रविवार, 9 अक्तूबर 2022

स्वास्थ्य प्रणाली को सशक्त बनाने की जरूरत

हाल ही में नेशनल हेल्थ ऑडिट यानी नेशनल हेल्थ काउंट्स हेल्थ असेसमेंट रिपोर्ट जारी की गई थी। सकल राष्ट्रीय आय की तुलना में स्वास्थ्य देखभाल पर कितना खर्च किया जाता है? इसी कसौटी के आधार पर विश्व रैंकिंग तय की गई है। स्वास्थ्य देखभाल पर औसतन सिर्फ 1.3 प्रतिशत धन खर्च किया जाता है।हालांकि निजी अस्पताल का विकल्प है, लेकिन इस अस्पताल आम लोगों की लूट ज्यादा होती है। इलाज और दवाएं दिन-ब-दिन महंगी होती जा रही हैं। स्वास्थ्य जागरूकता और स्वास्थ्य व्यवस्था के मामले में भारत का विश्व में 145वां स्थान है। कुछ पश्चिमी देशों में, स्वास्थ्य देखभाल पूरी तरह से निःशुल्क प्रदान की जाती है। विकसित देशों में, स्वास्थ्य बीमा उपचार की लागत को कवर करता है। हमारे यहां मौलिक अधिकार के रूप में शिक्षा और स्वास्थ्य का अधिकार है।न्यायालयों ने इस सिद्धांत को भी स्वीकार किया है कि स्वास्थ्य के लिए घातक बीमारियों से सुरक्षा एक मौलिक अधिकार है। इस दृष्टि से कोरोना काल में नि:शुल्क टीकाकरण देखा जा सकता है। इसलिए सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह हर संभव उपाय करे और इसके लिए पर्याप्त धन उपलब्ध कराए।आयुष्मान भारत स्वास्थ्य कार्यक्रम के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए केंद्र सरकार द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार, देश में पचास करोड़ लोग चिकित्सा और उपचार का खर्च नहीं उठा सकते हैं। जब उन्हें प्राप्त होने वाली आय को आवश्यक वस्तुओं पर खर्च किया जाता है, तो उनके पास स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी अपनी महत्वपूर्ण जरूरतों को पूरा करने के लिए पैसे नहीं बचे होते हैं। इस पृष्ठभूमि में ऐसे पचास करोड़ लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार की जरूरत है।स्वास्थ्य देखभाल का मुख्य उद्देश्य यह होना चाहीए की, उन्हें बिना किसी खर्च के या बहुत ही कम कीमत पर स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करें। लेकिन स्वास्थ्य या सार्वजनिक स्वास्थ्य सरकार के लिए कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है।

स्वास्थ्य सेवा को बूस्टर डोज देने के नाम पर करोड़ों रुपये दिए जाते हैं, लेकिन सेवा में कितना सुधार हुआ है, इसका लगातार हिसाब लगाने की जरूरत है।ग्रामीण क्षेत्रों में पर्याप्त अस्पताल नहीं होने, डॉक्टरों के उपलब्ध न होने और मरीजों को समय पर इलाज न मिलने की शिकायतें लगातार मिल रही हैं। जबकि कोई उम्मीद करेगा कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं बढ़ती आबादी का सामना करने में सक्षम होंगी, वास्तव में ऐसा नहीं लगता है। कोरोना महामारी के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा की एक बार फिर उपेक्षा होने की हकीकत भी सामने आ गई है। ग्रामीण क्षेत्रों में रोगियों के तत्काल उपचार की अनुपलब्धता के कारण आस-पास के शहरों में ले जाने के उदाहरण हैं।  कुछ लोगों को समय पर इलाज न मिलने के कारण अपनी जान गंवानी पड़ी है। किसी गंभीर दुर्घटना के दौरान दुर्घटना पीड़ित का समय पर इलाज न मिलना या नजदीकी शहर के अस्पताल पर निर्भर रहना हमारी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की विफलता है। सिर्फ नारे लगाने से स्वास्थ्य व्यवस्था में सुधार नहीं होगा।  निजी स्वास्थ्य देखभाल लाखों गरीब मरीजों की पहुंच से बाहर हो गई है। इसलिए, ऐसे रोगियों के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल ही एकमात्र सहारा है।ऐसे में ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को पर्याप्त रूप से सशक्त बनाने के लिए कदम उठाने की जरूरत है। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, मुक्त पत्रकार

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