रविवार, 9 अक्तूबर 2022

हिमालय जैसे पर्वत पर्यावरण परिवर्तन के कारण तनाव में

उत्तराखंड में हिमस्खलन में फंसे 29 पर्वतारोहियों की मौत हैरान कर देने वाली घटना है। लेकिन इसे केवल प्राकृतिक आपदा के रूप में नहीं देखा जा सकता।पिछली कुछ शताब्दियों में पर्यावरणीय परिवर्तनों के कारण हिमालयी क्षेत्र में हिमस्खलन और भूस्खलन की घटनाओं में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। इसके अलावा उस क्षेत्र में बढ़ती मानव गतिविधि भी इसके पीछे एक महत्वपूर्ण कारण है, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। दुनिया की कई चोटियों पर चढ़ाई अभियान की योजना बनाई जाती है। अचानक हुए भूस्खलन से कई पर्वतारोहियों की मौत हो जाती है। उत्तराखंड में हुई घटना अभियान के दौरान नहीं बल्कि ट्रेनिंग के दौरान हुई। इससे और दुख होता है।

नेहरू पर्वतारोहण संस्थान भारत के सबसे प्रतिष्ठित संस्थानों में से एक है। प्रात्यक्षिक के साथ-साथ चढ़ाई प्रशिक्षण पाठ्यक्रम वहां आयोजित किए जाते हैं। इन पाठ्यक्रमों की प्रतिक्रिया पिछले कुछ वर्षों में बढ़ रही है। अब इसमें सौ से ज्यादा युवा हिस्सा ले रहे हैं। इस सावधानीपूर्वक नियोजित पाठ्यक्रम पर प्रशिक्षु पर्वतारोही हिमस्खलन में फंस गए और अचानक हिमस्खलन से हिमपात हो गया। नतीजतन, उनमें से अधिकांश को अपनी जान गंवानी पड़ी। कुछ सफलता के साथ, हिमस्खलन में फंसे लोगों को बचाने के लिए शीर्ष पर पहुंचने वालों द्वारा प्रयास किए गए। लेकिन ऐसी मदद तुरंत मिलना जरूरी है। इतनी ऊंचाई पर मदत मिलना नामुमकिन था और इसी वजह से हादसा हुआ।

उत्तराखंड में चोटियों की एक श्रृंखला है जो पर्वतारोहियों को आकर्षित करती है। नंदादेवी, कामेट, अबी गामिन, चौखंबा, त्रिशूल, केदारनाथ, शिवलाग, स्वर्गारोहिणी, नीलकंठ जैसी पर्वत चोटियों पर चढ़ने की चुनौती हमेशा आकर्षक होती है। पर्वतारोहियों के लिए यह चुनौती आसान नहीं होती। इसके लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता है। भारत के रक्षा मंत्रालय के तहत 1965 में स्थापित नेहरू पर्वतारोहण संस्थान, भारत का एकमात्र प्रशिक्षण संस्थान है जिसे अंतर्राष्ट्रीय पर्वतारोहण संघ द्वारा मान्यता प्राप्त है। पिछले कुछ वर्षों में इस संस्थान में आने वाले युवाओं की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। उत्तराखंड में ऐसी पर्वत चोटियों के लिए अभियान भी पिछले कुछ दशकों में बढ़ा है। दुनिया में शायद यह पहला मौका है जब इतनी बड़ी संख्या में पर्वतारोहियों की मौत हुई है। उत्तराखंड राज्य में भूस्खलन और हिमस्खलन की घटनाएं नई नहीं हैं।  लेकिन पिछले कुछ सालों में ऐसी घटनाएं अक्सर हो रही हैं। अत्यधिक वर्षा के कारण आई बाढ़, पहाड़ी ढलानों में दरारें, भूस्खलन, पहाड़ों पर अचानक हिमस्खलन, जिसके परिणामस्वरूप हिमस्खलन बढ़ रहा है। वैश्विक जलवायु परिवर्तन को इसका एक कारण बताया जा रहा है।  यह भी सही है।  लेकिन यही एकमात्र कारण नहीं है।

पिछले साल फरवरी में बारिश के कारण बाढ़ आई थी।पहाड़ों से नीचे की ओर बहने वाले पानी के तेज बहाव के कारण वहां के नवनिर्मित जल विद्युत संयंत्र भी संकट में हैं। ऊँची पहाड़ियों पर ऐसी परियोजनाओं के निर्माण से पहाड़ी भूमि अशांत होती है। इसका परिणाम पतन में होता है। ऊपर से गिरने वाली बर्फ से ढलानों पर जमीन में बड़े-बड़े गड्ढे बन जाते हैं। कई बार इन गड्ढों में बर्फ जम जाती है। ऐसे हिमस्खलन में फंसे किसी को भी निकालना मुश्किल और खतरनाक है।इसी क्षेत्र में 5000 मीटर की ऊंचाई पर नंददेवी चोटी के आसपास पिछले साल चट्टानों और बर्फ के बीच घर्षण के कारण, किनारे गिर गए और 2000 मीटर नीचे नदी में गिर गए। इससे नदी का तल उफान पर आ गया। वैज्ञानिकों का कहना है कि इस क्षेत्र में कई बिजली उत्पादन परियोजनाएं पहाड़ों पर खड़ी हो रही हैं और इससे हिमस्खलन भी हो सकता है। एक राय यह भी व्यक्त की गई है कि इस क्षेत्र में बढ़ता यातायात एक महत्वपूर्ण कारण है। इससे पहले केदारनाथ मंदिर के आसपास हुआ हादसा दिल दहला देने वाला था।आज भी भूस्खलन की घटनाएं होती रहती हैं। पिछले एक महीने में भी इस तरह की दो घटनाएं हो चुकी हैं।बर्फ के किनारों के ढहने से नदियों में भारी बाढ़ आ जाती है।  पर्यावरणविदों का मत है कि कुछ स्थानों पर पहाड़ों की ढलान तैरती हुई अवस्था में है और वे किसी भी समय ढह सकते हैं, जो कि उपग्रह चित्रों से स्पष्ट है।

इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट द्वारा हिंदू कुश हिमालयी क्षेत्र के 2019 के एक अध्ययन में पाया गया कि पिछले 50 वर्षों में इस क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव अब दिखाई दे रहे हैं।जैसे-जैसे जलवायु बढ़ रही है, वैसे-वैसे ग्लेशियरों के पिघलने की दर भी बढ़ रही है। इससे गंगा, ब्रह्मपुत्र नदियों का जलस्तर बढ़ जाता है और यह क्षेत्र के लोगों के जीवन को प्रभावित करता है।  पिछले कुछ वर्षों में, इन नदियों के आसपास के इमारत निर्माण के कारण नदी की धारा संकुचन हो रही है।  यह बाढ़ की स्थिति में मदद करता है। लेकिन पर्वतारोहियों को सावधान रहना चाहिए।

पर्वत की चोटियों पर चढ़ने के दौरान पर्वतारोहियों को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। पर्वत की चोटियों पर चढ़ने के दौरान पर्वतारोहियों को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। ऑक्सीजन की कमी, बदलते मौसम, बर्फबारी और साथ में हिमस्खलन, ऐसी विकट परिस्थितियों में डटे रहना एक तरह का यह कठिन काम है। भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए प्रकृति को दोष देने के बजाय ऐसे खतरनाक क्षेत्रों में सभी प्रकार के यातायात, निर्माण और परियोजनाओं को कम करने की आवश्यकता है।हिमालय जैसे पर्वत, जब वे पहले से ही पर्यावरण परिवर्तन के तनाव में हैं, तो हमें इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि हम वहां कितनी भीड़ लगाते हैं।

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