पिछले दो दशकों में, पर्यावरण में अंधाधुंध मानवीय हस्तक्षेप ने वैश्विक जैव विविधता को नुकसान पहुंचाया है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 900 मिलियन लोगों की खाद्य सुरक्षा और स्वास्थ्य प्रणालियों को खतरा है। रिपोर्ट के अनुसार, मानव गतिविधियों में वृद्धि के कारण कई प्राकृतिक आवास आज खतरे में हैं, और आने वाले दशकों में अनुमानित दस लाख प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा है।  यह चेतावनी की घंटी है।

विकासशील देश ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए 2050 तक शुद्ध शून्य प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन का महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया है।  एक तरफ, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की है कि भारत नवंबर में ग्लासगो में एक शिखर सम्मेलन में 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में एक अरब टन की कमी करेगा। दूसरी ओर, अनियोजित औद्योगीकरण के साथ-साथ अप्रतिबंधित शहरीकरण, बड़े पैमाने पर पूंजी-केंद्रित बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के कारण, अराजक जीवन शैली के कारण पर्यावरणीय गिरावट तेजी से बढ़ रही है।  इसके अलावा, कई संरक्षित जैव-समृद्ध क्षेत्रों जैसे पश्चिमी घाट और अन्य संरक्षित जैव-समृद्ध क्षेत्रों, समुद्री तट को औद्योगिक परियोजनाओं से खतरा है।साथ ही, औद्योगीकृत रिफाइनरी परियोजनाओं, जीवाश्म ईंधन के बढ़ते उपयोग और कृषि-रासायनिक कुप्रबंधन के कारण वायु, जल और भूमि एक अभूतपूर्व दर से प्रदूषित हो रही है।  प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास जैव विविधता पर भारी असर डाल रहा है, और तस्वीर यह है कि अक्षुण्ण जीवन गंभीर परिणामों का सामना कर रहा है। कानून अक्सर पर्यावरण संवर्धन और संरक्षण के दृष्टिकोण से बनाए जाते थे।  लेकिन उनके कार्यान्वयन का स्तर बहुत पीछे  है, ये साबित हुआ है।

डेनमार्क और यूनाइटेड किंगडम, फ़िनलैंड जैसे कुछ देशों के 2050 तक अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन नियंत्रण लक्ष्य तक पहुंचने की उम्मीद है।  जबकि चीन, भारत, अमेरिका, रूस जैसे अन्य देशों में अंधाधुंध योजना के कारण बड़ी मात्रा में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन तेजी से बढ़ रहा है और रिपोर्ट के अनुसार ये देश 2050 तक लगभग 80 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार होंगे। आज, कई समृद्ध देश बेहतर पेयजल और अपशिष्ट जल उपचार, प्रदूषण नियंत्रण प्रौद्योगिकियों और हरित ऊर्जा संसाधन प्रबंधन जैसे नागरिक बुनियादी ढांचे में अनुसंधान के उच्च स्तर के माध्यम से आवश्यक निवेश के माध्यम से सतत विकास के समृद्ध पथ को अपना रहे हैं।  दुर्भाग्य से, हम इस संबंध में अत्यंत उदासीन प्रतीत होते हैं।

 हमारी विविध पर्यावरणीय स्थिति के पुनर्वास के लिए सामाजिक-पारिस्थितिक तंत्र को मजबूत करना होगा।  जैसा कि रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है, हवा और पानी की गुणवत्ता, जैव विविधता और जलवायु परिवर्तन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्राथमिकता के साथ आवश्यक सुधार वांछनीय होंगे, जिसके लिए कार्बन उत्सर्जन में तत्काल कमी की आवश्यकता होगी। इसके लिए दीर्घकालीन व्यापक लक्ष्य नीतियों, उच्च स्तर के अनुसंधान और निवेश के आधार पर स्वच्छ हवा, भोजन, आश्रय, पानी और स्वच्छ ऊर्जा जैसे प्राकृतिक संसाधनों का पर्याप्त उपयोग अक्षुण्ण सृजन की आजीविका को बनाए रखना होगा। बेशक, नीति निर्माताओं, शोधकर्ताओं, आम नागरिकों, गैर सरकारी संगठनों और समग्र रूप से समाज की पर्यावरण जागरूकता बढ़ाने के लिए सभी स्तरों पर प्रयास किए जाने चाहिए। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, जत जिला सांगली








शनिवार, 17 सितंबर 2022

विपक्ष का अंकुश कमजोर, लोकतंत्र फेल


इस वर्ष हम स्वतंत्रता के अमृत का उत्सव मना रहे हैं।  ऐसे में अगर हम भारतीय लोकतंत्र के बारे में अंदर से सोचें तो यह महसूस किया जाता है कि भारत में लोकतंत्र भले ही काफी स्थिर है, लेकिन मजबूत और प्रगल्भ के विशेषणों को लागू करते समय मन में शंका उत्पन्न होती है।इसकी एक अहम वजह यह भी है कि 75 साल के सफर में अक्सर कोई कड़ा विरोध नहीं होता था।  एक स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था में 'विपक्षी दल' तत्व का विशेष महत्व है।  कुछ छोटे-छोटे अपवादों को छोड़कर हमारे देश में 1952 से लेकर आज तक यह फैक्टर कमजोर बना हुआ है।  यह आज बहुत स्पष्ट दिख रहा है।अब सभी महत्वपूर्ण राजनीतिक दल 2024 में लोकसभा चुनाव की तैयारी करते दिख रहे हैं।पिछले हफ्ते दिल्ली के रामलीला मैदान में कांग्रेस पार्टी द्वारा आयोजित जनसभा और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की दिल्ली में महत्वपूर्ण राजनीतिक नेताओं के साथ बैठक से यह बात सामने आ रही है। बीजेपी के बारे में क्या बात करें?  यह पार्टी 24 गुणा 7 चुनाव लड़ने की मानसिकता में है।  इन सभी घटनाओं को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगला लोकसभा चुनाव बेहद कड़ा होगा।  2019 की लोकसभा चुनाव काफी हद तक एकतरफा थी।

ऐसा लगता है कि आगामी लोकसभा चुनाव  2019 जैसा नहीं होगा।  इसके लिए कुछ कारण हैं।  एक तो यह कि नीतीश कुमार जैसा दबंग नेता अब बीजेपी विरोधी मोर्चा बनाने की पहल कर रहा है.  दूसरी बात, अब राहुल गांधी भी व्यस्त होते दिख रहे हैं।  तीसरा, 2024 में जब भाजपा मतदाताओं के सामने जाएगी तो उसके पीछे दस साल के शासन का भलाबुरा अनुभव होगा।  मोदी सरकार को 2014 से 2024 के बीच देश के लिए किए गए कामों का हिसाब देना होगा. संवैधानिक निर्माताओं ने सरकार की राष्ट्रपति प्रणाली के बजाय सरकार की संसदीय प्रणाली को जानबूझकर अपनाया।  तदनुसार, पहले आम चुनाव 1952 में हुए थे और अब 2024 में आगामी चुनाव कराने की तैयारी चल रही है।  चाहे दक्षिण एशिया में हों या अफ्रीका/लैटिन अमेरिका में, चुनाव आमतौर पर भारत जैसे सुसंगत और निष्पक्ष वातावरण में नहीं होते हैं।  शुरुआती सालों में हुए लोकसभा चुनाव के आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि संसद में विपक्षी दलों के सांसदों की संख्या न के बराबर थी.1952 में अस्तित्व में आई पहली लोकसभा में, कुल 499 सांसदों में से, कांग्रेस के पास 364 सांसद थे जबकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 16 सीटों के साथ दूसरे स्थान पर थी।  इसका सीधा सा मतलब है कि नेहरू सरकार जो चाहे कानून पारित कर सकती थी।  यदि हम उस समय लोकसभा में दलों की ताकत पर नजर डालें तो यह देखा जा सकता है कि नेहरू सरकार को विपक्षी दलों के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचना पड़ा।  लेकिन नेहरू खुद लोकतंत्र के प्रेमी थे।  इसलिए, यह तथ्य कि वे विपक्षी दलों के साथ सम्मान से पेश आ रहे थे, यह अलग बात है।

 संख्या के मामले में विपक्षी दल बहुत कमजोर थे।1957 के चुनावों में भी यही स्थिति थी।  कुल 505 सांसदों में से 371 कांग्रेस के और 27 कम्युनिस्ट पार्टी के थे।  1962 में कुल 508 सांसदों में से कांग्रेस के 361 सांसद थे और कम्युनिस्टों के 29 सांसद थे।  ऐसे में विपक्षी दल सत्ताधारी दल पर अंकुश लगाने की अहम जिम्मेदारी नहीं निभा सका।  उस समय विपक्षी दलों के नेता सरकार को परेशान करने वाले सवाल पूछकर लोकसभा में विद्वतापूर्ण भाषण दे रहे थे।  लेकिन विपक्षी दलों के सांसदों की संख्या इतनी जुजबी होती थी कि सरकार की स्थिरता पर कभी सवाल नहीं उठाया गया। इस वजह से उस समय पश्चिमी विद्वान यह सवाल पूछते थे कि भारत में चुनाव क्यों होते हैं।  अगर चुनाव हो भी गए तो कांग्रेस पार्टी जीत जाएगी और पंडित नेहरू प्रधानमंत्री बन जाएंगे, फिर चुनाव कराने की जहमत क्यों उठाई?  इन तीखे सवालों का कोई अंत नहीं था। मार्च 1977 में, जब कांग्रेस की हार हुई और जनता पार्टी की सरकार सत्ता में आई, तो पश्चिमी विद्वानों ने कहा कि "अब भारत में लोकतांत्रिक संस्कृति जड़ें जमाने लगी है।" दुर्भाग्य से भारतीय लोकतंत्र के लिए जनता पार्टी की सरकार केवल 22 महीनों में गिर गई और एक बार फिर कांग्रेस पार्टी प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई।  तब कांग्रेस ने कुल 530 सीटों में से 353 सीटें जीती थीं और दोनों जनता दलों को मिलकर केवल 72 सीटें मिलीं!  भारत में एक बार फिर एक ही राजनीतिक दल द्वारा 'दादागिरी' के दिन आ गए हैं।  भारतीय राजनीति में अगला महत्वपूर्ण परिवर्तन गठबंधन की राजनीति था।  1996 में सत्ता में आई 'यूनाइटेड फ्रंट' (संयुक्त आघाडी) सरकार को मुश्किल से दो साल पूरे हुए हैं।

1998 में हुए आम चुनावों में त्रिशंकु लोकसभा का निर्माण हुई।  तत्कालीन लोकसभा में, कोई भी दल स्पष्ट बहुमत नहीं जीत सका, स्पष्ट बहुमत के करीब तो दूर।  लोकसभा में कम से कम 272 सांसदों के समर्थन के बिना सरकार नहीं बन सकती।  1998 के चुनाव में भाजपा 182 और कांग्रेस 141 सीटें जीतने में सफल रही थी।  भाजपा ने तब "राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन"( राष्ट्रीय लोकशाही आघाडी) की स्थापना की और सत्ता हासिल की। ​​वही अनुभव 1999 में हुए चुनावों में हुआ। इस बार में बीजेपी को 182 और कांग्रेस को 114 सीटें मिली हैं.  एक बार फिर भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार सत्ता में आई।  इस दौरान कांग्रेस प्रवक्ता इन गठबंधन सरकारों को 'खिचड़ी सरकार' बताकर उनका मजाक उड़ा रहे थे.  हालांकि 2004 के चुनाव में कांग्रेस के 145 सांसद और बीजेपी के 138 सांसद चुने गए थे।  नतीजतन, कांग्रेस ने पहल की और 'संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन' (संयुक्त पुरोगामी आघाडी)  का गठन किया और सत्ता हासिल की।

2009 के चुनाव में भी यही हुआ था।  इसमें कांग्रेस के 206 सांसद और भाजपा के 116 सांसद चुने गए और एक बार फिर कांग्रेस के अधीन "सम्पुआ" सत्ता में आया। संक्षेप में कहें तो भारत में 1998 से 2014 के बीच दो मोर्चे थे।  इस प्रकार दोनों गठबंधनों की पार्टी की ताकत "सत्तारूढ़ गठबंधन बनाम विपक्षी दलों के गठबंधन" के संसद में सामना के संदर्भ में संतुलित थी।  2014 में इसमें बड़ा बदलाव आया था।  नरेंद्र मोदी के नाम पर हुए 'झंझावात' के चलते बीजेपी के 282 सांसद और कांग्रेस के 44 सांसद ही चुने गए.  इससे संसद का संतुलन बिगड़ गया।

2019 के चुनाव में भी यही तस्वीर सामने आई थी।  इसमें भाजपा के 303 सांसद और कांग्रेस के केवल 52 सांसद चुने गए।  आज की स्थिति में 1952 और 1977 के बीच की स्थिति के साथ स्पष्ट समानताएं हैं।  अब 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव का माहौल गर्मा रहा है.  बीजेपी नेता ऐलान कर रहे हैं कि हम 350 से ज्यादा सीटें जीतेंगे।  एक दल के सीमित दृष्टिकोण से यह एक आकर्षक लक्ष्य है, लेकिन संसदीय लोकतंत्र के स्वास्थ्य और भविष्य के दृष्टिकोण से यह लक्ष्य खतरनाक है। दो साल बाद एक बार फिर भारतीय मतदाताओं की परीक्षा होगी।  यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि शासन की संसदीय प्रणाली प्रभावी नहीं है यदि सरकार पर अंकुश लगाने के लिए कोई विपक्षी दल/गठबंधन नहीं है। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली (महाराष्ट्र)  (दैनिक जबलपूर दर्पण)






खाद्य आवरण का विस्तार आवश्यक


भारतीय उद्योग संस्थान (आयआयटी) गुवाहाटी के शोधकर्ताओं ने फलों और सब्जियों की ताजगी बनाए रखने के लिए एक खाद्य कोटिंग विकसित की है।  इससे फलों और सब्जियों की टिकाऊ क्षमता (शेल्फ लाइफ) बढ़ जाएगी।  कुछ फलों और सब्जियों को संरक्षित करने के लिए अभी भी कृत्रिम-रासायनिक कोटिंग्स का उपयोग किया जाता है। लेकिन ऐसा लेप (कोटिंग) बी-वैक्स, पैराफिन वैक्स या बायो-पॉलीमर होता है।  बायो-पॉलिमर में मोम ( व्हॅक्स) के साथ मिश्रित रसायन भी होते हैं, जो स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होते हैं।  साथ ही, बहुत से लोगों को वैक्स से एलर्जी होती है, वे ऐसे फलों और सब्जियों का उपयोग नहीं कर सकते हैं।  इसलिए, ऐसे कोटिंग्स बहुत लोकप्रिय नहीं हो सके।

अब संशोधित खाद्य कोटिंग सूक्ष्म शैवाल (माइक्रोएल्गे) के अर्क और पॉलीसेकेराइड से बनाई जाती है, जो एक प्रकार का कार्बोहाइड्रेट भोजन है।  यह खाने योग्य कोटिंग स्वस्थपूर्ण है।  इस लेप से फलों और सब्जियों की भंडारण अवधि को दो महीने तक बढ़ाना संभव होगा।इसलिए, यदि उत्पादक किसान इसका उपयोग खराब होने वाले फलों और सब्जियों के लिए करते हैं, तो उन्हें बेचने के लिए ज्यादा समय मिलेगा।  अब जब खराब होने वाले फल और सब्जियां खराब हो गई हैं, तो उन्हें तुरंत बेचने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।  व्यापारी इसका फायदा उठाते हैं और अंगूर-अनार से लेकर प्याज-टमाटर तक के दाम कम करते हैं। इस फूड आवरण (कवर) से किसानों के फल और सब्जियां बेचने का जोखिम तुरंत कम हो जाएगा।  फलों और सब्जियों को सीजन में खरीदने के बाद उन्हें स्टोर करने की समस्या भी प्रोसेसर को होती है।  उन्हें महंगा कोल्ड स्टोरेज करना पड़ता है।

खाद्य आवरण के कारण व्यापारियों-प्रोसेसर को फलों और सब्जियों को सस्ते में स्टोर करने की अनुमति मिलती हैं।  चूंकि शैवाल से बने खाद्य आवरण प्राकृतिक होते हैं, इसलिए उपभोक्ताओं को फल और सब्जियां खरीदते समय एलर्जी और स्वास्थ्य के बारे में चिंता करने की आवश्यकता नहीं होती है।बदलते प्राकृतिक जलवायु के कारण किसान अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में फल और सब्जियों का उत्पादन कर रहे हैं।  फलों और सब्जियों के उत्पादन में उन्नत तकनीक अपनाई जा रही है।  इसलिए, उनकी उत्पादन लागत भी अधिक है।  इस तरह के खर्च और प्रयास से उगाए गए 30 से 35 प्रतिशत फल और सब्जियां कटाई के बाद की सेवाओं की कमी के कारण बर्बाद हो जाती हैं।उस स्थिति में, यदि हम खाद्य आवरण वाले फलों और सब्जियों के शेल्फ जीवन को बढ़ाकर फसल के बाद के नुकसान को कम कर सकते हैं, तो यह कृषि क्षेत्र के लिए एक बड़ी उपलब्धि होगी।  लेकिन इसके लिए आईआईटी प्रयोगशालाओं में इस शोध को किसानों, व्यापारियों, प्रक्रियाकर्ताओं, निर्यातकों तक पहुंचाया जाना चाहिए।

देश के कृषि विश्वविद्यालयों, कृषि विज्ञान केन्द्रों, खाद्य प्रौद्योगिकी महाविद्यालयों, विभागों को इस शोध को ऐसी सभी संस्थाओं तक पहुँचाने का कार्य करना है।  ऐसी खाद्य पैकेजिंग का व्यावसायिक आधार पर उत्पादन किया जा सकता है और सभी घटकों को वितरित किया जा सकता है।  अन्यथा, शोध प्रयोगशालाओं और जर्नल लेखों तक ही सीमित रहेगा।  जैसे-जैसे इस प्रकार के फूड कोटिंग का उपयोग बढ़ता है, इसकी आपूर्ति भी बनाए रखने की आवश्यकता होती है। कई बार नई शोध सामग्री की मांग बढ़ने पर कच्चे माल की कमी महसूस होती है।  यह उत्पादकता को कम करता है और अनुसंधान को प्रभावित करता है।  लेकिन चूंकि आईआईटी संशोधित खाद्य कोटिंग समुद्री सूक्ष्म शैवाल से बनाई गई है, यह प्रचुर मात्रा में आपूर्ति में होगी, और यदि इस शैवाल को प्राकृतिक रूप से प्राप्त करने में कठिनाई होती है, तो यह देखना होगा कि क्या इसे कृत्रिम रूप से भी उगाया जा सकता है।  अगर ऐसा होता है, भले ही इस खाद्य कोटिंग की खपत बढ़ जाती है, हम एक स्थायी आपूर्ति करने में सक्षम होंगे।

 -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली

गिद्धों को बचाओ


पिछले दो दशकों में देश के लगभग 90 प्रतिशत गिद्ध खत्म हो गए हैं।  हाल ही में चौंकाने वाली जानकारी सामने आई है कि देश में गिद्धों की कुछ प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं।  प्रकृति में प्रत्येक जीव महत्वपूर्ण है।  प्रकृति के संरक्षण में प्रत्येक जीव की कोई न कोई भूमिका अवश्य होती है।  इसलिए प्रकृति से किसी भी जीवन का विनाश संपूर्ण जीव के लिए खतरनाक माना जाता है।  गिद्ध मरे हुए जानवरों का मांस खाते हैं। इस तरह वे प्राकृतिक चक्र में 'क्लीनर' का काम करते हैं।  उन्हें सफाई कामगार भी कहा जाता है।  अगर 'स्वच्छतादूत' बने गिद्ध इस तरह विलुप्त हो जाते हैं, तो यह पर्यावरण के लिए बहुत हानिकारक होगा।  गिद्धों की संख्या में गिरावट के कारण घरेलू और जंगली जानवरों के मरने के बाद उनके निपटान की समस्या पैदा हो गई है।  जंगली जानवरों में महामारी फैल रही है।  वास्तव में, हमने देखा कि देश में गिद्धों की संख्या में केवल तीन दशक पहले (1990 में) भारी गिरावट आ रही है।

'बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस) के सर्वेक्षण के अनुसार 1992 से 2007 के बीच विभिन्न प्रजातियों के गिद्धों की संख्या में 96.8 से 99.9 प्रतिशत की गिरावट आई है।  उसके बाद भी अब तक इस संगठन के साथ कुछ अन्य लोगों ने गिद्धों का सर्वेक्षण किया है, उनके संरक्षण और संवर्धन के लिए प्रस्तावित उपाय किए हैं।  लेकिन देश में गिद्धों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। देश में गिद्धों की संख्या में कमी के पीछे कई कारण हैं, उनमें से केवल एक या दो को ही 'केंद्रित' किया जा रहा है।  एक शोध अध्ययन से पता चलता है कि जानवरों में इस्तेमाल होने वाली दवा 'डाइक्लोफेनाक' के कारण गिद्ध बड़ी संख्या में मर रहे हैं।  लेकिन 2006 में देश में दवा के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, और 2015 में इसका उत्पादन भी बंद किया गया, फिर भी  गिद्धों की संख्या में गिरावट जारी है। इसका मतलब है कि इन दोनों प्रतिबंधों को देश में प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया जा रहा है।  हालांकि डाइक्लोफेनाक जानवरों में उपयोग के लिए प्रतिबंधित है, लेकिन यह मनुष्यों में भी प्रयोग किया जाता है।  ऐसे में यह भी संभव है कि  इंसानों के लिए इस्तेमाल किया जानेवाला 'डाइक्लोफेनाक' जानवरों में भी इस्तेमाल किया जाने की आशंका है।।

इससे पहले जानवरों की मौत के बाद उन्हें गांव के बाहर खुले में फेंक दिया जाता था।  इसलिए गिद्धों को गांव क्षेत्र में भोजन मिल रहा था।  लेकिन सरकार के ग्राम स्वच्छता अभियान के तहत अब मरे हुए जानवरों को दफनाना अनिवार्य कर दिया गया है.  साथ ही पालतू पशुओं को एक निश्चित उम्र के बाद बूचड़खानों में भेजा जा रहा है।  इससे गिद्धों की प्राकृतिक खाद्य श्रृंखला बाधित हुई है।भोजन की कमी के कारण भी गिद्ध  विलुप्त हो रहे हैं।  गिद्धों की संख्या में कमी के पीछे यह भी एक कारण है।  ऐसे में हमें देखना होगा कि गिद्धों को प्राकृतिक रूप से भोजन कैसे मिलेगा।  हाल ही में गिद्धों की सामूहिक मृत्यु का कारण मलेरिया है, यह उनकी शव परीक्षा से पता चला है।  यदि मलेरिया के गिद्ध मिल जाते हैं और उनका सही इलाज किया जाता है, तो वे ठीक हो जाते हैं।  ऐसे में वन एवं पशुसंवर्धन विभाग इस दिशा में कदम उठाएं। 

महत्वपूर्ण बात यह है कि गिद्ध संवर्धन , संरक्षण में वन विभाग और पशुसंवर्धन विभाग के बीच उचित तालमेल नहीं दिख रहा है।  इस तालमेल को बढ़ाना होगा।  पिछले कुछ वर्षों से, केंद्र और राज्य सरकारें प्रजनन संरक्षण केंद्रों के माध्यम से गिद्धों को बचाने पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं।  इस पर भारी धनराशि भी खर्च की जा रही है।  लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों के बीच समन्वय की कमी के कारण ऐसे केंद्र केवल कागजों पर दिखाई देते हैं और इसके माध्यम से कोई वास्तविक कार्रवाई नहीं देखी जाती है।इसके अलावा, प्रजनन और संवर्धन केंद्र स्थापित करने की बहुत सीमाएँ हैं।  उस स्थिति में, यह सुनिश्चित करने के लिए ध्यान रखा जाना चाहिए कि विभिन्न प्रजातियों के गिद्ध देश के विभिन्न हिस्सों में स्वाभाविक रूप से प्रजनन और संवर्धन करते हैं। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली

भारत के बेचैन पड़ोसी


सभी पड़ोसी देश वर्तमान में अस्थिरता का अनुभव कर रहे हैं और जल्द ही किसी भी समय समाप्त होने के कोई संकेत नहीं हैं।  इस संबंध में भारत को अगले दो साल तक बेहद सतर्क रहना होगा।  हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारे देश में स्थिरता, अनुशासन और सद्भाव बना रहे। 2022 दुनिया के इतिहास में एक 'अस्वास्थ्यकर वर्ष' के रूप में याद किया जाएगा।कोरोना के संकट से उबरती हुए दुनिया धीरे-धीरे एक नई उथल-पुथल में घिर गई है।  यूक्रेन में युद्ध उस अशांति का सबसे बड़ा लक्षण है।  इस युद्ध ने रूस, यूक्रेन और अन्य देशों को भी प्रभावित किया है।  पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार और अफगानिस्तान जैसे पड़ोसी देशों में भी बेचैनी और अशांति बढ़ रही है।युद्ध के कारण ईंधन की कीमतें बढ़ीं और इसी तरह मुद्रास्फीति भी हुई।  इस बीच, इन पड़ोसी देशों ने कुछ नीतिगत गलतियाँ कीं।  कुछ जगहों पर प्राकृतिक आपदाओं ने स्थिति को और खराब कर दिया।  चूंकि यह स्थिति डेढ़ साल में और खराब होने की संभावना है, इसलिए भारत को सतर्क रहने की जरूरत है।

जनवरी में अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन और फ्रांस की महाशक्तियों ने एक साथ आकर परमाणु युद्ध से बचने का संकल्प लिया।  जिससे हर तरफ उम्मीद का माहौल बना हुआ है।  अमेरिका और रूस के बीच अहम बातचीत भी शुरू हो गई थी।  ऐसा लग रहा था कि महाशक्तियों के बीच कोई बड़ा युद्ध नहीं होगा।  लेकिन, यूक्रेन पर रूस के हमले ने दुनिया में इसके विपरीत स्थिति पैदा कर दी।ईंधन और भोजन की कमी और मुद्रास्फीति की समस्या न केवल यूरोप में बल्कि अफ्रीका और एशिया के कई देशों में भी महसूस की जाती है।  सबसे प्रमुख उदाहरण श्रीलंका का है।  वहां नाटकीय घटनाक्रम हुए।  ईंधन और आवश्यक वस्तुओं की कमी के कारण, इस जगह के लोगों ने विद्रोह कर दिया और राष्ट्रपति महल पर कब्जा कर लिया और गोटबाया राजपक्षे को अपदस्थ कर दिया और उन्हें देश से बाहर निकाल दिया।हालाँकि रानिल विक्रमसिंघे ने तब से राष्ट्रपति पद ग्रहण किया है और स्थिति पर नियंत्रण कर लिया है, फिर भी कई बुनियादी सवाल बने हुए हैं।  श्रीलंका कोई रास्ता निकालने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से बातचीत कर रहा है।  एक पड़ोसी धर्म के रूप में, भारत ने भी श्रीलंका को लगभग दो अरब डॉलर की पेशकश की।  इसने कुछ स्थिरता लाई है, लेकिन चुनौतियां बनी हुई हैं।

आर्थिक कठिनाइयों के साथ-साथ म्यांमार में राजनीतिक संघर्ष भी जारी है।  उस देश की नेता आंग सान सू की को सेना ने सालों तक जेल में रखा है। वहां असमंजस की स्थिति है।  उत्तर की ओर यानि नेपाल को देखें तो वहां भी महंगाई का प्रकोप है।  वहां की राजनीती पार्टियां एक-दूसरे को समझना और साथ काम करना नहीं चाहती हैं।वहां नवंबर में चुनाव होने वाले है।  सभी पार्टियां इन चुनावों को जीतने और सत्ता हासिल करने पर केंद्रित हैं।  ऐसे में प्रशासनिक कार्यों की उपेक्षा की जा रही है।  भारत ने भी इस देश की कुछ हद तक मदद की है।  बांग्लादेश अपेक्षाकृत स्थिर है।  लेकिन आर्थिक दिक्कतें भी हैं।  भले ही पाकिस्तान में चुनाव एक साल दूर हैं, लेकिन वहां एक बड़ा राजनीतिक परिवर्तन होने जा रहा है।सेना प्रमुख जनरल बाजवा नवंबर में सेवानिवृत्त होंगे।  नए सेना प्रमुख की नियुक्ति की जाएगी।  सेना प्रमुख का वहां प्रधान मंत्री या राष्ट्रपति से अधिक महत्वपूर्ण पद होता है।  वहां की सरकार दोपहिया की सरकार है।  एक पहिया चुनी हुई सरकार और दूसरा है सेना।  इसमें सेना की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण होती है।  इसलिए, पाकिस्तान में सेना प्रमुख के परिवर्तन को लेकर बहुत चर्चा और विवाद शुरू है और कुछ अस्थिरता भी है।  वहां की आर्थिक स्थिति पहले से ही बिकट है।

पाकिस्तान को हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से एक अरब डॉलर से अधिक प्राप्त हुआ है।  साथ ही सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात ने भी मदद की है।  इसलिए, भले ही पाकिस्तान ने अस्थायी रूप से आर्थिक सत्ता अपने हाथ में ले ली हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे रसातल में जाने से बचेंगे।  आईएमएफ ने पाकिस्तान को सहायता प्रदान करते हुए कई शर्तें लगाईं।पाकिस्तान में विपक्षी दलों को शर्तों के बारे में कोई जानकारी नहीं है;  लेकिन मीडिया के पास भी उनका पता नहीं है।  इसलिए नाराजगी है।  जानकारों ने संभावना जताई है कि श्रीलंका में बगावत की तरह ही अगले साल चुनाव से पहले पाकिस्तान में भी बगावत होगा।  उस देश में एक तरफ विपदाओं की बाढ़ आई है तो दूसरी तरफ भारी बारिश से बाढ़ आई है।सिंध में मंचर झील समुद्र में बदल गई है।  वहां की सरकार बाढ़ पीड़ितों की मदद नहीं कर पा रही है।  मंचर झील से पानी छोड़े जाने के कारण कुछ गांव जलमग्न हो गए और अंत में पानी वापस झील में आ गया।  उस फैसले ने नुकसान को और बढ़ा दिया।  बाढ़ के कारण कृषि के नुकसान सहित पहले से ही मुद्रास्फीति का प्रकोप है।कपास बड़े पैमाने पर उस देश में उगाया जाता है;  लेकिन बारिश के कारण आधी से ज्यादा फसल बर्बाद हो गई।  नतीजतन, कपास और पूरे देश का निर्यात क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हुआ।  आर्थिक कुप्रबंधन और प्राकृतिक आपदाओं ने उस देश की आर्थिक रीढ़ तोड़ दी है।  इसका असर वहां के सभी प्रांतों में देखा जा सकता है। इसके बावजूद वहां की पार्टियां साथ काम करने को तैयार नहीं हैं।

उल्टे यादवी के संकेत मिल रहे हैं.शबाज़ शरीफ़ सरकार और विपक्ष के नेता इमरान ख़ान के बीच तनातनी चरम पर पहुंच गई है। शाहबाज शरीफ के साथ इमरान खान लगातार सेना, सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग पर जुबानी हमले कर रहे हैं।  तो शायद सुप्रीम कोर्ट उन्हें राजनीति में सक्रिय होने से रोक सकता है।  लेकिन इमरान खान को जन समर्थन है।वे शासकों के लिए सिरदर्द बनेंगे।  हर प्रांत बेचैन है।  बलूचिस्तान में आजादी की लड़ाई चल रही है।  आरोप है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियां ​​सूबे की स्वायत्तता का खुलकर समर्थन करने वाले युवाओं की हत्या कर रही हैं।  खैबर पख्तूनख्वा अफगानिस्तान की सीमा पर स्थित है और तालिबान के शासन के बाद कई तालिबान वहां बस गए हैं और वे वहां स्थानीय शासन लेने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे पाकिस्तान और तालिबान के बीच झड़पें हो रही हैं।तीसरा प्रांत गिलगित बाल्टिस्तान यानि पाकव्याप्त कश्मीर है। वहां शिया-सुन्नी संघर्ष है।  शिया और अहमदी जैसे अल्पसंख्यक मारे जा रहे हैं।  सिंध में बाढ़ से भयानक नुकसान हुआ है और धार्मिक पार्टी 'जमाते इस्लामी' ने सरकार से ज्यादा बाढ़ पीड़ितों की मदद की है।इसलिए इस पार्टी के प्रति लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है। विश्लेषकों का अनुमान है कि कराची में आगामी स्थानीय चुनावों में जमात-ए-इस्लामी सरकार सत्ता में आएगी और एक नया विवाद छिड़ जाएगा।  पंजाब प्रांत बाढ़, राजनीतिक और आर्थिक तनाव से अस्थिर हो गया है।  वहां इमरान खान की 'तहरीक -ए- पाकिस्तान' सरकार है, लेकिन गुटबाजी भी चल रही है।

अफगानिस्तान पर तालिबान का शासन है;  लेकिन चूंकि वे सरकार चलाने में सक्षम नहीं हैं, वहां भी अस्थिरता है।भारत को सावधान रहना चाहिए और सोचना चाहिए कि स्थिति का भारत पर क्या प्रभाव पड़ सकता है।  जैसे-जैसे पड़ोसी देशों में चुनाव नजदीक आ रहे हैं, तत्काल आर्थिक उपायों और सुशासन की कोई संभावना नहीं है।  1971 की तरह, पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच संघर्ष के कारण शरणार्थी भारत आए। वैसे ही शरणार्थियों के आने की संभावना है।  भारत को जागरूक होना होगा।  सभी पड़ोसी देशों के साथ दो साल तक बेहद सावधान रहना होगा।  बाहर से आने वाले संकटों का सामना करने के लिए हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारे देश में स्थिरता, अनुशासन और सद्भाव बना रहे।  हमें छोटे-छोटे मुद्दों पर अराजकता पैदा किए बिना वैश्विक और उपमहाद्वीप की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।  यह हमारा राष्ट्रीय हित है।

-मच्छिंद्र ऐनापुरे