बुधवार, 30 नवंबर 2022

स्मार्टफोन के इस्तेमाल के खतरे

कैंसर एक खतरनाक बीमारी है जो हमारी बदलती जीवनशैली की देन है। बढ़ती जनसंख्या हमारे देश के लिए एक बहुत बड़ी समस्या है। इस आबादी की बढ़ती भूख को पूरा करने के लिए खाद्य उत्पादन कैसे बढ़ाया जा सकता है, इस पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है। यद्यपि हरित क्रांति ने हमें खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता दी है (20 प्रतिशत लोगों को भोजन नहीं मिलता, यह एक अलग मुद्दा है)  लेकिन इसने हमें कई बीमारियाँ भी दी हैं। देशी किस्मों को हटाकर हमने संकर किस्मों को अपनाया है। आधुनिक मशीनों, तंत्रों और औजारों के कारण मेहनत का काम भी कम हो गया है। लेकिन मानसिक तनाव बढ़ गया है।  इस कारण हमारा शरीर एक अलग लाइफस्टाइल जी रहा है। इसके चलते आंतरिक शरीर की साधना को हल्के में लिया जा रहा है। धन प्राप्ति के नाम पर शरीर की उपेक्षा की जा रही है। इस बीच स्मार्टफोन जैसी चीजों ने हमारी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करते हुए पूरी दुनिया पर कब्जा कर लिया है। किराने के सामान से लेकर बड़े सामान की खरीद-बिक्री से लेकर नौकरी तक, छोटे-बड़े व्यावसायिक प्रोजेक्ट आज मोबाइल पर पूरे हो रहे हैं। जाहिर है, स्मार्टफोन का इस्तेमाल अनिवार्य हो गया है।  लेकिन यह अनिवार्यता हमें खतरे में डाल रही है, इस पर भी अब ध्यान देने की जरूरत है। यह कहने का समय आ गया है कि जितना हो सके स्मार्टफोन को दूर रखना बेहतर है, खासकर बच्चों से। 

मुंबई में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (इंडियन इन्स्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी-आईआईटी) के प्रोफेसर गिरीश कुमार ने निष्कर्ष निकाला है कि स्मार्टफोन के अत्यधिक उपयोग के कारण किशोरों में ब्रेन कैंसर की दर में 400 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में सेलफोन में विकिरण के खतरे के विषय पर अपना शोधनिबंध प्रस्तुत किया है। इसमें उन्होंने स्मार्टफोन के छिपे खतरों के बारे में बताया है। यह कहते हुए उन्होंने हमसे रिक्वेस्ट भी की है कि हम हर दिन 30 मिनट से ज्यादा स्मार्टफोन का इस्तेमाल न करें। दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने उन्नत तकनीक के अत्यधिक उपयोग के गंभीर परिणामों के बारे में एक रिपोर्ट भी केंद्र सरकार को सौंपी है और सरकार के स्तर पर जन जागरूकता और उपचारात्मक उपायों का भी अनुरोध किया है।

आज की युवा पीढ़ी इस स्मार्टफोन के बिना नहीं रह सकती है। इसके अत्यधिक उपयोग के कारण कुछ लोगों में मोबाइल फोबिया विकसित होने के उदाहरण हैं। मोबाइल फोन के कारण मानसिक बीमारियों से पीड़ित मरीजों को विशेष मोबाइल रिकवरी सेंटर की जरूरत पड रही है। कुछ ने मोबाइल फोन के लिए आत्महत्या की है। कुछ ने अपने ही माता-पिता को मार डाला है। हम यह निष्कर्ष सुनते आ रहे हैं कि बच्चे अत्यधिक मोबाइल गेम खेलने के कारण चिड़चिड़े हो गए हैं या हो रहे हैं। हालांकि, यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि इसे नजरअंदाज करने से हमें भविष्य में भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। अभिभावकों को अपने बच्चों पर लगाम कसनी चाहिए, लेकिन स्कूलों, कॉलेजों और अखबारों, टीवी चैनलों और सरकारी स्तर पर भी जागरूकता पैदा करने की जरूरत है। लगातार स्मार्टफोन के इस्तेमाल से किशोरों में ब्रेन कैंसर के मामलों में 400 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। इसके अलावा, मोबाइल फोन से निकले वाले विकिरण से  युवाओं में डीएनए पर हानिकारक प्रभाव डाल सकता है, और मस्तिष्क क्षति के कारण अनिद्रा, डिमेंशिया और कंपकंपी जैसी बीमारियां हो सकती हैं, गिरीश कुमार ने कहा। क्‍योंकि बच्‍चों की खोपड़ी नाजुक होती है और ये रेडिएशन उनमें आसानी से प्रवेश कर सकते हैं। मोबाइल फोन से निकलने वाला रेडिएशन पशु और पौधों के जीवन पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। बेशक आधुनिक व्यवस्था आज हमारे काफी करीब हो गई है। कभी-कभी हमारे पास उनका उपयोग करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है। हालांकि यह बात अभी सच है, लेकिन कुछ बातों का ध्यान रखना होगा। हम यह भी जानते हैं कि किसी भी चीज की अति हानिकारक होती है। आज दुनिया को दूरसंचार क्षेत्र द्वारा करीब लाया गया है।  इसमें बड़ी प्रगति हुई है।  यह तकनीक अभी भी विकसित की जानी है। इसलिए इससे इंसान को फायदा होगा, लेकिन फिर भी इससे होने वाले खतरों को नजरअंदाज किए बिना आगे चलते रहना गंभीर समस्या झेलना है। 

स्मार्टफोन के आने से दुनिया हमारे हाथों में आ गई है। हमें नहीं पता कि यह तकनीक हमें कहां ले जाएगी। बीस साल पहले किसी को विश्वास नहीं होता था कि हम कहीं से भी संचार कर सकते हैं। बीस साल पहले किसी को विश्वास नहीं होता था कि हम कहीं से भी संचार कर सकते हैं। लेकिन आज हम न केवल बात कर सकते हैं, बल्कि अब हम एक दूसरे को देख भी सकते हैं। यह कल्पना करना असंभव है कि यह प्रगति मनुष्य को किस स्तर तक ले जाएगी। लेकिन हम जहां भी हैं, वहां से हमारा काम भी हो रहा है। तो अब हमें ऑफिस जाकर काम करने की भी जरूरत नहीं है। इसलिए यह जितना जरूरी है, वास्तव में इसके खतरे भी उतने ही बड़े हैं । इस पर ध्यान देने से इन्हें कैसे कम किया जा सकता है, इस पर अध्ययन की जरूरत है। यह भी कहा जाता है कि वाईफाई क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिए जोखिम हैं। जिस तरह पैसिव स्मोकिंग एक्टिव स्मोकिंग से ज्यादा खतरनाक है, उसी तरह नेट, फोन किरणों के भी खतरे हैं। किसी चीज के फायदे को ज्यादा तवज्जो दी जाती है, लेकिन उसके खतरों को भी उतनी ही गंभीरता से देखने की जरूरत है। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली ।महाराष्ट्र।


मंगलवार, 29 नवंबर 2022

रिश्ता दोस्ती का ...

आग लगी थी मेरे घर में सब जानने वाले आए।

 हाल पूछा और चले गए ।

एक सच्चे दोस्त ने पूछा," क्या क्या बचा है....।"

 मैने कहा, " कुछ नहीं सिर्फ मैं बच गया हूं।"

 उसने गले लगाकर कहा, ".. तो फिर जला ही क्या है?"

जन्म से लेकर मृत्यु तक व्यक्ति कई रिश्ते जोड़ता है। कुछ रिश्ते जन्म के साथ तय हो जाते हैं तो कुछ रिश्ते जिंदगी जीते वक्त  जुड़ जाते हैं। इन्हीं में से एक रिश्ता है दोस्ती का, जो हर किसी की जिंदगी में बहुत मायने रखता है। दोस्ती हमेशा प्यार से बेहतर होती है। पुराणों, इतिहास में ऐसी पवित्र और अटूट मित्रता के अनेक उदाहरण मिलते हैं। द्वारकाधीश श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता हो या महाभारत में दुर्योधन और कर्ण की मित्रता,राम एवं सुग्रीव की दोस्ती, पृथ्वी राज चौहान और चन्द्रवरदायी की मित्रता, महाराणा प्रताप और उनके घोड़े चेतक की दोस्ती , यह पवित्र बंधन से अमर हो गई है। इतिहास पर नज़र डालें तो हिंदवी स्वराज्य के दूसरे छत्रपति संभाजी महाराज और कवि कलश के बीच की गहरी दोस्ती आँखों के सामने खड़ी होती है। उनके बीच यह दोस्ती आखिरी सांस तक बनी रही। अकबर-बीरबाल की मित्रता, तेनालीराम और महाराज कृष्णदेवराय की मित्रता भी इसी श्रेणी में आती है। ये सभी दोस्त इतिहास में अपना नाम लिखकर चले गए। आज के आधुनिक समय में दोस्ती का स्वरूप, उसकी परिभाषा, इस रिश्ते का संदर्भ सब बदल गया है। लाइफस्टाइल, फैशन, सोशल मीडिया का आज इंसान के दिमाग पर  और बदले में दोस्ती के मापदंड पर भी काफी प्रभाव पड रहा है ।  दोस्तों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, लेकिन यह दोस्ती असली दोस्ती है या नहीं इसका जवाब देना संभव नहीं है। आजकल फेसबुक पर कई लोगों की फ्रेंड लिस्ट में हजारों फ्रेंड्स होते हैं। उसकी मित्र सूची हमेशा के लिए भरी हुई प्रतीत होती है;  लेकिन इनमें से कितने सच्चे दोस्त हैं यह बता पाना मुश्किल है। अवसाद की गहराइयों में फंसने के बाद अपने विचार किससे व्यक्त करें, सफलता के बारे में किसे बताएं? ऐसा सवाल वो भी पूछते हैं जिनकी फ्रेंड लिस्ट में हजारों फ्रेंड्स होते हैं। जब दोस्तों की वाकई जरूरत होती है तो कोई भी दोस्त उनका साथ देने के लिए आगे नहीं आता और यही उनकी सबसे बड़ी त्रासदी बन जाती है। दुनिया भले ही आधुनिक तकनीक के कारण जेब में आ गई हो, लेकिन हर रिश्ता सोशल मीडिया तक ही सीमित रह गया है। 'फ्रेंडशिप डे' सिर्फ नाम के लिए रह गया है। सब कुछ सफलता- असफलता, आर्थिक लाभ, स्वार्थ के तराजू में तौला जा रहा है। ऐसे में यह सोचना जरूरी है कि आपके फेसबुक पर कितने दोस्त हैं, आप कितने व्हाट्सएप ग्रुप पर हैं, बजाय इसके कि आपके जीवन में कितने करीबी दोस्त हैं। 

शनिवार, 26 नवंबर 2022

गरीब पाकिस्तान में, शासक मालामाल

 पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद का कार्यकाल 29 नवंबर को समाप्त होगा। लेकिन उससे पहले ही एक सनसनीखेज खबर के चलते बाजवा विवादों में घिर गए हैं। यह जानकारी उनकी पत्नी की संपत्ति से जुड़ी है। एक पाकिस्तानी पत्रकार द्वारा प्रकाश में लाई गई जानकारी के अनुसार, बाजवा के परिवार की पाकिस्तान और विदेशों में संपत्ति और व्यवसायों का कुल मूल्य 12. 7 अरब से अधिक है। यह सर्वविदित तथ्य है कि पाकिस्तान में चुनी हुई सरकार नाममात्र की होती है और सारी शक्तियाँ सेना के हाथ में होती हैं। इससे खुलासा हुआ है कि बाजवा ने इस ताकत का गलत इस्तेमाल कर अपना घर भर लिया है।  पाकिस्तान में इस समय सरकारी संपत्ति को लूटा जा रहा है।

भारत का पड़ोसी देश पाकिस्तान पिछले कुछ समय से आर्थिक तंगी से जूझ रहा है और यह बात सामने आई है कि देश के पास कर्ज की किस्त चुकाने के लिए पैसे नहीं हैं। पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति दयनीय स्थिति में पहुंच गई है। वहां महंगाई चरम पर है।  ईंधन समेत रोजमर्रा की जरूरत की चीजों के दाम आसमान छू गए हैं। ऐसे में पाकिस्तान सरकार के पास वित्तीय अनुशासन बनाए रखने के लिए लोगों पर वित्तीय बोझ डालने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। लेकिन इससे जनता की कमर टूट सकती है।  क्योंकि अगले कुछ दिनों में पाकिस्तान में बड़ी संख्या में लोगों के पास खाने-पीने के लिए भी पैसे की कमी हो जाएगी। साथ ही, पैसे के बावजूद, राक्षसी महंगाई के सामने उनका मूल्य नगण्य होने वाला है। ऐसा समय पाकिस्तान पर आने के लिए पूरी तरह से पाकिस्तान के हुक्मरानों और उन्हें अपने इशारों पर नचाने वाले लष्करशाह जिम्मेदार हैं।  पाकिस्तान की जनता निर्वाचित सरकार की अप्रभावी, व्यवहारशून्य और दिशाहीन नीतियों से पीड़ित है।

पाकिस्तान के आम लोगों की दुर्दशा इतनी भयावह है कि किसी भी हमदर्द का दिल दहल जाए। इस बीच, पाकिस्तान पर शासन करने वाले राजनीतिक और सैन्य नेताओं की विलासिता रत्ती भर भी नहीं बदली है। वहीं दूसरी तरफ जिस तरह से उनकी कमाई में इजाफा हो रहा है उसे देखकर कोई भी हैरान रह जाएगा। पाकिस्तान का आज कोई ऐसा नेता नहीं है जिसने इस गरीबी की हालत में भी बहुत पैसा जमा न किया हो। इस तथ्य को इन नेताओं द्वारा विलासिता पर करोड़ों रुपये खर्च करने से आसानी से देखा जा सकता है। पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान और मौजूदा प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ भले ही दुनिया के सामने देश की गरीबी का गाना गा रहे हों, लेकिन सियासी और फौजी नेताओं की फिजूलखर्ची छिपी नहीं है। 

देश में आर्थिक संकट के बावजूद अमीर बनने वालों की लिस्ट में अब एक नया नाम जुड़ गया है। नाम है पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल कमर जावेद बाजवा।  जनरल बाजवा 29 नवंबर को रिटायर हो रहे हैं। इससे पहले ही उनकी संपत्ति के आंकड़े से एक चौंकाने वाला खुलासा हो चुका है। इस हिसाब से पिछले छह साल में ही उनकी संपत्ति में आश्चर्यजनक इजाफा हुआ है। इसमें खुलासा हुआ है कि पाकिस्तान और विदेशों में संपत्तियों और व्यवसायों का कुल मूल्य 12.7 अरब से अधिक है।  जनरल बाजवा के बेटे की हाल ही में शादी हुई है। लेकिन उससे 9 दिन पहले ही उनकी बहू की संपत्ति में अचानक इजाफा हुआ है। बहु की संपत्ति में भी अचानक वृद्धि हुई।  एक पाकिस्तानी वेबसाइट 'फैक्ट फोकस' ने दावा किया है कि ये बहु अब अरबपति बन गई है। जनरल बाजवा के परिवार ने उनकी बहू महनूर साबिर के पिता साबिर मिठू हमीद के साथ एक ज्वाइंट वेंचर शुरू किया। वेबसाइट ने यह भी दावा किया कि हमीद ने पाकिस्तान के बाहर काफी पैसा ट्रांसफर किया और विदेश में संपत्ति खरीदी है। इतना ही नहीं इस वेबसाइट का कहना है कि जनरल कमर जावेद बाजवा की पत्नी भी अचानक अरबपति बन गई हैं। जनरल बाजवा की पत्नी आयशा बाजवा ने गुलबर्ग ग्रीन्स इस्लामाबाद और कराची में एक बड़ा फार्म हाउस, लाहौर में कई भूखंड, डीएचए योजनाओं में वाणिज्यिक भूखंड और  प्लाजा खरीदे हैं। जब बाजवा पाकिस्तान के सेना प्रमुख नहीं थे, तब उनकी पत्नी को एक गृहिणी बताया गया था और उन्होंने आयकर भी नहीं दिया था। इसका मतलब यह है कि यह संपत्ती बाजवा के सेना प्रमुख के कार्यकाल के दौरान हासिल की गई है। जनरल बाजवा के करीबी हों या दूर के रिश्तेदार, हर कोई इन दिनों अमीर है। बाजवा के समधी एक सामान्य व्यापारी थे।  उनका कारोबार बड़ा नहीं था और वह अरबपति भी नहीं था। लेकिन बाजवा के सेना प्रमुख बनते ही दोनों परिवारों की सूरत बदल गई।

कई बार देखा गया है कि पाकिस्तान के राजनीतिक नेता और सैन्य नेता पैसे के कितने लालची होते हैं। यद्यपि वहां लोकतान्त्रिक राज्य व्यवस्था है, वह केवल नाम की है। क्योंकि वहां की अदालतें भी संप्रभु और स्वायत्त नहीं हैं। वे वहां सेना के अप्रत्यक्ष नियंत्रण में हैं।  इसके अलावा पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरपंथियों ने न्यायपालिका पर भी काफी दबाव बनाया है। हालाँकि पाकिस्तान भारत की तरह लोकसभा के आम चुनाव आयोजित करता है, यह एक तरह से 'फार्स' है; क्योंकि चुने हुए जनप्रतिनिधियों द्वारा स्थापित सरकार कठपुतली गुड़िया की तरह होती है। इन गुड़ियों की डोर सेना और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के हाथ में है। पाकिस्तान की सरकार और इस सरकार के मंत्री बिना सेना की मंजूरी के एक भी फैसला नहीं ले सकते। इसलिए वहां की सेना के पास सारी ताकत है और फौजी अफसर उसका गलत इस्तेमाल कर बेशुमार दौलत बटोर रहे हैं। हाल ही में पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश गुलज़ार अहमद ने सैन्य उद्देश्यों के लिए सेना को दी गई भूमि के व्यावसायिक उपयोग के मुद्दे को उठाया था। ऐसा इसलिए क्योंकि सरकारी जमीन को सैन्य उद्देश्यों के लिए लिया जा रहा है और उस पर सिनेमा हॉल, मैरिज हॉल, पेट्रोल पंप, शॉपिंग मॉल बनाए जा रहे हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि पाकिस्तानी सेना का स्वार्थ किस हद तक पहुंच गया है।

पाकिस्तान हमेशा भारत की बराबरी करने की फिराक में रहता है। लेकिन भारत और पाकिस्तान के बीच बुनियादी अंतर बहुत है। भारत में भी भ्रष्टाचार है लेकिन हमारी न्यायपालिका अभी भी सर्वोच्च है। यहां की न्याय व्यवस्था ने समय-समय पर ऐसे भ्रष्टाचारियों को आरोप साबित कर जेल भेजने का फैसला किया है, चाहे वे कोई भी हों। दूसरी ओर, भारतीय सेना देश की रक्षा के लिए पूरी तरह से समर्पित है। भारतीय सेना को यहां के लोगों से जो सम्मान और आदर मिलता है, वह उसके सैनिकों के समर्पण में निहित है।  लोगों को उनकी वफादारी, पारदर्शिता, ईमानदारी, निष्पक्षता पर भरोसा है। इस विश्वास को हमारे सेना के अधिकारियों ने, सेवा में  और सेवानिवृत्ति के बाद भी जवानों ने कायम रखा है। वित्तीय गबन, भ्रष्टाचार, अवैध धन के मामलों में हमारे सैन्य अधिकारी कभी शामिल नहीं रहे हैं। हालाँकि इतिहास में कुछ मामले सामने आए होंगे;  लेकिन इस संबंध में छानबीन करके एक निष्पक्ष निर्णय लिया गया है। इसके विपरीत पाकिस्तान में है।  वहां पाकिस्तान सरकार का खजाना सेना के लिए चारागाह है। इसीलिए सेना के साथ-साथ सरकार पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं। जनरल बाजवा का मामला हिमशैल का सिरा है। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, मुक्त पत्रकार 

रविवार, 20 नवंबर 2022

कृषि उपज के निर्यात में कठिनाइयाँ

भारत एक कृषि प्रधान देश है और हम पशुधन की संख्या के मामले में दुनिया में सबसे आगे हैं। फिर भी पशुधन उत्पादकता कम है। हालांकि देश हरित क्रांति के बाद खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हो गया, लेकिन अपनी कृषि कभी लाभदायक नहीं रही। कृषि कानूनों को लेकर किसानों का ऐतिहासिक आंदोलन हुआ। प्रस्तावित कानूनों को बाद में निरस्त कर दिया गया। लेकिन हमें इस बात का जवाब नहीं मिला है कि कृषि उपज का अच्छा बाजार मूल्य मिलने से किसान कैसे समृद्ध होंगे। कृषि उत्पादों और प्रसंस्कृत (प्रक्रियाकृत) खाद्य पदार्थों का निर्यात कैसे और कहाँ किया जाए, इस पर भारत की कोई स्पष्ट नीति नहीं है। यही वजह है कि पिछली बार अंगूर का सीजन शुरू होने के बाद भी चीन को निर्यात जारी नहीं रहा। यही हाल प्याज और डेयरी उत्पादों का भी रहा। सौभाग्य से, वित्तीय वर्ष 2021-22 में, भारत ने 50 बिलियन डॉलर मूल्य की कृषि वस्तुओं का निर्यात किया। और अप्रैल से सितंबर 2022 तक इसमें 16 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।

केंद्र सरकार ने 13 मई को गेहूं के निर्यात पर रोक लगा दी थी। इसके बावजूद अप्रैल-सितंबर 2022 के दौरान गेहूं का निर्यात लगभग दोगुना होकर 46 लाख टन हो गया। 24 मई, 2022 को चीनी के निर्यात को मुक्त सूची से बाहर कर नियंत्रित सूची में रखा गया। 2021-22 में चीनी का अधिकतम निर्यात प्रतिबंधित था। 8 सितंबर को टूटे (तुकडा) चावल के निर्यात पर रोक लगा दी गई और गैर-बासमती चावल के निर्यात पर 20 फीसदी टैक्स लगा दिया गया. इसके बावजूद अप्रैल-सितंबर 2022 में चीनी निर्यात पिछले साल के मुकाबले 45 फीसदी बढ़कर 2.65 अरब डॉलर पर पहुंच गया। पिछले साल चीनी का कुल निर्यात 4.6 अरब डॉलर का था। ऐसे संकेत हैं कि हम इस साल और आगे बढ़ेंगे। चालू वर्ष की पहली छमाही में बासमती चावल के निर्यात में दो लाख टन की वृद्धि हुई है, जबकि गैर-बासमती चावल के निर्यात में सात लाख टन की वृद्धि हुई है। बेशक, इसके बावजूद भारत में कृषि उत्पादों के आयात में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।

2013-14 में, कृषि वस्तुओं के आयात और निर्यात में 27 बिलियन अमरीकी डालर का अधिशेष (आधिक्य) था। आज यह अधिशेष घटकर 17 अरब डॉलर रह गया है। हालाँकि निर्यात में 16 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, यह परिस्थिती आयात में 27 प्रतिशत की वृद्धि के कारण हुई है। अप्रैल-सितंबर 2021 में कपास का निर्यात 1.1 अरब डॉलर था। इस साल इसी अवधि में यह घटकर आधे से भी कम रह गया है। पिछले साल कपास का उत्पादन घटा था। इसलिए कपड़ा मिलों को विदेशों से कपास का आयात करना पड़ा था। हाल के दिनों में मिर्च, पुदीना उत्पाद, जीरा, हल्दी और अदरक का निर्यात बढ़ा है। लेकिन भारत काली मिर्च और इलायची जैसे पारंपरिक मसालों का आयात कर रहा है। काली मिर्च के मामले में वियतनाम, श्रीलंका, इंडोनेशिया और ब्राजील ने भारत को पीछे छोड़ दिया है, जबकि इलायची के मामले में ग्वाटेमाला ने भी भारत को पीछे छोड़ दिया है।

2021-22 में भारत ने 45 करोड़ रुपए के काजू का निर्यात किया।  साथ ही हमने 125 करोड़ डॉलर के काजू का भी आयात किया। इस वर्ष की पहली छमाही में इन आयातों में काफी वृद्धि हुई है। जब देश कोरोना से बीमार था तब भी भारत ने चीन को दो हजार टन अंगूर भेजे थे। तो हरा रंग, लंबी माला और  काले जंबो अंगूर चीन को  निर्यात करके हमने 40 करोड़ रुपये कमाए। इस साल हालांकि निर्यात के लिए अनुकूल माहौल के बावजूद नीति के अभाव और सीजन की उचित योजना के चलते लंबे समय तक निर्यात नहीं हो सका। फैसला लेने में देरी की वजह क्या रही, इसका पता नहीं चल सका है। यूरोपीय देश के सख्त अंगूर निर्यात नियमों का पालन करते हुए, भारत में किसानों ने पिछले साल एक लाख टन से अधिक अंगूर का निर्यात किया।

चीन को निर्यात करते समय ऐसी सख्त शर्तें नहीं लगाई जाती हैं। वहां का बाजार भी बहुत बड़ा है। फिर भी सरकार की देरी का खामियाजा किसानों को भुगतना पड़ रहा है। इसी तरह दूध और दुग्ध उत्पादों के उत्पादन में हम दुनिया की तुलना में कहीं नहीं हैं। हम यूरोप को मक्खन निर्यात कर सकते हैं। लेकिन सरकार को नीति बनानी चाहिए ताकि यहां की डेयरियां गुणवत्ता के मानकों पर खरी उतरें। हम बांग्लादेश और खाड़ी देशों को मक्खन निर्यात करते हैं। लेकिन वहां निर्यात को उतनी कीमत नहीं मिलती, जितनी यूरोपीय देशों में मिलती है। दूध पाउडर नीतियों को लेकर केंद्र सरकार की धरसौड़ी नीति है। जब अतिरिक्त दूध की समस्या उत्पन्न होती है तो हम दूध पाउडर का निर्यात करने के लिए जाग जाते हैं। हमारी समस्या के कारण, उससे उबरने के लिए, जब हम दुग्ध पाउडर का निर्यात करते हैं, तो विश्व बाजार से कीमतों की मांग कम की जाती है। इस साल निर्यात करना, लेकिन अगले साल निर्यात नहीं करना है, ऐसा नहीं चलता। ऐसी नीति काम नहीं करती।

केंद्र और राज्यों ने मिल्क पाउडर के लिए एक्सपोर्ट सब्सिडी दी है, लेकिन हम उम्मीद के मुताबिक एक्सपोर्ट नहीं कर पाए हैं। क्योंकि अगर निर्यात में निरंतरता रहती है, तो बड़ी कंपनियां और देश हमारे साथ व्यापार करने के इच्छुक रहतें हैं, अन्यथा नहीं। किसान संघ के दिवंगत नेता शरद जोशी कृषि उपज के उचित मूल्य की मांग कर रहे थे और उनका कहना था कि आयात-निर्यात के व्यापार में सरकार को दखल नहीं देना चाहिए। लेकिन आज भी कीमत न होने के कारण जब प्याज को सड़क पर फेंकने का वक्त आता है तो निर्यात का ख्याल आने लगता है और जब प्याज के दाम थोड़े बढ़ जाते हैं और किसानों को थोड़े बहुत ज्यादा पैसे मिलने लगते हैं तो 'प्याज ने गृहिणियों की आंखों में पानी ला दिया' ऐसा चिल्लाया जाता है। फिर प्याज आयात करने का फैसला लिया जाता है। सरकार चाहे किसी भी दल की हो।  कृषि निर्यात नीति में निरंतरता होनी चाहिए। - मच्छिंद्र ऐनापुरे, मुक्त पत्रकार

गुरुवार, 17 नवंबर 2022

2050 में विश्व जनसंख्या वृद्धि की दर धीमी हो जाएगी

 15 नवंबर 2022 को दुनिया की आबादी 800 करोड़ के आंकड़े को पार कर गई।  यह भविष्यवाणी 14 नवंबर को संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में की गई थी। चीन और भारत इस आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा हैं। दिलचस्प बात यह है कि इसी रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र ने भी भविष्यवाणी की है कि जनसंख्या के मामले में भारत चीन को पछाड़कर दुनिया में पहले स्थान पर पहुंच जाएगा। यह भी अनुमान है कि विश्व की जनसंख्या 2030 तक 850 करोड़, 2050 तक 970 करोड़ और 2100 तक 1040 करोड़ हो जाएगी। 2080 में दुनिया की आबादी चरम पर होगी।  2100 के बाद जनसंख्या घटने लगेगी।

संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट में अलग-अलग भविष्यवाणी की गई है। इसने यह भी भविष्यवाणी की कि जब भारत, जो जनसंख्या में दूसरा सबसे बड़ा देश है, चीन को पीछे छोड़ देगा और पहला देश बन जाएगा। इसके मुताबिक भारत अगले साल यानी 2023 में चीन को पछाड़कर मौजूदा दर से आबादी में नंबर वन बन जाएगा। 2050 तक विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या वृद्धि केवल आठ देशों में होगी। इसमें कांगो, मिस्र, इथियोपिया, भारत, नाइजीरिया, पाकिस्तान, फिलीपींस और तंजानिया शामिल हैं। संयुक्त राष्ट्र की वार्षिक विश्व जनसंख्या संभावना रिपोर्ट सोमवार (14 नवंबर) को विश्व जनसंख्या दिवस पर प्रकाशित हुई थी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि वर्तमान जनसंख्या वृद्धि दर 1950 के बाद से सबसे कम है। 2020 में जनसंख्या वृद्धि दर 1 प्रतिशत से भी कम थी।

दुनिया की आबादी को 700 करोड़ से 800 करोड़ होने में कुल 12 साल लगे। अब इस आबादी को 800 से बढ़ाकर 900 करोड़ करने में 15 साल लगेंगे। यानी साल 2037 में 900 करोड़ आबादी पहुंच जाएगी।  इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इसके कारण विश्व की जनसंख्या वृद्धि दर धीमी हो गई है। ब्रिटिश अर्थशास्त्री थॉमस रॉबर्ट माल्थस ने जनसंख्या वृद्धि पर एक सिद्धांत प्रतिपादित किया था। उसका नाम माल्थस थ्योरी है। माल्थस के सिद्धांत के अनुसार जनसंख्या प्रत्येक 25 वर्ष में दुगनी हो जाती है।  जब संसाधन सामान्य दर से बढ़ते हैं तो जनसंख्या वृद्धि दर दोगुनी हो जाती है। उदा.  यदि जनसंख्या 2 से 4 और 4 से 8 हो जाती है, संसाधन 2 से 3 और 3 से 4 हो जाता है।

माल्थस के सिद्धांत के अनुसार यदि जनसंख्या तेजी से बढ़ती है तो संसाधन कम होने लगते हैं। इससे भोजन और प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव पड़ता है। माल्थस का कहना है कि ऐसी स्थिति में जनसंख्या नियंत्रण के लिए स्वतः ही प्राकृतिक घटनाएं घटित होती हैं। उदा.  जनसंख्या को सूखा, महामारी, युद्ध और प्राकृतिक आपदाओं जैसी घटनाओं द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
हालाँकि, माल्थस के सिद्धांत की कई बार आलोचना की गई है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, उपचार और प्रौद्योगिकी में प्रगति सार्वजनिक स्वास्थ्य, पोषण, स्वच्छता और चिकित्सा को अधिक सुलभ बना रही है। इसके कारण महामारी की दर में कमी आई है।  महामारी हो भी जाए तो मरने वालों की संख्या पहले से कम है, क्योंकि इलाज उपलब्ध है। स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण जीवन प्रत्याशा बढ़ी है।  इससे मृत्यु दर में कमी आई है और जनसंख्या में वृद्धि हुई है। आज दुनिया की आबादी आठ अरब यानी 800 करोड़ हो गई है।  निश्चित रूप से यह एक ऐतिहासिक दिन है। पटाया-थाईलैंड में अंतर्राष्ट्रीय परिवार नियोजन सम्मेलन संपन्न हुआ। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) के कार्यकारी अध्यक्ष डॉ.  नतालिया कानेम ने यह जानकारी दी। उन्होंने कहा कि 'आठ' अंक सांकेतिक है।  यदि इसे क्षैतिज रूप से घुमाया जाए तो अनंत की तस्वीर बनती है।  इस संख्या को पार करने वाली दुनिया में अब महिलाओं और लड़कियों के लिए विकास की अनंत संभावनाएँ होनी चाहिए।

जमीन को देखने का नजरिया बदलें

भूमि प्रकृति का सबसे महत्वपूर्ण और उदात्त तत्व है। कोई भी जीवित वस्तु मिट्टी से उत्पन्न होती है और मिट्टी में समाप्त हो जाती है। इसीलिए सभी सजीवों के जीवन चक्र में भूमि को अधिक महत्व दिया जाता है। भूमि जीवों के लिए भोजन, वस्त्र और आश्रय प्रदान करती है। इसलिए धरती को माता कहा जाता है। स्वस्थ रहने के लिए जीवित जीवों के लिए स्वच्छ हवा, पानी और समग्र अच्छे वातावरण को बनाए रखने में भूमि महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह सभी जीवित जीवों के अवशेषों को अपने पेट में लेकर उन्हें संसाधित करने से पर्यावरण को कोई खतरा नहीं होता है। सूर्य के प्रकाश की तीव्रता कम या ज्यादा होने के बाद प्रकृति में तापमान को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी पृथ्वी की होती है। जब पानी वातावरण में वाष्पित हो जाता है, तो हम पर्यावरण को कोई हानिकारक पदार्थ और लवण भेजे बिना इसे अपने शरीर में रखकर पर्यावरण को स्वच्छ रखने की कोशिश करते हैं। ऐसे कई मामलों में जमीन अहम भूमिका निभाती है। सभी जीवित चीजें प्रकृति को उतना ही लौटाती हैं जितना वे इससे लाभान्वित होती हैं। प्रकृति से मानव जाति को कई गुना लाभ हो रहा है, इसलिए प्रकृति की रक्षा करना मनुष्य की अधिक जिम्मेदारी है। लेकिन आज मनुष्य की बढ़ती जरूरतों और बढ़ते स्वार्थी स्वभाव के कारण मनुष्य भूमि और पर्यावरण की उचित देखभाल करना भूलता जा रहा है।

पर्यावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती मात्रा, मिट्टी के क्षरण और पेड़ों की घटती संख्या के कारण तापमान बढ़ रहा है। यदि मिट्टी में 25 प्रतिशत हवा, 25 प्रतिशत पानी, 45 प्रतिशत खनिज और 5 प्रतिशत कार्बनिक पदार्थ हों तो वो मिट्टी सर्वोत्तम मानी जाती है।दिन-ब-दिन रासायनिक खादों का प्रयोग बढ़ता गया और जैविक खादों का प्रयोग कम होता गया।   परिणामस्वरूप, मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा कम हो गई और खनिजों की मात्रा बढ़ गई। कार्बनिक पदार्थों से भरपूर मिट्टी स्पंज की तरह काम करती है, सूरज की रोशनी को अवशोषित करती है और प्रकृति में तापमान को नियंत्रित करने में मदद करती है। लेकिन कार्बनिक पदार्थों की मात्रा घट गई और खनिजों की मात्रा बढ़ गई। इससे भूमि कठोर हो जाती है। उनमें सूर्य के प्रकाश के अवशोषण की क्रिया कम हो जाती है और परावर्तन की मात्रा बढ़ जाती है। तेज धूप के कारण क्षारीय-खनिज मिट्टी जल्दी गर्म हो जाती है।

जमीन को गर्म होने के बाद ठंडा होने में ज्यादा समय लगता है। इस प्रकार पूरे विश्व में जलवायु का तापमान बढ़ रहा है। बर्फ के पहाड़ का पिघलना बढ़ गया है। यदि तापमान वृद्धि की दर इसी दर से जारी रही तो बर्फीले पानी के कारण समुद्र का स्तर ऊपर उठ जाएगा। यही कारण है कि भविष्यवाणी की जाती है कि अगले पचास वर्षों में आधा मुंबई समुद्र के नीचे होगा। मिट्टी की सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करने की क्षमता में वृद्धि के बिना पर्यावरण में तापमान कम नहीं होगा, इसलिए मनुष्य को मिट्टी की उचित देखभाल करके मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ाना, मिट्टी को कार्बनिक पदार्थ से ढकना,  भारी मात्रा में पेड़ लगाना जैसे कार्य करने होंगे। नहीं तो मनुष्य जैसे सभी प्राणियों का शरीर गर्मी से पीड़ित होगा, इसलिए भूमि का ध्यान रखना होगा।

प्रकृति में, जन्म और मृत्यु जीवित प्राणियों के जीवन में अपरिहार्य घटनाएँ हैं। मनुष्य, पशु, पौधे, सूक्ष्म जीव और सभी जीवित प्राणी जन्म लेते हैं और मृत्यु अवश्यंभावी है। किसी भी जीवित जीव में आत्मा (जीव) के नष्ट हो जाने के बाद, यह निर्जीव हो जाता है और सड़ने लगता है। उसका शरीर सड़ कर नष्ट हो जाता है और मिट्टी में मिल जाता है। लेकिन अगर हम इस घटना के इंटीरियर पर गौर करें तो कई महत्वपूर्ण घटनाओं पर ध्यान दिया जाएगा। यदि अपघटन प्रक्रिया न होती तो इन सभी सजीवों के शरीरों से कितना पर्यावरण प्रदूषण होता।

पर्यावरण को स्वच्छ रखने के लिए अपघटन क्रिया बहुत जरूरी है। इस अपघटन प्रक्रिया में मिट्टी का महत्व अद्वितीय है। मृत मिट्टी में अपघटन नहीं होता है।  क्योंकि जिस मिट्टी में जीवित बैक्टीरिया, केंचुए और अन्य स्थलीय जानवर होते हैं, वहां अपघटन होता है। यानी जीवित मिट्टी और जीवित जीवों के अपघटन के बीच घनिष्ठ संबंध है। यदि किसी जीवित जीव के अवशेष जमीन या मिट्टी में मिल जाते हैं, तो यह मिट्टी का जीव तुरंत काम पर चला जाता है और पर्यावरण को स्वच्छ रखते हुए उन्हें विघटित कर देता है। यह इसमें से हानिकारक तत्वों को फसल-मिट्टी के लिए आवश्यक उपयोगी पोषक तत्वों में भी परिवर्तित करता है। यह सारी प्रक्रिया सुनियोजित तरीके से चल रही होती है। मनुष्य को उसके लिए पैसा खर्च करने या योजना बनाने और काम करने में समय नहीं लगाना पड़ता है। लेकिन प्रकृति में मानवीय हस्तक्षेप के कारण यह प्रक्रिया बाधित हुई है और प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया है।

भूमि अपनी आवश्यकता के अनुसार जल उपलब्ध कराने के लिए उत्तरदायी है जिसे जीवन कहा जाता है। भूमि बहुत ही कम समय में होने वाली वर्षा को संचित करने और जीवित प्राणियों की आवश्यकताओं के अनुसार उपलब्ध कराने का एक बड़ा काम करती है। इतनी बड़ी मात्रा में जल संचय करने का कार्य जो कोई नहीं कर सकता, भूमि द्वारा किया जाता है। जल के बिना जीव जीवित नहीं रह सकता। अत: यह भूमि का कार्य अत्यंत मूल्यवान है। मिट्टी में पानी को पकड़ने और जमा करने के लिए अलग-अलग तंत्र हैं। मनुष्य का यह कार्य है कि वह इस कार्य प्रणाली को बढ़ावा देकर और इसकी रक्षा करके मिट्टी में जल भंडारण को बढ़ाने का प्रयास करे। मिट्टी के पानी के दो कार्य हैं। मिट्टी की ऊपरी परत का पानी जीवों के लिए उपलब्ध होता है जबकि निचली परत का पानी पर्यावरण के तापमान को नियंत्रित करने के लिए उपयोगी होता है। लेकिन आधुनिक आदमी 400-500 फीट या उससे भी ज्यादा गहराई से बोर लगाकर पानी खींचता है। इसलिए, जमीन के रेडिएटर में  पानी कम हो जाता है और यह तापमान वृद्धि को प्रभावित करता है।

हालांकि, पानी निकालने के दौरान लोगों ने पानी रिचार्ज (पुनर्भरण) करने का काम बंद कर दिया है। एक केंचुए जैसा जानवर अवमृदा में बिल बनाता है और  भूमि  की छलनी करता है। जो वर्षा होती है वह इस छलनी जैसी मिट्टी में आसानी से समा जाती है। साथ ही, मिट्टी में होनेवाले कार्बनिक पदार्थ पानी को स्टोर करते हैं। आज की कृषि प्रणाली में कार्बनिक पदार्थों के पूर्ण प्रबंधन और रासायनिक उर्वरकों के बढ़ते प्रयोग के कारण मिट्टी की छंटाई ( छलणी) बंद हो गई है। जल धारण क्षमता घटी। यह मिट्टी में जल पुनर्भरण को धीमा कर देता है । इससे जल उपलब्धता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। अतः मनुष्य का यह प्राथमिक कर्तव्य है कि वह प्रकृति द्वारा जलापूर्ति के लिए बनाई गई मृदा प्रणाली को नष्ट करने की बजाय उसका संरक्षण करे। जमीन के प्रति अपना नजरिया बदलने की जरूरत है। यह जानना महत्वपूर्ण है कि भूमि प्रकृति की प्रत्येक घटना में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, न कि केवल भूमि को आय देने वाली प्रणाली के बारे में सोचना सोचना होगा। ।

बुधवार, 16 नवंबर 2022

कृषि का विकास, लेकिन किसानों का पतन!, आजादी के 75 साल

जीवन के समग्र इतिहास की तुलना में मनुष्य का इतिहास बहुत छोटा अर्थात 12 से 15 हजार वर्ष है और इसका कारण कृषि है। दो पैरों पर चलना, भाषा का विकास होना, आग का नियंत्रित प्रयोग करना, औजार के रूप में पत्थरों के प्रयोग की शुरुआत मानव इतिहास के विशिष्ट मोड़ हैं। साथ ही कृषि की शुरुआत भी एक बहुत ही महत्वपूर्ण मोड़ है, यह वास्तव में पहली औद्योगिक क्रांति है। हालाँकि, प्रचलित राय के अनुसार, पहली औद्योगिक क्रांति की शुरुआत 1776 में जेम्स वॉटसन के भाप इंजन के आविष्कार के साथ हुई, और तब से दस से बारह हज़ार साल तक कृषि का प्रभुत्व कम होने लगा। मतलब 10-12 हजार वर्ष से 1750 ई. तक मुख्य रूप से कृषि द्वारा प्रदान की जाने वाली आय समस्त विकास का मुख्य आधार बनी रही। बेशक, 1750 के बाद की तीन औद्योगिक क्रांतियों ने कृषि को विनिर्माण और सेवा क्षेत्र के पीछे पहले से तीसरे स्थान पर धकेल दिया। लेकिन एक बात को कभी भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है , वह है की वर्ष 1750 से पहले इस धरती पर जो भौतिक और अन्य शानदार चीजें हुईं, वे गर्मी, मानसून और सर्दियों में दिन-रात काम करने वाले किसान परिवार की कठिनाइयों की जड़ में हैं। यह मामला भारत के लिए बेहद अहम है। 1700 से पहले, भारत की जीडीपी भारत की कृषि, कच्चे माल और उस पर आधारित उद्योगों, मसाला उत्पादों या वस्त्रों के कृषि-आधारित निर्यात आदि के कारण दुनिया की जीडीपी के एक-चौथाई के बीच थी। और यह दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति थी। उस समय भारत से कृषि आधारित तकनीक का निर्यात भी किया जाता था।

दुर्भाग्य से, पिछले 250 वर्षों में, कृषि को कम शिक्षित या कम उन्नत लोगों के लिए एक पेशे के रूप में माना गया है। इस पृष्ठभूमि में आजादी के बाद के 75 वर्षों में कृषि के विकास या पतन की चर्चा करते हुए कृषि के गौरवशाली इतिहास की उपेक्षा करना इन मजदूरों के साथ विश्वासघात होगा। कृषि के कारण भारत एक वैश्विक आर्थिक शक्ति था, यह तथ्य छुपाया नहीं जा सकता और आज की औद्योगिक और सूचना प्रौद्योगिकी की पीढ़ियों को इससे अवगत कराना होगा, जो कि वे अभी तक नहीं कर पाए हैं, जैसा कि भारतीय किसानों ने किया। यद्यपि छोटी फसलें जैसे कपास और बांध-सिंचाई आदि ब्रिटिश शासन के दौरान शुरू की गई थीं, लेकिन उन्होंने भारतीय कृषि की पूरी तरह से उपेक्षा की। परिणामस्वरूप, 1891 से 1946 तक 50 से अधिक वर्षों की अवधि के लिए कृषि की विकास दर केवल 0.8 प्रतिशत रही, और किसानों की स्थिति खराब हो गई।

1947 में स्वतंत्रता के समय देश की जनसंख्या 34 करोड़ थी और खाद्यान्न उत्पादन 5 करोड़ टन था। 2021 में यह 31.5 करोड़ टन हो गया यानी 75 साल में छह गुना से ज्यादा ।  और आबादी चौगुनी हो गई है।
यह तथ्य है कि पिछले 75 वर्षों में जनसंख्या में 411 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और खाद्यान्न उत्पादन में 630 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है। ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में भोजन की कमी के कारण लाखों लोग भूख से मर रहे थे। विशेष रूप से 1865-67 के उड़ीसा के अकाल के कारण 50 लाख, 1876-77 में दक्षिण भारत में सूखे के कारण 60 लाख से एक करोड़, पूरे भारत में अकाल के कारण वर्ष 1896-97 में 1.2 से 1.6 करोड़ और अंत में 1943 के ग्रेट बंगाल अकाल के कारण 20 से 30 लाख के बीच लोग मारे गये। याने की 1865 से 1943 तक 80 साल की इस अवधि में अकाल के कारण लगभग 4.8 करोड़ लोग मारे गए। यह ब्रिटिश शासन पर सबसे बड़ा दाग था।

आजादी के बाद यह तस्वीर पूरी तरह बदल गई। भारत खाद्यान्न उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर हो गया और कुछ हद तक निर्यात योग्य हो गया। बेशक, इसकी तुलना अन्य कृषि रूप से उन्नत देशों के साथ करना संभव नहीं है, लेकिन आजादी से पहले और आजादी के बाद के बीच इस तरह की तुलना महत्वपूर्ण है। स्वतंत्रता के कगार पर, भारतीय कृषि, किसानों और अर्थव्यवस्था की स्थिति बहुत खराब थी। स्वतंत्रता के बाद देश की प्रगति की नींव एक ठोस नींव पर रखी गई थी और इसमें मुख्य रूप से कृषि क्षेत्र शामिल था। इन सबसे ऊपर, पंचवर्षीय योजना और पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की दूरदर्शिता का परिणाम था। 1951 में प्रथम पंचवर्षीय योजना का आदर्श वाक्य 'कृषि विकास' था। इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि कृषि क्षेत्र के विकास के उद्देश्य की नींव गंभीरता से ध्यान देकर रखी गई थी। देश में हरित क्रांति होगी या देश के खाद्यान्न में आत्मनिर्भर बनने का अधिकांश श्रेय इस प्रथम पंचवर्षीय योजना की शुरुआत के रूप में और व्यक्तिगत रूप से पंडित नेहरू को जाता है। प्रथम पंचवर्षीय योजना में 2069 करोड़ (बाद में 2378 करोड़) के कुल परिव्यय में से कुल 48.7 प्रतिशत यानि लगभग आधी राशि सिंचाई और ऊर्जा के विकास, कृषि विकास, भूमिहीन किसानों के पुनर्वास के लिए उपलब्ध कराई गई। यह कृषि क्षेत्र के विकास के लिए तत्कालीन नेतृत्व के सचेत प्रयास को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। पंचवर्षीय योजना के साथ-साथ अधिक अनाज उगाना कार्यक्रम, गन्ने की किस्म सीओ 740 का विकास, 1951 में फोर्ड फाउंडेशन मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग, कृषि के लिए सामूहिक विकास कार्यक्रम का शुभारंभ, गेहूं की किस्म एनपी-809 का विकास, प्रथम राज्य कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना, ज्वार की किस्म सीएचएस-1 का विकास, कृषि समर्थन मूल्य (एमएसपी) की शुरूआत, नाबार्ड की स्थापना, गेहूं की किस्म एचडी-2329 का विकास, राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड की स्थापना आदि कार्यक्रमों के माध्यम से कृषि विकास कार्यक्रमों को क्रियान्वित किया गया। पिछले 75 वर्षों में कृषि विकास की प्रगति को भारत में जलवायु, भूमि या मिट्टी के प्रकार, मानसून की सनक, जनसंख्या के कारण भूमि के विखंडन जैसी कई समस्याओं की पृष्ठभूमि के पर शानदार कहा जाना चाहिए। लेकिन इसके साथ ही किसानों का विकास हुआ है या नहीं, यह सवाल भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

वास्तविक कृषि विकास का अर्थ है  जिसके श्रम पर कृषि निर्भर करती है, उस किसान के जीवन में समृद्धि  आती है, यह स्वाभाविक है। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। हालांकि कृषि विकास और किसानों का विकास अन्योन्याश्रित हैं, परंतु वे पूरी तरह से अलग रह गये। हालांकि पिछले 75 वर्षों में कृषि में काफी प्रगति हुई है, लेकिन पिछले 75 वर्षों में किसानों की स्थिति खराब हुई है। बेशक, कुछ लोग मेरी राय का पुरजोर विरोध करेंगे और उनकी संतुष्टि के लिए मैं ऐसा कहूंगा की "जिस हद तक कृषि ने प्रगति की है, उतनी किसानों की वित्तीय भलाई में वृद्धि नहीं हुई है" और इससे उन्हें इनकार भी नहीं किया जा सकता है। विनिर्माण या द्वितीयक क्षेत्र और सेवा या तृतीयक क्षेत्र में आर्थिक विकास हुआ, लेकिन साथही कृषि या प्राथमिक क्षेत्र में गिरावट आई। कोई समस्या नहीं है, क्योंकि भले ही इन दोनों क्षेत्रों ने रोजगार सृजित किया है, कृषि पर निर्भर जनसंख्या का अनुपात अनुपातिक रूप से कम नहीं हुआ है। और कृषि क्षेत्र में प्रति व्यक्ति उत्पादन कम हुआ है और किसानों की स्थिति आर्थिक रूप से कमजोर बनी हुई है। 1950-51 में देश का सकल घरेलू उत्पाद 2,93,900 करोड़ रुपए था, जिसमें से प्राथमिक क्षेत्र यानी कृषि का हिस्सा 1,50,200 करोड़ रुपए या 51.10 फीसदी यानी आधे से ज्यादा था। साथ ही प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर जनसंख्या 70 प्रतिशत से अधिक थी। दूसरे शब्दों में, देश की 70 प्रतिशत आबादी सकल उत्पादन के 50 प्रतिशत से अधिक के लिए जिम्मेदार थी। हाल की रिपोर्टों के अनुसार, 2011 की जनगणना के अनुसार देश की 54 से 55 प्रतिशत आबादी अभी भी कृषि और संबद्ध क्षेत्रों पर निर्भर है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का केवल 17-18 प्रतिशत इस क्षेत्र के खाते में है। इसका अर्थ है कि 75 वर्षों की अवधि में केवल 15 प्रतिशत जनसंख्या कृषि से विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में स्थानांतरित हुई है। लेकिन सकल उत्पादन 51 प्रतिशत से गिरकर 17 प्रतिशत हो गया, 34 प्रतिशत की गिरावट आयी है। यानी कृषि पर निर्भरता कम करने के लिए उस क्षेत्र पर निर्भर आबादी का अनुपात घटकर 17-18 फीसदी रह जाना चाहिए था, जो नहीं हुआ।

1776 की औद्योगिक क्रांति के बाद, कई देशों में विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध हो गया, और कृषि पर निर्भर आबादी बड़े पैमाने पर इन दो क्षेत्रों में समाहित हो गई। अमेरिका की आबादी का केवल एक प्रतिशत अब कृषि पर निर्भर करता है, और सकल घरेलू उत्पाद का केवल एक प्रतिशत कृषि से आता है। अधिकांश विकसित देशों में मामूली अंतर के साथ स्थिति ऐसी ही समान है। पहली तीन औद्योगिक क्रांतियों में, विकसित देशों ने अपनी कृषि पर निर्भर आबादी को विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में समाहित कर लिया। बेशक, प्रत्येक औद्योगिक क्रांति के दौरान विनिर्माण और सेवाओं में भारी रोजगार था। भारत के मामले में, पहली दो औद्योगिक क्रांतियों के दौरान, देश को औद्योगीकरण से ज्यादा लाभ नहीं हुआ क्योंकि देश स्वतंत्र नाही था। और परिणामस्वरूप, कृषि पर निर्भरता जारी रही और कृषि पर निर्भर आबादी को विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में समाहित करने का बहुत कम अवसर मिला। देश में आर्थिक असमानता को कम करने के लिए पहले, दूसरे और तीसरे क्षेत्रों पर निर्भर लोगों का प्रतिशत जितना है उस प्रतिशत में उस पर निर्भर लोगों की संख्या आवश्यक है। हालाँकि, वर्तमान स्थिति समान नहीं होने के कारण, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर लोगों की आय कम है और उनकी आर्थिक स्थिति विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों की तुलना में खराब है। उनके दुष्प्रभाव कम प्रति व्यक्ति आय, आय की असुरक्षा और और इन सबसे ऊपर, उत्पादन की लागत के साथ लाभप्रद रूप से खेती करने की स्वतंत्रता की कमी और वापसी की दरों का निर्धारण करके लाभ निर्धारित किया गया। कृषि की प्रगति के लिए केंद्र सरकार जैसी नीतियों की योजना बनाई और उन्हें सफल बनाया, वैसी नीतियां किसानों की प्रगति के लिए कम ही बनाई गई हैं। कम दर वाले ऋण, सामयिक ऋण माफी, फसली ऋण बीमा योजना जैसी अक्षम, अलाभकारी नीतियां बनाई गईं और 'किसानों के विकास के लिए कुछ कर रहे हैं' के नारे के अलावा पिछले 75 सालों में किसी पार्टी ने कोई विशेष अभियान नहीं चलाया। इसमें सब्सिडी आदि का खेल बेशक पेश किया गया, लेकिन यह इस बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश करने जैसा भी रहा कि 'कुछ' किसानों के लिए किया गया, न कि इस वर्ग की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के लिए।  परिणामस्वरूप किसानों की आत्महत्या जैसी समस्या उत्पन्न हो गई। दुर्भाग्य से, कृषि और किसानों की अर्थव्यवस्था, रोजगार के मुद्दे कभी भी देश की आर्थिक नीति का प्रमुख हिस्सा नहीं रहे हैं।

वास्तव में देश की विकास नीति को एक ठोस आधार पर खड़ा होना चाहिए। महत्वपूर्ण सिद्धांत' यह होना चाहिए कि पहले (कृषि और समान) दूसरे (विनिर्माण) और तीसरे (सेवा) क्षेत्रों द्वारा सकल आय के सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के भीतर जनसंख्या को क्षेत्र पर निर्भर रखना, यह विकसित देशों की तरह पहले ही हो जाना चाहिए था।  अब चौथी औद्योगिक क्रांति में ऐसा करना बेहद मुश्किल होने वाला है। उसके लिए हमें उस रास्ते से अलग रास्ता चुनना होगा जो विकसित देशों ने इसके लिए किया है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस), कॉग्निटिव एनालिसिस, 3डी प्रिंटिंग, रोबोटिक्स, एल्गोरिथम तकनीक आदी पर आधारित सिस्टम्स और टेक्नोलॉजिस्ट के हाथों की कठपुतली बन रही सरकारी व्यवस्था के कारण मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर में रोजगार के अवसर चौथी औद्योगिक क्रांति के दौरान कम हो जाएंगे। इसलिए, विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में कृषि पर निर्भर भारतीय आबादी को समायोजित करने के दरवाजे बंद हो रहे हैं। इसलिए कृषि पर निर्भर 50-55 प्रतिशत आबादी को विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में अवसर प्रदान करके, उनके अनुपात को 17 प्रतिशत पर लाकर अब कृषि क्षेत्र से होने वाली सकल आय को जीडीपी के सापेक्ष करना असंभव है। यह अत्यावश्यक है कि राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व, अर्थशास्त्री और अन्य नीति निर्माता इसका समाधान खोजें।

मैंने दो साल पहले इस संबंध में एक समाधान सुझाया था और वह है सकल कृषि उत्पादन को सुदृढ़ कर कृषि पर निर्भर 50-55 प्रतिशत जनसंख्या की प्रति व्यक्ति आय को विनिर्माण एवं सेवा क्षेत्रों पर निर्भर लोगों के प्रति व्यक्ति उत्पादन के स्तर तक लाना। इसके लिए मैन्युफैक्चरर्स को डिजिटल टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करते हुए मैन्युफैक्चरिंग या सर्विस सेक्टर में उत्पादों की कीमतें तय करने की आजादी है। वैसे ही किसानों को उनकी उपज का विक्रय मूल्य तय करने के लिए सशक्त बनाने के लिए स्वतंत्रता या कानूनी व्यवस्था प्रदान करना। साथ ही, कृषि उत्पादों को छोड़कर, 80 प्रतिशत उत्पादों या सेवाओं की कीमत उत्पादकों द्वारा तय की जाती है। साथ ही राइट्स इकोनॉमी का करीब 20 फीसदी हिस्सा कृषि उत्पादन को देने में कोई दिक्कत नहीं हो सकती। ऐसा करने के लिए सरकार अगर 'फर्स्ट परचेज मिनिमम प्राइस' या 'फर्स्ट ट्रेड मिनिमम प्राइस' (एफटीएमपी) की अवधारणा को लागू करती है या वैधानिक प्राधिकरण के साथ एक डिजिटल प्लेटफॉर्म बनाकर बेहतर अवधारणा बनाती है, तो किसान भी विकास कर सकते हैं। एक और मुद्दा यह है कि जो किसान निर्वाह खेती में लगे हैं, वे अपनी जमीन बेच कर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। वे वहां जाते हैं और झुग्गियों में रहते हैं। उसके व्यर्थ जीवन पर विराम लगाना, अंकुश लगाना आवश्यक है। कृषि के इस तरह के अवैध हस्तांतरण को रोकने के लिए अभियान चलाया जाना चाहिए। बेशक, यह मुद्दा गंभीर है और सभी शासकों और किसानों को इस पर विचार करना चाहिए।

रविवार, 13 नवंबर 2022

फलों, सब्जियों में केमिकल की मात्रा खतरनाक स्तर पर

केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय ने देश भर में फलों और सब्जियों में रसायनों के स्तर को कम करने के लिए तत्काल उपाय करने का आदेश जारी किया है। तभी से फलों और सब्जियों में रसायनों की मात्रा चर्चा में आ गई है। अनुकूल जलवायु के कारण देश में बारहमासी फल और सब्जियों का उत्पादन होता है। जलवायु परिवर्तन के कारण रोग, कीट, कवक बढ़ रहे हैं। इस रोग से बचने के लिए और यदि ऐसा होता है तो जल्द से जल्द फसल की क्षति को कम करने के लिए विभिन्न प्रकार के रसायनों, कीटनाशकों, फफूंदनाशकों का छिड़काव करना पड़ता है। अक्सर फलों और सब्जियों की ग्रोथ तेज होने के लिए, फलों का आकार तेजी से बढ़ाने, आकार में एक समान, आकर्षक रंग देने के लिए भी रसायनों का छिड़काव किया जाता है। इनमें से कई रसायनों के निशान सब्जियों या फलों में लंबे समय तक बने रहते हैं। यही रसायनों की मात्रा मानव स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है।

फलों और सब्जियों पर कीटनाशकों, फफूंदनाशकों सहित विभिन्न रसायनों का छिड़काव किया जाता है। इनमें से कुछ दवाएं सामयिक ( स्पर्शजन्य) हैं और कुछ अंतःशिरा हैं। संपर्क स्प्रे फलों, सब्जियों या फलों के पेड़ों की पत्तियों पर लगाया जाता है। छिड़काव किया जाता है। औषधीय छिड़काव सीधे संबंधित रोगों, कीट, कवक पर किया जाता है।  उन दवाओं को छूने या दवा के संपर्क में आने के बाद उनके  जोखिम कम कर देता है। कुछ दवाएं अंतःशिरा हैं। उनके छिड़काव के बाद, संबंधित रसायन फलों के छिलके पर, पत्ती की नसों या छोटे छिद्रों के माध्यम से अवशोषित हो जाते हैं। संबंधित रसायन फलों के पेड़ के रस के साथ मिल जाता है। इसके बाद कीट या फंगस द्वारा रस सोख लिया जाता है, कीट या फंगस का संक्रमण कम हो जाता है। इसका मतलब है कि संबंधित रसायन पूरे फल के पेड़ में मिल जाता है। लेकिन ऐसे रसायन मानव स्वास्थ्य के लिए बहुत खतरनाक होते हैं।

केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने राज्य के कृषि मंत्रालयों को भेजे पत्र में कहा है कि देश में फलों और सब्जियों में रसायनों की मात्रा अधिकतम सीमा से अधिक पाई गई है। इन रसायनों के स्तर को न्यूनतम रखा जाना चाहिए। इसके लिए किसानों, संबंधित फलों और सब्जियों के उत्पादकों में जागरूकता पैदा करने के लिए एक तत्काल योजना को लागू करना आवश्यक है। आदेश में कहा गया है कि संबंधित खतरनाक रसायनों का उपयोग किए बिना उत्पादन पर प्रशिक्षण देने की आवश्यकता है और राज्य सरकार इस संबंध में किए गए उपायों की एक विस्तृत प्रदर्शन रिपोर्ट केंद्र के कृषि विभाग को प्रस्तुत करे। केंद्र के कृषि विभाग का आदेश मिलते ही राज्य के कृषि विभाग के गुणवत्ता नियंत्रण विभाग ने कीटनाशकों के उपयोग के प्रति जागरूकता बढ़ाने का आदेश जारी किया है। जिला अधीक्षक कृषि अधिकारियों को दिये गये आदेश में किसानों में जागरूकता पैदा करें।  आदेश में कहा गया है कि उन्हें खतरनाक कीटनाशकों के इस्तेमाल के बारे में प्रशिक्षण दें।

यदि किसी कृषि उत्पाद, फल, सब्जी को यूरोप और अमेरिका भेजा जाना है, तो संबंधित कृषि उत्पादों को बहुत सख्त परीक्षणों से गुजरना पड़ता है। तभी भारतीय कृषि उत्पाद यूरोप और अमेरिका में प्रवेश कर सकते हैं। सभी विकसित देशों में समान कड़े मानदंड हैं। खाड़ी, अरब, अफ्रीकी देशों के नियमों में काफी हद तक ढील दी गई है। इसलिए हमारे कृषि उत्पादों को यूरोप और अमेरिका के बाजारों में ज्यादा जगह नहीं मिलती है। हमारे कृषि उत्पाद, फल और सब्जियां अपेक्षाकृत कम मानकों के कारण बड़े पैमाने पर एशियाई, खाड़ी और अफ्रीकी देशों में जाते हैं। यूरोपीय संघ ने आयातित कृषि उत्पादों के लिए अपने मानदंडों को और कड़ा कर दिया है। अब नए नियमों के अनुसार यह घोषणा की गई है कि फलों, सब्जियों और कृषि उत्पादों में कीटनाशकों का अवशेष 0.01 पीपीएम से अधिक नहीं होना चाहिए। इन नए नियमों से यूरोपीय संघ में अंगूर, अनार और केले के निर्यात पर बड़ा असर पड़ने की आशंका है। विश्व व्यापार संगठन के आयात-निर्यात के संबंध में कुछ नियम हैं।  कृषि स्वास्थ्य और स्वच्छता के संबंध में (सॅनिटरी और फायटोसॅनिटरी  मानदंड और समझौते निर्धारित किए गए हैं। इसमें विभिन्न प्रकार के अनाज, फल, सब्जियां, विभिन्न प्रकार के मांस आदि शामिल हैं। इन मानदंडों को लागू करने के बाद ही कृषि उत्पादों का निर्यात किया जाना है।

हमारे देश के कुछ राज्य फलों के साथ-साथ विभिन्न प्रकार की पत्तेदार सब्जियों के उत्पादन और निर्यात में अग्रणी हैं। लेकिन, इन कृषि उत्पादों के उत्पादन के दौरान, कीटों, बीमारियों और कवक को तुरंत नियंत्रित करने के लिए, अत्यधिक विषैले (रसायनों की उच्च सांद्रता) कीटनाशकों और फफूंदनाशकों का उपयोग किया जाता है। किसानों में जागरूकता पैदा कर कौन सा रसायन, कवकनाशी मानव शरीर के लिए हानिकारक है। इसकी जानकारी देकर संबंधित दवाओं के छिड़काव से बचा जा सकता है। इसके अलावा, दवा की पैकेजिंग पर यह स्पष्ट रूप से लिखा होना चाहिए कि फल और सब्जियों में संबंधित दवा की रासायनिक सामग्री कितनी देर तक रहती है। इन हानिकारक रसायनों, औषधियों के प्रयोग से बचना संभव है, ऐसी औषधियों के प्रयोग से बचना चाहिए। अथवा किसानों के लिए आवश्यक वैकल्पिक दवाओं की बाजार में उपलब्धता बढ़ाई जाए। प्रकृति में विविधता है।  हमें इसे स्वीकार करना चाहिए। इसलिए शहरी उपभोक्ता अंगूर खरीदते समय सोचते हैं कि अंगूर के गुच्छे में सभी दाने एक जैसे होने चाहिए। यह कहना गलत है कि रंग एक जैसा होना चाहिए। टमाटर खरीदते समय शहरी उपभोक्ता सभी टमाटर समान आकार, समान आकर्षक रंग के  खरीदना पसंद करते हैं। लेकिन, यह प्रकृति के नियम के खिलाफ है। फिर भी शहरी शिक्षित उपभोक्ताओं द्वारा इसकी मांग की जाती है। ऐसा करने के लिए किसान बड़ी मात्रा में रसायनों और दवाओं का उपयोग करते हैं। इसलिए यदि उपभोक्ता अपनी आदतों को बदलते हैं, तो किसान अपने आप रसायनों का उपयोग कम कर देंगे। किसानों को महंगी दवाओं पर भी खर्च नहीं करना पड़ेगा और मानव स्वास्थ्य को नुकसान नहीं होगा।

शुक्रवार, 11 नवंबर 2022

यूजीसी ने पीएचडी प्रवेश के लिए पात्रता मानदंड में किया बदलाव

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने पीएचडी प्रवेश के लिए पात्रता मानदंड में कुछ बदलाव किए हैं। इस संबंध में नए नियम विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा 7 नवंबर को जारी किए गए थे। इसके मुताबिक पीएचडी के लिए सीधे ग्रेजुएशन के बाद एडमिशन लिया जा सकता है। साथ ही जो लोग नौकरीपेशा में हैं, वे भी अब पीएचडी के लिए प्रवेश ले सकेंगे। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने पीएचडी प्रवेश के लिए पात्रता मानदंड में बदलाव किया है। इसके लिए अब स्नातकोत्तर डिग्री की आवश्यकता नहीं होगी।  हालांकि इसके लिए यूजीसी ने कुछ शर्तें भी लगाई हैं। जिन छात्रों ने न्यूनतम 75% अंकों या समकक्ष सीजीपीए के साथ चार वर्षीय डिग्री कोर्स पूरा कर लिया है, वे पीएचडी में सीधे प्रवेश के लिए पात्र होंगे। जिन्होंने चार साल के डिग्री कोर्स के बाद मास्टर डिग्री के लिए एडमिशन लिया है।  उन्हें पहले या दूसरे वर्ष में पीएचडी के लिए भी प्रवेश मिलेगा। हालांकि तीन वर्षीय डिग्री कोर्स के छात्रों को पीएचडी के लिए प्रवेश दो वर्षीय मास्टर डिग्री 55 फीसदी अंकों के साथ पूरा करने के बाद ही मिलेगा।

कई विश्वविद्यालयों ने मांग की थी कि एम.फिल के छात्रों को भी पीएचडी के लिए प्रवेश दिया जाए। इसके अनुसार जिन छात्रों ने अपना शोध पत्र जमा कर दिया है और वाई-व्हा रह चुके हैं, वे भी अब पीएचडी के लिए प्रवेश ले सकेंगे। इसके साथ ही नौकरीपेशा लोग भी अब पार्ट टाइम पीएचडी के लिए एडमिशन ले सकते हैं।  इसके लिए जिस कार्यालय में कार्यरत हैं उसका अनुमति पत्र विश्वविद्यालय को जमा करना अनिवार्य है। नए नियमों के मुताबिक प्रवेश प्रक्रिया में कोई बड़ा बदलाव नहीं किया गया है।  अब तक के नियमों के अनुसार, छात्रों को विश्वविद्यालय या कॉलेज स्तर पर पीएचडी के साथ-साथ नेट/जेआरएफ परीक्षा के माध्यम से प्रवेश दिया जा सकता है। हालांकि, विश्वविद्यालय या कॉलेज स्तर पर आयोजित प्रवेश परीक्षा के पाठ्यक्रम का 50 प्रतिशत शोध पद्धति होना चाहिए, जबकि शेष 50 प्रतिशत पाठ्यक्रम विषय से संबंधित होना चाहिए।

कुछ दिन पहले यूजीसी के सामने नेट-जेआरएफ पास करने वाले छात्रों को पीएचडी दाखिले के लिए 60 फीसदी आरक्षण देने का प्रस्ताव रखा गया था। लेकिन यूजीसी ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है। यह बात यूजीसी अध्यक्ष एम.  जगदीश कुमार ने बता दिया है। रिसर्च सुपरवाइजर्स (पीएचडी गाइड) के मामले में भी कुछ नए नियम लागू किए गए हैं। पुराने नियमों के अनुसार, योग्य प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और सहायक प्रोफेसर क्रमशः तीन, दो और एक एम.फिल छात्रों का मार्गदर्शन कर सकते थे। हालांकि अब नए नियमों के मुताबिक प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और असिस्टेंट प्रोफेसर क्रमश: आठ, छह और चार छात्रों का मार्गदर्शन कर सकेंगे। साथ ही नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत एम.फिल पाठ्यक्रम को रद्द कर दिया गया है। इसके साथ ही नए नियमों के मुताबिक यह भी कहा गया है कि जिन प्रोफेसरों की सेवानिवृत्ति तीन साल दूर है, वे किसी भी छात्र का मार्गदर्शन नहीं कर सकेंगे।

सोमवार, 7 नवंबर 2022

गुजरात में बीजेपी का 150 का ध्यान, लेकिन 'आप' भी सावधान!

गुजरात विधानसभा चुनाव में बमुश्किल एक महीना दूर है।  राज्य में 1995 से सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी को इस साल आम आदमी पार्टी के साथ कांग्रेस ने भी चुनौती दे दी है। हालांकि यह एक मध्यम आकार का राज्य है, यह प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के साथ-साथ केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का गृह भी राज्य है।  इसलिए यहां के नतीजे का असर देश की राजनीति पर पड़ेगा। करीब तीन दशक से गुजरात में बीजेपी और कांग्रेस के बीच ऐसा ही मैच चल रहा था।  लेकिन इस साल दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी राज्य में माहौल बनाने में कामयाब रही है। पंजाब की तरह उन्होंने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की भी घोषणा की।  केजरीवाल ने पत्रकार इसुदान गढ़वी के नाम की घोषणा की है। राजनीति में संदेश मायने रखता है। इसलिए अगर आम आदमी पार्टी जीतने में विफल रहती है, तो राष्ट्रीय राजनीति में उसका मार्गक्रमण इस बात पर निर्भर करेगा कि वह कितनी सीटें जीतती है। वहीं बीजेपी पिछली बार यानी 2017 के विधानसभा चुनाव में 99 सीटें जीतने में सफल रही थी। बेशक, 182 सदस्यीय गुजरात विधानसभा में भाजपा ने बहुमत हासिल किया था। लेकिन केंद्र में सत्ता में रहते हुए तीन अंकों की सीटें जीतने में पार्टी की विफलता उनके लिए एक झटका थी। उस समय पटेल आरक्षण आंदोलन जोरों पर था। प्रदर्शनकारियों पर फायरिंग की भी घटना हुई थी। भाजपा को इसका दंश महसूस हुआ, नतीजतन, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रचार का सूत्र अपने हाथ में ले लिया, तब जा के भाजपा सत्ता की नाव को पार करने में सफल रही। इस साल स्थिति अलग है।

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लंबे समय तक गुजरात का नेतृत्व किया। 1987 में, पार्टी संगठन में जिम्मेदारी निभाते हुए, उन्होंने भाजपा को अहमदाबाद नगर निगम जीत कर दिया था। अब भी बीजेपी का भरोसा सिर्फ मोदी पर है। बेशक, पार्टी राज्य में गहराई से संगठित है। पिछली बार बीजेपी की सीटें कम हुई थी, उसे 49 फीसदी वोट मिले थे।  इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता । कांग्रेस के पास भी  30 से 35 प्रतिशत हुक्मी वोट हैं। पिछली बार तो विधानसभा में कांग्रेस को करीब 42 फीसदी वोट मिले थे। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी ने राज्य की सभी 26 लोकसभा सीटों पर 60 फीसदी वोट हासिल कर जीत हासिल की थी। उस वक्त भी कांग्रेस के पास 30 फीसदी वोट थे।  मतलब है कि कांग्रेस के पास एक गारंटीकृत मतदाता है। बीजेपी के पास भी पारंपरिक वोटर है। इन दोनों के बीच लड़ाई में विधानसभा में सीटों की गणना इस बात पर निर्भर करेगी कि आम आदमी पार्टी किसके वोट ले लेगी। शहरी इलाकों में बीजेपी की स्थिति बेहतर है। राज्य में 60 से 65 शहरी निर्वाचन क्षेत्र हैं। इनमें से ज्यादातर सीटें पिछली बार बीजेपी ने 60 फीसदी से ज्यादा वोटों से जीती थीं। इसलिए, अगर आम आदमी पार्टी शहरी सीटों पर कांग्रेस के वोट लेती है, तो भाजपा को और अधिक लाभ होगा। लेकिन अगर आप बड़े पैमाने पर बीजेपी की वोटों को  अपनी ओर मोड़ने में सफल होती है, तो शहरी क्षेत्रों में परिणाम प्रभावित होंगे। नहीं तो यह तस्वीर है कि शहरी सीटों पर बीजेपी को रोकना मुश्किल होगा।

राज्य में बीजेपी 27 साल से सत्ता में है।  इस साल महंगाई का मुद्दा प्रचार के केंद्र में है। इसके अलावा बेरोजगारी की समस्या भी गंभीर है। चूंकि भाजपा सत्ता में है, इसलिए विपक्ष इन दोनों मुद्दों पर उसे  कैची में पकड रही है। ऐसे में बीजेपी को मोदी के नेतृत्व में चुनाव का सामना करना पड़ रहा है। पिछले पांच वर्षों में राज्य में भाजपा के तीन मुख्यमंत्री रहे हैं। मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल मितभाषी हैं। भाजपा ने पहली बार विधायक बनने के बावजूद पटेल समुदाय के वोट बैंक को संभालने के लिए उन्हें राज्य सौंप दिया। उनके नेतृत्व में बीजेपी ने स्थानीय चुनावों में जीत हासिल की है। बेशक, इस समय यह कहना मुश्किल है कि नतीजे आने के बाद भूपेंद्रभाई को दोबारा मुख्यमंत्री का पद मिलेगा या नहीं। भाजपा नेतृत्व सदमे की रणनीति के माध्यम से किसी और को नेता के रूप में ला सकता है।

अधिकांश जनमत सर्वेक्षणों ने भाजपा को 115 से 135 सीटें मिलने की भविष्यवाणी की है। 1985 में, कांग्रेस पार्टी ने राज्य के एक अनुभवी  नेता, तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय माधवसिंह सोलंकी के नेतृत्व में 149 सीटें जीतीं थी। यह एक रिकॉर्ड है। 1980 में भी कांग्रेस ने 141 सीटें जीती थीं। उन्होंने यह सफलता 'खाम' यानी क्षत्रिय, दलित, आदिवासी और मुस्लिम के समीकरण के आधार पर हासिल की थी। आगे इसी समीकरण को तोड़ते हुए बीजेपी ने हिंदुत्व के दम पर राज्य में अपनी पकड़ बनाई। 2002 में भाजपा द्वारा जीती गई 127 सीटें उसका अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है। अब बीस साल बाद बीजेपी 150 सीटों का रिकॉर्ड बनाने की कोशिश कर रही है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की उपस्थिति कम से कम मीडिया के विमर्श में उतनी प्रमुख नहीं है। उसकी तुलना में आम आदमी पार्टी माहौल बनाने में सफल रही है। सवाल यह है कि क्या बीजेपी इन दोनों के वोट बंटवारे का फायदा उठाकर सीटों का रिकॉर्ड बनाएगी। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, मुक्त पत्रकार

शनिवार, 5 नवंबर 2022

सिर से मोबाइल 'हटाने' के लिए 'क्लीनिक'

यदि आप व्यसनों की सूची बनाना चाहते हैं, तो आपकी आंखों के सामने क्या आता है?  शराब, सिगरेट, तंबाकू, ड्रग्स... यहां और अधिक हो जाएंगे;  लेकिन समाज के संदर्भ में, यह मुख्य है। लेकिन इस लिस्ट में दिन-ब-दिन मोबाइल और तरह-तरह के गैजेट्स जुड़ते जा रहे हैं। एक नाम जो हाल ही वर्षों से चलन में आया है वह है शॉपिंग! लेकिन ये लिस्ट यहीं नहीं रुकती। हाल ही में इसमें वीडियो गेमिंग को भी शामिल किया गया है।

बच्चों और युवाओं में मोबाइल का चलन इन दिनों काफी बढ़ गया है। एक बार बच्चे इस मोबाइल के जाल में फंस जाते हैं तो इससे बाहर निकलना बहुत मुश्किल होता है। इसलिए, जितने बाद में मोबाइल फोन बच्चों के हाथ में आ जाए, तो बेहतर है। दुनियाभर के अभिभावकों में इसको लेकर जागरूकता बढ़ रही है। इसके लिए वे ईमानदारी से प्रयास कर रहे हैं, इसके लिए सामाजिक आंदोलन भी शुरू हो गए हैं। लेकिन क्या बच्चों के हाथ में मोबाइल फोन आना बंद हो गया है? क्या कम से कम उनके आयु वर्ग में वृद्धि हुई? तो नहीं।  इसके उलट अब छोटे बच्चों को पास भी मोबाइल फोन मिलने लगे हैं। यह सच है कि दुनिया भर के लगभग सभी माता-पिता इस बात से वाकिफ हैं लेकिन इसके बारे में कुछ नहीं कर पाए हैं। हालांकि, इसने एक और बड़ा खतरा पैदा कर दिया है, वह है मोबाइल पर वीडियो गेम खेलने का। दुनिया भर में इसका प्रचलन इस कदर बढ़ रहा है कि अब यह व्यसनों की सूची में शामिल हो गया है। यहां तक ​​कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इंटरनेशनल क्लासिफिकेशन ऑफ डिजीज (आयसीडी) के नवीनतम संस्करण में इस लत को गेमिंग डिसऑर्डर के रूप में वर्गीकृत किया है। जिस तरह दुनिया भर में नशा करने वालों के लिए स्वतंत्र क्लीनिक खुल गए हैं, उसी तरह कई देशों में गेमिंग डिसऑर्डर के इलाज के लिए क्लीनिक खुल रहे हैं। ब्रिटेन के रिट्ज़ी प्रैरी क्लिनिक ने भी इसका इलाज शुरू कर दिया है।  वह नशा करने वालों की सूची में वीडियो गेम के नशेड़ी भी शामिल हैं जो इससे जल्दी से बाहर नहीं निकल सकते हैं।

कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के एक मनोवैज्ञानिक, रूण नीलसन का कहना है कि जिस तरह एक व्यक्ति को वर्षों के निरंतर सेवन करने के बाद जुआ, निकोटीन, मॉर्फिन या अन्य दवाओं का आदी हो जाता है, ठीक वैसी ही स्थिति वीडियो गेम या ऑनलाइन गेमिंग व्यसन में पाई जा सकती है। इसलिए गेमिंग की इस लत से बाहर निकलने के लिए भी सचेत प्रयासों की जरूरत है और इसके लिए मरीज की सकारात्मकता बहुत जरूरी है। जुए के अलावा, आयसीडी सूची में केवल गेमिंग को एक लत के रूप में वर्णित किया गया है। एक बार जब कोई व्यक्ति नशीले पदार्थों जैसे मादक द्रव्यों का आदी हो जाता है, तो व्यक्ति को सही या गलत का कोई बोध नहीं होता है। वे अपनी जान भी जोखिम में डालने को तैयार हैं। जब उनका जीवन बर्बाद हो जाता है, तब भी वे इसकी परवाह नहीं करते, वे उस लत से मुक्त होने को तैयार नहीं होते हैं। यह लत इतनी गंभीर है कि यह गेमिंग डिसऑर्डर के कारण होने वाली लत के समान है। हालांकि, कई लोग अभी भी इसे एक लत नहीं मानते हैं, जो इस लत के शिकार हो चुके हैं। उन्हें लगता है कि यह सामान्य बात है। उल्टे उन्हें डर है कि अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो हम पीछे छूट जाएंगे। इसलिए इस लत की मात्रा दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है।  विशेषज्ञों को चिंता है कि इसके परिणाम न केवल एक पीढ़ी, बल्कि देश को भी प्रभावित करेंगे।

सिएटल में गेमिंग एडिक्शन क्लिनिक रिस्टार्ट की निदेशक हिलेरी कैश का कहना है कि मेरे पास आने वाले ज्यादातर मरीज युवा हैं। उनमें से कई को गेमिंग की लत के कारण स्कूल या कॉलेज से निकाल दिया गया है। इसमें भी लड़कों की संख्या लड़कियों से कहीं ज्यादा है। मनोवैज्ञानिक रूण नीलसन के अनुसार, गेम डिवेलपर्स भी गेम डिजाइन करते समय मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से बहुत कुछ सोचते हैं। यह मुख्य रूप से इस बारे में सोचता है कि युवाओं को अधिकतम समय तक कैसे जोड़ा जाए, वे इसके आदी कैसे होंगे।

एक समय था जब आपको कोई भी वीडियो गेम खेलने के लिए पैसे देने पड़ते थे। यह कंपनी और उपयोगकर्ता के बीच केवल समय का लेनदेन था;  लेकिन अब कंपनियां 'फ्रीमियम' बिजनेस मॉडल लेकर आई हैं। यह लोगों को मुफ्त में गेम खेलने की अनुमति देता है। कंपनियां इन दिनों विज्ञापन के जरिए अरबों डॉलर कमाती हैं। उनके कमाई का 73 फीसदी हिस्सा फ्री-टू-प्ले गेम्स से आता है। ॲपल के ऐप स्टोर से होने वाली कमाई का 70 प्रतिशत हिस्सा गेमिंग के कारण होता है! - मच्छिंद्र ऐनापुरे, मुक्त पत्रकार

अपराध की रोकथाम के लिए व्यापक योजनाओं की आवश्यकता

 राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट देश की सामाजिक स्थिति का आईना है। उसमें दिख रहे समाज का प्रतिबिंब देखकर  अपराध की रोकथाम के लिए एक व्यापक योजना बनाई जाए, इसका समय आ गया है। आजादी के समय हमारी आबादी लगभग 37 करोड़ थी जो 2021 तक 139 करोड़ हो गई है। यानी हर साल औसतन 1.36 करोड़ की बढ़ोतरी होती है। हम जनसंख्या वृद्धि की तुलना में सामाजिक विकास की गति को बनाए रखने में सक्षम नहीं बन सके। ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में अभी भी आवास, स्वच्छ पेयजल, शौचालय, शिक्षा, कौशल विकास या रोजगार की कमी है। भारत में बढ़ते सामाजिक और पारिवारिक अपराधों पर विचार करते समय इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना होगा। हाल के दिनों में सामाजिक समस्याओं, कानून व्यवस्था, चोरी और अन्य सामाजिक अपराधों में वृद्धि हुई है। नागरिकों को विदेश से उपहार देने का लालच देकर ऑनलाइन धोखाधड़ी, बैंक विवरण या सेल नंबर अपडेट करके समाप्त होने की धमकी देना, सड़क पर चलने वाली महिलाओं या वरिष्ठ नागरिकों से मोबाइल फोन छीनना, आत्महत्या, वाहन चोरी, घर में चोरी, बैंक डकैती,  हत्या, सोने के आभूषण या नकदी जैसे अपराध बढ़े हैं। अपराधों की सूची बहुत बड़ी है और पुलिस विभाग के लिए इतने सारे अपराधों पर नकेल कसना और अपराधियों को गिरफ्तार करना और दंडित करना वास्तव में एक चुनौती है। कुछ मामलों में जमानत पर छूटे लोगों ने अपराध करना जारी रखा है। इससे पता चलता है कि पुलिस और कानून व्यवस्था का पर्याप्त डर नहीं है।

वित्तीय अपराध हैं;  लेकिन इसके अलावा बलात्कार, यौन उत्पीड़न, धोखाधड़ी, ऋणों का भुगतान न करना, भ्रष्टाचार अभूतपूर्व हैं और यह चिंता का विषय है कि वे ज्यामितीय रूप से बढ़ रहे हैं। भारत के राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो ने अपराध रिपोर्ट 2020 प्रकाशित की है। यह रिपोर्ट केवल राज्य द्वारा अपराध के आंकड़े प्रदान करती है;  लेकिन यह कानून और व्यवस्था में सुधार और अपराध को कम करने के कारणों, टिप्पणियों और कार्य योजनाओं के बारे में कुछ नहीं कहता है। दरअसल, ऐसा होना चाहिए था। रिपोर्ट के मुताबिक साल 2019 में अपराध में 28 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।  2019 में कुल 32 लाख 25 हजार 597 और 2020 में 42 लाख 54 हजार 356 अपराध दर्ज किए गए। एनसीआरबी-क्राइम इन इंडिया 2020 रिपोर्ट के मुताबिक, तमिलनाडु में 8 लाख 91 हजार 700 अपराध दर्ज किए गए हैं।  महाराष्ट्र - 3 लाख 94 हजार 17, गुजरात - 3 लाख 81 हजार 849, उत्तर प्रदेश - 3 लाख 55 हजार 110, मध्य प्रदेश - 2 लाख 83 हजार 881, दिल्ली एनसीआर - 2 लाख 49 हजार 192 अपराध दर्ज हैं। ये आंकड़े केवल रिपोर्ट किए गए अपराधों के लिए हैं। अगर गैर दर्ज अपराध को लिया जाए तो यह और भी बढ़ जाएगा। 2020 में बाल शोषण अपराधों में 400 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और केरल बाल शोषण के सबसे अधिक मामलों वाले प्रमुख राज्य हैं। यह एक और क्षेत्र है जहां माता-पिता और शिक्षकों को समय-समय पर बच्चों के मोबाइल फोन के उपयोग की निगरानी और निरीक्षण करने की आवश्यकता होती है। 

यह महत्वपूर्ण है कि समाज के सभी हितधारक कानून और व्यवस्था में सुधार के लिए शीघ्रता से सोचें और कार्य करें। नागरिकों के साथ-साथ स्थानीय पुलिस प्रशासन, सरकार, राजनीतिक दल, शिक्षा व्यवस्था, कानून बनाने वाले, मीडिया, सामाजिक संगठन, धार्मिक नेता, शिक्षक बदलाव ला सकते हैं। सामाजिक ढांचे को बदलना होगा।  कानून का भय पैदा करने और सामाजिक मूल्यों को विकसित करने के लिए दोहरे प्रयास की जरूरत है। अकेले न्यायपालिका इतने विशाल मौजूदा कानूनों के साथ न्याय नहीं कर सकती। जिस समाज में हम रहते हैं, अगर इतने सारे अपराधी पैदा होते हैं, तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है? यदि हम मानव विकास सूचकांक में सुधार करना चाहते हैं, तो अपराध को कम करने के लिए सभी को मिलकर सोचने और कार्य करने की आवश्यकता है। यह न केवल शांति के लिए बल्कि सामाजिक-आर्थिक प्रगति के लिए भी फायदेमंद होगा। अपराधियों को जल्द से जल्द सजा दिलाने के लिए कानूनों में बदलाव किया जाना चाहिए। कानून प्रवर्तन एजेंसियों की कार्यक्षमता और ईमानदारी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। आपराधिक अदालतों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए और कानूनी व्यवस्था को पारदर्शी और कुशल बनाया जाना चाहिए ताकि मामलों का त्वरित निपटान किया जा सके। यह देखना बहुत जरूरी है कि अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा मिले। बलात्कार, हत्या, यौन शोषण, मनी लॉन्ड्रिंग, भ्रष्टाचार आदि जैसे कुछ अपराधों के लिए कठोर दंड देने के लिए भारतीय दंड संहिता में समय-समय पर संशोधन किया जाना चाहिए। इसके अलावा, विभिन्न सामाजिक और धार्मिक विश्वासों, मूल्य प्रणालियों, सोचने के तरीकों और समस्याओं के प्रति दृष्टिकोण को बदलने की जरूरत है। 


सामाजिक समरसता भी जरूरी है। ईमानदार और अच्छे सामाजिक कार्य करने वालों को पर्याप्त प्रचार दें, उन्हें वह इनाम दें जिसके वे हकदार हैं, इस तरह के कृत्यों को आज की तुलना में कहीं अधिक गरिमा और दर्जा दें। मीडिया इस संबंध में परिवर्तनकारी भूमिका निभा सकता है। सोशल मीडिया को नियंत्रित करने की आवश्यकता है जो नकली वीडियो या लेखन को प्रसारित करता है जो मूल्यों, विश्वासों और भावनाओं को भड़काते हैं। इस संबंध में सार्वजनिक शिक्षा की भी आवश्यकता है। सामाजिक अपराधों की एक उच्च घटना देश की छवि के लिए हानिकारक है। क्योंकि इससे देश की विश्वास, आस्था और प्रतिष्ठा पर विपरीत असर पड़ता है। पर्यटन, आतिथ्य सत्कार जैसे व्यवसायों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने का खतरा है। यह देश के समग्र सामाजिक-आर्थिक विकास को भी प्रभावित करता है। अपराध को नियंत्रण में लाने और अपराधियों को जल्द से जल्द दंडित करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को एक साथ मिलकर 'रोड मैप' तैयार करना चाहिए। इसे राष्ट्रीय आपदा मानकर पार्टियों को इस मुद्दे पर भी एकजुट होना चाहिए। भारत सरकार डिजिटल साक्षरता, मध्याह्न भोजन, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना जैसी कई योजनाओं को लागू कर रही है। लेकिन अब अपराध नियंत्रण के लिए एक योजना को लागू करने की जरूरत है। अपराध से सुरक्षित रहने, बरती जाने वाली सावधानियों, कानूनी अधिकारों और महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा आदि के बारे में नागरिकों में सामाजिक जागरूकता पैदा करने के लिए एक संगठन की आवश्यकता है। कम से कम एक अच्छे मानव जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं जैसे पेयजल, स्वच्छता, पर्याप्त भोजन, शिक्षा और सभी के लिए आजीविका रोजगार के अवसर सुनिश्चित किए जाने चाहिए। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, मुक्त पत्रकार 

शुक्रवार, 4 नवंबर 2022

व्यक्तित्व विकास में पठन का महत्व

नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम और अन्य ओटीटी प्लेटफॉर्म के साथ आज की पीढ़ी पढ़ने की आदत से दूर होती जा रही है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि ये प्लेटफॉर्म महत्वपूर्ण नहीं हैं। लेकिन हर चीज के लिए इष्टतम समय दिया जाना चाहिए। हममें से कितने लोग नियमित रूप से पढ़ते हैं? स्कूलों और कॉलेजों में बच्चे अक्सर पढ़ने की उपेक्षा करते हैं।  पढ़ना एक खूबसूरत कला है और इसे हर किसी को अपनाना चाहिए। आइए जानते हैं पढ़ने के कुछ चुनिंदा फायदों के बारे में: 1)ज्ञान पर जोर- पढ़ने से हमारे ज्ञान में वृद्धि होती है।  आसपास की दुनिया से जानकारी थी। यदि कोई व्यक्ति अशिक्षित रहता है, तो उसे हर जगह ठगा जाता है। पढ़ने से हम ज्ञान प्राप्त करते हैं और उसका सही उपयोग करते हैं। पढ़ना किसी भी चीज़ के बारे में जानने का प्रवेश द्वार है। जितना अधिक आप पढ़ेंगे, उतना ही अधिक ज्ञान प्राप्त करेंगे।

2) कल्पना को बढ़ाता है- पढ़ने से कल्पना शक्ति बढ़ती है।  व्यक्ति में साहस का संचार करता है।  पढ़ना जीवन को सकारात्मक दिशा देता है। जो व्यक्ति पढ़ता है उसमें अलग-अलग तरीकों से सोचने की क्षमता होती है। जब हम टेलीविजन या फिल्में देखते हैं, तो हमें स्क्रीन पर सारी जानकारी दी जाती है। आपको कल्पना करने की आवश्यकता नहीं होती है। और दूसरी तरफ किताब सिर्फ पन्नों पर लिखे शब्द हैं, हमें उन शब्दों के अर्थ को समझना होगा है। यह आपकी रचनात्मकता और कल्पना को विकसित करने में मदद करता है।

3) शब्दावली और संचार में सुधार करता है- पढ़ना शब्दावली में सुधार और वर्तनी कौशल में सुधार करने का एक शानदार तरीका है। पढ़ने से शब्दावली बढ़ती है।  जिसका उपयोग हम निबंध, क्यूरेशन, लेखन में कर सकते हैं। हर दिन पढ़ने का एक घंटा आपको सालाना चार लाख शब्दों को उजागर करता है। 4) एकाग्रता में सुधार करता है- पढ़ना न केवल आपको काम पर केंद्रित रखता है, बल्कि यह आपको जानकारी में भी डुबो देता है, आप जो पढ़ते हैं वह एकाग्रता और याददाश्त में सुधार करता है। पढ़ना आपको अपने मस्तिष्क का उपयोग करने के लिए मजबूर करता है, जिससे आपकी एकाग्रता में सुधार होता है। यदि आप अपनी याददाश्त और एकाग्रता में सुधार करने और तनाव कम करने के तरीकों की तलाश कर रहे हैं, तो पढ़ना आपकी मदद करेगा।

5) व्यक्तित्व खुलता है- शब्दावली में वृद्धि के साथ, आप एक बेहतर संचारक बनेंगे। यदि हम पढ़ना पसंद करते हैं, तो हम दोस्तों या लोगों के साथ बातचीत करते हुए किसी विषय पर चर्चा में अपनी बातों को ठीक से प्रस्तुत कर सकते हैं। यह उन्हें मिलाने में मदद करता है।  पढ़ना हमें अपनी राय व्यक्त करने में मदद करता है। पढ़ना हमें अपनी राय व्यक्त करने में मदद करता है।  आपका व्यक्तित्व प्रकाशित हो चुका होता है। यदि आपको पढ़ना शुरू करना मुश्किल लगता है, तो अपने दैनिक कार्यक्रम में पढ़ने के लिए कुछ समय निकालें। यहां तक ​​कि अगर आप सोने से पहले सिर्फ दस मिनट पढ़ने के लिए समर्पित करते हैं, तो आपको कई फायदे दिखाई देंगे। - मच्छिंद्र ऐनापुरे, मुक्त पत्रकार

गुरुवार, 3 नवंबर 2022

जीके क्विज- 1

 


जीके क्विज- 1

1. कौन सा राज्य पांचवे खेलो इंडिया यूथ गेम्स की मेजबानी करेगा? 

उत्तर - मध्य प्रदेश

2. किस राज्य में भारत के पहले व्हर्टिकल लिफ़्ट सी ब्रिज का निर्माण किया जा रहा है?

उत्तर- तमिलनाडु

 3. देश के किस शहर को 'अंतरिक्ष का शहर' नाम से भी जाना जाता है? 

उत्तर- बैंगलोर

4. केंद्र शासित प्रदेश लक्षद्वीप की राजधानी का नाम बताओ? 

उत्तर- कवरत्ती

5. वायुमंडल की सबसे निचली सतह को क्या कहते है? 

उत्तर- क्षोभमंडल

6. कार्तिक पूर्णिमा को किस सिख गुरु की जयंती मनाते हैं? 

उत्तर- गुरुनानक

7. स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति कौन थे?

उत्तर- डॉ राजेंद्र प्रसाद 

 8. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का मुख्यालय कहां है? 

उत्तर- मुंबई

9. हरे पौधोंद्वारा भोजन बनाने की क्रिया क्या कहलाती है?

उत्तर- प्रकाश संश्लेषण

10. मछली किस अंग की सहायता से सांस लेती है? 

उत्तर- गिल्स

11. फलोद्यानों का स्वर्ग किस राज्य को कहा जाता है?

उत्तर: सिक्किम

12. हाल ही में, किन्हें भारत के 2 केंद्र शासित प्रदेश घोषित किया गया है?

उत्तर: जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को

13. काला झंडा किसका प्रतीक है?

उत्तर: विरोध का

14. अंतरिक्ष का शहर किसे कहा जाता है?

उत्तर: बैंगलोर को

15. किस भारतीय पत्रकार को 2019 रेमन मैग्सेसे पुरुस्कार जीता?

उत्तर- रवीश कुमार

ऑनलाइन दोस्त बनाने में सावधानी बरतें

 टेक्नोलॉजी के विकास ने हमारे जीवन को आसान बना दिया है।  लेकिन आज के तकनीकी-प्रेमी युग में स्कूली छात्रों में भी फेसबुक, ट्विटर या इसी तरह की सोशल नेटवर्किंग साइटों के लिए बहुत बड़ा क्रेज है। बच्चे इन दिनों नए दोस्त बनाने के लिए ऑनलाइन प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करते नजर आ रहे हैं। ऐसा करना अनुचित है। एक जागरूक माता-पिता के रूप में यह आपका कर्तव्य है कि आप अपने बच्चों को फेसबुक के बारे में शिक्षित करें। इसी तरह, आपका यह भी कर्तव्य है कि आप उसे फेसबुक पर खराब चलन से बचाएं। आपको अपने बच्चों को फेसबुक पर क्या करना है और क्या नहीं करना सिखाना चाहिए। आपको यह भी बताना चाहिए कि फेसबुक पर एक गलती कितनी महंगी पड़ सकती है। आपके पास अपने बच्चे के फेसबुक अकाउंट का पासवर्ड भी होना चाहिए। इसी तरह, एक जागरूक माता-पिता के रूप में आपको हर दिन यह देखने के लिए समय निकालना चाहिए कि वह किसके साथ मित्रता करता है, चैट करता है, वह क्या साझा करता है। क्योंकि, मौजूदा एकल परिवार व्यवस्था में, ये बच्चे, जो अकेले हैं ; उनके माता-पिता काम कर रहे हैं, फेसबुक पर अजनबियों के साथ अवांछित चीजें साझा करते हैं। बहुत से लोगों को ऑनलाइन जाने का विचार रोमांचक लगता है। जबकि इसमें कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन यह कभी न भूलें कि दोस्ती की इस दुनिया में खतरे बहुत हैं। यदि आप सावधानी नहीं बरतते हैं, तो आप मुसीबत में पड़ सकते हैं और इसके बुरे परिणाम हो सकते हैं। ऐसे बच्चों के फेसबुक पर फायदा उठाने के कई मामले फिलहाल सामने आ रहे हैं। कई स्कैमर्स अभी भी फर्जी आईडी के जरिए बच्चों को ठगाते हैं। इसलिए यदि आप प्रतिदिन स्वयं उनका प्रोफ़ाइल चेक करते हैं तो आपके बच्चे इसे पसंद नहीं कर सकते हैं। लेकिन आपको माता-पिता नहीं बल्कि दोस्त बनकर उनका विश्वास हासिल करना चाहिए। तभी बच्चे अपनी सारी बातें आपसे साझा करेंगे।  'ऑनलाइन डेटिंग करते समय हमेशा अपनी आंखें और कान खुले रखें'। - मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली , महाराष्ट्र

भविष्य के साइबर खतरे

ऑनलाइन लेनदेन अब एक बुनियादी व्यावसायिक आवश्यकता है।  सभी व्यावसायिक लेनदेन विभिन्न तकनीकों का उपयोग करके किए जा रहे हैं। प्रोडक्ट डिजाइन, मैन्युफैक्चरिंग से लेकर मार्केटिंग, सेल्स अकाउंटिंग तक सब कुछ ऑनलाइन किया जा रहा है और आगे भी इसमें इजाफा होता रहेगा। प्रौद्योगिकी की लगातार बढ़ती गति से कंपनियों को लाभ हो रहा है, साथ ही व्यक्तिगत स्तर पर भी हो रहा है। कोई आश्चर्य नहीं कि साइबर अपराधियों या हैकर्स ने इस उन्नत तकनीक का लाभ उठाया है। इन सबके चलते नए तरह के ऑनलाइन खतरे सामने आ रहे हैं। ये साइबर हमले और खतरे व्यवसायों और सरकारी संगठनों के लिए खतरा बनते जा रहे हैं।  इससे संवेदनशील जानकारी के कमजोर होने और लीक होने का खतरा बढ़ जाता है।

साइबर सुरक्षा निस्संदेह पेशेवरों के लिए चिंता का विषय बन गई है। नए साइबर अपराध और साइबर सुरक्षा में नए रुझानों से अवगत होना समय की आवश्यकता है, ताकि साइबर अपराध से संबंधित नुकसान को कम करने में मदद मिल सके। आज, साइबरस्पेस विभिन्न प्रणालियों पर रैंसमवेयर हमलों में वृद्धि देख रहा है। रैंसमवेयर आज भी वेब पर सबसे बड़ा खतरा है। पिछले कुछ वर्षों की तुलना में पिछले वर्ष में रैंसमवेयर हमलों को दोगुना देखा गया है और यह वृद्धि आने वाले वर्ष में भी जारी रहेगी। साइबर क्रिमिनल नए तरीकों (कोड इनोवेशन) का इस्तेमाल कर टारगेट पर अटैक कर रहे हैं। बेशक, इस प्रकार के हमलों से निपटने के लिए बाजार में कई उन्नत डिक्रिप्शन उपकरण उपलब्ध हैं।  लेकिन जब तक इस बात का एहसास होता है तब तक ये हैकर्स लाखों लोगों को ठगने के बाद आजाद हो जाते हैं।

भविष्य में, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस साइबर अपराध और रक्षा दोनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एक नई तकनीक है जो आज के साइबर सुरक्षा परिदृश्य में उपयोगी साबित हो रही है। विभिन्न देशों की सरकारें अपने नागरिक और सैन्य बुनियादी ढांचे को सशक्त बनाने के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता पर गहन शोध और विकास कर रही हैं, जबकि आतंकवादी संगठन और हैकर इस कृत्रिम बुद्धिमत्ता की शक्ति का उपयोग लोगों को धोखा देने के लिए कर रहे हैं। बेशक, यह न केवल देशों के मामले में हो रहा है, बल्कि विभिन्न आपराधिक गिरोहों, फिशर्स, हैकर्स, क्रैकर्स और डेटा चोरों के बीच इस कृत्रिम बुद्धिमत्ता का सर्वोत्तम तरीके से उपयोग करने की होड़ होगी। दरअसल, इसकी शुरुआत हो चुकी है। बेशक, साइबर सुरक्षा विशेषज्ञ भी इस युद्ध के मैदान में प्रवेश कर चुके हैं।  भविष्य के साइबर अपराधों में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल किया जाएगा और आम लोगों को तकनीक का इस्तेमाल करते समय बेहद सावधान रहने की जरूरत है।

5 जी का विकास और आयओटी (इंटरनेट ऑफ थिंग्स) उपकरणों को अपनाने से सुरक्षा खतरे पैदा हो रहे हैं। जैसे-जैसे 5 जी नेटवर्क सभी तक पहुंचेगा, आयओटी उपकरणों का उपयोग तेजी से बढ़ेगा।  इससे बड़े पैमाने के नेटवर्क में भेद्यता बहुत बढ़ जाएगी। इससे बड़े पैमाने के नेटवर्क में व्हल्नरॅबिलिटी (भेद्यता) बढ़ेगी। दूसरा कारण यह है कि आयओटी डिवाइस और उनके नेटवर्क और क्लाउड कनेक्शन अभी भी बहुत कमजोर हैं। वाहन हैकिंग में वृद्धि होने जा रही है, जिसे कार जैकिंग भी कहा जाता है। आज की कारें व्यक्तिगत डेटा संग्रहीत करके ड्राइविंग को आसान बनाने में मदद कर रही हैं। संक्षेप में कहें तो 'ऑटोमैटिक' कारों का क्रेज पैदा हो गया है।  इन कारों में जीपीएस डिवाइस, इन-कार कम्युनिकेशन सिस्टम, सेंसर और एंटरटेनमेंट प्लेटफॉर्म लगे हैं। जो हैकर्स और डेटा चोरों के लिए तेजी से आकर्षक निशाना बनता जा रहा है। कई उपकरण निर्माता और सेवा प्रदाता अपने उत्पादों के लिए सुरक्षा प्रोटोकॉल प्रदान नहीं करते हैं, जिससे साइबर हमलावरों के लिए इंटरकनेक्टेड स्मार्ट उपकरणों और घरेलू उपकरणों के माध्यम से व्यक्तिगत नेटवर्क तक पहुंचना आसान हो जाता है। इसी तरह, आने वाले वर्षों में आपकी कार अपराधियों के लिए आपकी व्यक्तिगत जानकारी और आपके दैनिक जीवन तक पहुंच प्राप्त करने का एक उपकरण बन जाएगी। सेल्फ डाइविंग कार को हाईजैक करने का विचार इस समय एक कल्पना की तरह लग सकता है, लेकिन कार उद्योग निर्माताओं के साथ-साथ कानून प्रवर्तन को इस गंभीर खतरे से अवगत होने की आवश्यकता है।

हैकर्स और अपराधी लगातार नए-नए हमले कर रहे हैं।  स्थिर रहना उनके स्वभाव में नहीं है, इसलिए व्यवसायों को व्यवसाय में बने रहने के लिए साइबर सुरक्षा रणनीति विकसित करने की आवश्यकता है। इस सब के चलते कंपनी में काम करने वाले प्रोफेशनल्स की स्किल्स और हैकर्स में काफी अंतर होता है। जिससे बड़ा गैप पैदा हो गया है।  यह बनाया गया अंतर कंपनी को नुकसान पहुंचा सकता है। इसलिए, हर कंपनी अपने सुरक्षा पेशेवरों को प्रशिक्षण प्रदान करती है।  इसलिए साइबर हमलों को रोकने या कम करने के लिए मौजूदा कार्यबल को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है। इस प्रकार, यदि अद्यतन प्रशिक्षण प्रदान नहीं किया जाता है, तो उद्योग को अरबों डॉलर का नुकसान हो सकता है। इसलिए ऐसे नए खतरों का पता लगाने के लिए सही कौशल वाले विशेषज्ञों को नियुक्त करना आवश्यक है। 2021 तक, कंपनियों को "डेटा उल्लंघनों के परिणामस्वरूप औसतन लगभग 8 मिलियन डॉलर का नुकसान हुआ। लेकिन जब कंपनियों ने पूरी तरह से स्वचालित साइबर सुरक्षा प्रणालियों को अपनाया, तो औसत नुकसान 1.8 मिलियन डॉलर था। ऐसी परिपक्व रक्षा प्रणाली के कार्यान्वयन के लिए भी समान रूप से कुशल तकनीकी बल की आवश्यकता होती है और इसे प्राप्त करना निकट भविष्य में एक चुनौती होगी।

मोबाइल डिवाइस हैकर्स का बड़ा निशाना बन गए हैं।  मोबाइल उपकरणों का बढ़ता उपयोग साइबर हमलावरों के लिए एक बेहतरीन उपकरण बन गया है।  मोबाइल कंपनी के कर्मचारी नियमित काम के लिए नियमित रूप से मोबाइल डिवाइस का उपयोग कर रहें हैं।  मोबाइल उपकरणों का उपयोग अन्य उपकरणों को जोड़ने और कॉर्पोरेट डेटा को स्टोर करने के साथ-साथ लॉग-इन करने के लिए किया जाता है। ये मोबाइल फोन और उनकी इंटरनेट कनेक्टिविटी हैकर्स के लिए ईमेल गेटवे के माध्यम से सिस्टम तक पहुंच बनाना आसान बनाती है और कंपनी कॉर्पोरेट डेटा में आसानी से हेरफेर या चोरी कर सकती है। इसके अलावा, फ़िशिंग ईमेल, असुरक्षित वाई-फाई कनेक्शन और मोबाइल स्पाइवेयर डेटा का उपयोग हमलों को शुरू करने के लिए भी किया जा सकता है। भविष्य में खतरों की बढ़ती संख्या को ध्यान में रखते हुए, प्रत्येक कंपनी को अपने सिस्टम की सुरक्षा की रक्षा करनी चाहिए। ऐसा करने के लिए सर्वोत्तम प्रयास करना, सुरक्षा पेशेवरों को नियुक्त करना, अपने सिस्टम को अपडेट करना आवश्यक है। व्यक्तिगत स्तर पर, यदि लोग कोई नया उपकरण खरीदते हैं, तो उसकी सुरक्षा सेटिंग्स पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि यह कैसे करना है और यह कैसा होना चाहिए। सभी को इस जागरूकता के साथ काम करने की जरूरत है कि एक छोटी सी गलती से भी बड़ा नुकसान हो सकता है। 

बुधवार, 2 नवंबर 2022

मौसम आपातकाल

बढ़ते वैश्विक तापमान ध्रुवीय क्षेत्र के बर्फ की  पिघलने तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि समुद्र के स्तर को भी बढ़ा रहे हैं। इसके साथ ही पानी की सतह गर्म हो रही है और बादलों का निर्माण भी तेज गति से हो रहा है। यह लंबे समय तक बरस रहा बारिश और बादल फटने जैसे रूपों का कारण बन रहा है। इसके कारण खड़ी फसल के साथ कृषि बह रही है।  आज भारत के साथ-साथ कई एशियाई देश खाद्य सुरक्षा संकट का सामना कर रहे हैं। यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे महाद्वीप गर्मी की लहरों से घिरे हुए हैं और डेंगू और मलेरिया जैसी बीमारियां भी वहां मृत्यु दर को बढ़ा रही हैं। इस पृष्ठभूमि पर, बढ़ती गर्मी के कारण मानव मृत्यु पर लैंसेट की हाल ही में जारी वैश्विक रिपोर्ट अगले महीने मिस्र में होने वाले 27वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (सीओपी27) से पहले सभी राष्ट्राध्यक्षों के लिए आंखें खोलने वाली है।

यह जानने के बावजूद कि जीवाश्म ईंधन का अनियमित, अनियंत्रित उपयोग ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार है, 80 प्रतिशत राष्ट्र 2021 में अकेले जीवाश्म ईंधन सब्सिडी पर 400 बिलियन डॉलर खर्च किया है। भारत जैसे विकासशील देश की हिस्सेदारी 34 अरब डॉलर है। हम अपने देश के कुल राजस्व का 37.5 प्रतिशत राष्ट्रीय स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं।  यानी जीवाश्म ईंधन के लिए सब्सिडी स्वास्थ्य के लिए आरक्षित राशि के बराबर है, जो एक बहुत बड़ा विरोधाभास है। जीवाश्म ईंधन के माध्यम से हवा में कर्ब प्रदूषण होता है और  पृथ्वी की सतह से परावर्तित होने वाली गर्मी अवरुद्ध हो जाती है और तापमान बढ़ जाता है। चूंकि यह वातावरण डेंगू, मलेरिया जैसी जानलेवा बीमारियों के संचरण के लिए उपजाऊ है, इसलिए ये रोग तेजी से फैलने लगते हैं। लैंसेट की रिपोर्ट में कहा गया है कि 1951-60 की तुलना में 2012 और 2021 के बीच अमेरिका के ऊंचाई वाले क्षेत्रों में मलेरिया के प्रसार में 32.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि अफ्रीका में यह वृद्धि 14.9 प्रतिशत थी।  इसी अवधि में, दुनिया में डेंगू के मामलों की संख्या में 12 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

उम्र बढ़ने के कारण शरीर के अंग थक जाते हैं और रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है।  इसलिए यह समूह बढ़ती गर्मी से जुड़ी बीमारियों से प्रभावी ढंग से निपटने में सक्षम नहीं होते है।  यह मृत्यु दर सभी गरीब देशों में अधिक है। छोटे बच्चों की स्थिति विपरीत है।  पहले वर्ष के दौरान, बच्चा अभी-अभी माँ के दूध से निकला होता  है और बाहरी भोजन से अपनी प्रतिरक्षा बनाने की कोशिश कर रहा होता है। उनके सभी महत्वपूर्ण अंग पूरी तरह से विकसित नहीं होते हैं।  ऐसे समय में जब इस आयु वर्ग के संवेदनशील बच्चे भीषण गर्मी की चपेट में  आते हैं और इसके साथ ही तेजी से फैल रही संक्रामक बीमारियां भी उनके स्वागत के लिए तैयार रहतें हैं। लैंसेट की इस रिपोर्ट के मुताबिक, 1985-95 के दशक की तुलना में 2012-21 के दशक में भारत में हर साल 7.2 करोड़ बच्चे ऐसी गर्मी की चपेट में आए हैं, जबकि 65 साल और उससे अधिक उम्र के बुजुर्गों की संख्या 3 करोड़ है। यह देखते हुए कि दुनिया के 60 करोड़ बच्चों में से 7.2 करोड़ भारतीय बच्चे बढ़ती गर्मी के शिकार हैं, इसके लिए गंभीर कदम उठाने की जरूरत है।

इसमें आदिवासी शिशु मृत्यु दर पर भी विचार किया जाना चाहिए।  हम जानते हैं कि बच्चों की मौत कुपोषण के कारण होती है, यानी कमजोर प्रतिरक्षा के कारण। हालांकि, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि इस कुपोषण के लिए जितनी अधिक उम्र में खाद्य सुरक्षा की कमी जिम्मेदार है, जलवायु परिवर्तन के कारण खाद्य सुरक्षा का पतन, जंगलों के पतले होने के कारण बढ़ता तापमान और साथ में महामारी संबंधी बीमारियां भी जिम्मेदार हैं। दूर-दराज के आदिवासी इलाकों में वाहनों से भरी सड़कें उन बच्चों की जान ले रही हैं जो अपनी मां की बाहों की गर्मी का आनंद ले रहे हैं।  इसलिए, ईंधन की खपत प्रतिबंधों पर विचार करना आवश्यक हो जाता है। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली , महाराष्ट्र

( बच्चों की कहानी) नया विचार

गांव से पार्थ के दादाजी के दोस्त महीने में कम से कम एक बार पार्थ के दादाजी से मिलने शहर आते थे। वे लगभग पचास वर्षों से मित्र हैं।  मिश्रा दादाजी बातूनी स्वभाव के थे। वे खूब बातें करते थे। दोनों दादाजीओं की बातें सुनने में पार्थ को मजा आता था। अन्य बड़े लोगों की तरह उन्होंने कभी नहीं कहा,' हम बड़े बात कर रहे हैं, तो तुम  खेलने जाव।' इसके उलट वह अपनी बातचीत में बच्चों को भी शामिल करते हैं। और इसीलिए पार्थ को दादाजी मिश्रा बहुत पसंद हैं। उनसे गांव के बारे में कई बातें सुनकर उसे मजा आता था।

 मिश्रा दादाजी के घर में घुसते ही पार्थ के दादाजी ने कहा,"ओह, तुझे दो या तीन बार फोन किया;  लेकिन तेरा फोन स्विच ऑफ आ रहा था।" बस, मिश्रा दादाजी को बातचीत के लिए एक विषय मिला। "अरे, तूने अखबार में  पढ़ा नहीं?  हमारे गांव ने ग्राम सभा में फैसला किया है कि हर शाम  सात से साढ़े आठ बजे तक बच्चों की पढ़ाई के लिए फोन, रेडियो और टीवी जैसे सभी उपकरण बंद रखें जाते हैं। ठीक सात बजे ग्राम पंचायत भवन पर लगे लाउडस्पीकर से अनाउंसमेंट की जाती है। तुरंत गांव के सभी बच्चे पढ़ाई के लिए बैठ जाते हैं। वे घर पर टीवी भी बंद कर देते हैं।  घर के बड़े लोग भी बच्चों के साथ पढ़ने में भाग लेते हैं। अब कुछ और पड़ोसी गांव इस गतिविधि में भाग ले रहे हैं। इसलिए मैं तेरा फोन नहीं ले सका।" 

पार्थ के दादाजी ने कहा, "यही तो है, गांव करेगा तो, राव क्या करेगा! सब ने मिलकर लिया हुआ फैसला पूरा हो जाता है। एकता की ताकत बड़ी होती है।" इससे पार्थ को मजा आया। उसे यह आइडिया बहुत पसंद आयी। वह यह भी जानता था कि इस विचार को शहर में लागू करना बहुत कठिन होगा। एक तरफ, कई के पास 'वर्क फ्रॉम होम' था, जबकि कुछ के पास महत्वपूर्ण कामों के फोन थे। और, सवाल ये ही उठता है कि लाउडस्पीकर कहां बजाएगा। पार्थ सोचने लगा। उसने खुद से कहा की, ठीक है,  पहले खुद से शुरुआत करता हूं। बाद में अपने दोस्तों को इस गतिविधि में शामिल करता हूं। पार्थ ने एक योजना बनाई। यह विचार सभी मित्रों को उसने तब बताया जब वे खेलने के लिए एकत्रित हुए थे।

" सात से साढ़े आठ बहुत लंबा समय  है, तो क्या यह आठ बजे तक शुरू करें?'' संजू ने पूछा। बाकी दोस्तों ने भी कहा कि वे आठ बजे तक पढ़ेंगे।

"लाउडस्पीकर कैसे बजाएं?'' पार्थ ने पूछा।

"अरे, चलो लाउडस्पीकर की जगह एक दूसरे को मिस्ड कॉल देते हैं..." संजू ने जवाब दिया। प्रश्न का हल हो गया।

फिर मिशन शुरू हुआ सात से आठ की पढ़ाई का। चार-पांच दिन बाद मां के ध्यान में आया कि ठीक सात बजे एक मिस कॉल आता है और पार्थ पढ़ाई के लिए बैठता है। लेकिन दादाजी इस आयडिया को जानते थे।

दादाजी ने तब कहा कि इन बच्चों ने मिश्रा दादाजी के गांव में चल रही गतिविधियां शुरू कर दी हैं। फिर सब कुछ सामने आ गया। अब सात से आठ के बीच मां भी गैजेट्स से दूर रहती है और हां पापा भी बैठकर पढ़ रहे होते हैं। और पार्थ के दादाजी एक चुटीली मुस्कान के साथ अपना समय पढ़ने में बिताते हैं।


गोद लेने के आंदोलन की आवश्यकता

भारत में गोद लेने की दर कम होने के कारणों की जड़ में जाना चाहिए। इस दर को बढ़ाने के लिए वास्तव में एक व्यापक आंदोलन की जरूरत है। भारत में गोद लेना कोई नई अवधारणा नहीं है।  प्राचीन काल को देखें तो भी हम सभी ने स्वयं भगवान कृष्ण का उदाहरण पढ़ा और सुना है। फिर भी आधुनिक समय में हमारा देश देश में बच्चों को गोद लेने के मामले में काफी पीछे है। केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण के अनुसार, जुलाई 2022 तक केवल 28,501 संभावित माता-पिता हैं जिनकी गृह अध्ययन रिपोर्ट को मंजूरी दी गई है और वे गोद लेने के लिए कतार में हैं। भारत में गोद लेने के निम्न स्तर के कारण कई हो सकते हैं। पहला कारण यह है कि गोद लेने के लिए पर्याप्त बच्चे उपलब्ध नहीं हैं। संस्थागत देखभाल (पांच लाख) और अनाथों (तीन करोड़) में बच्चों का अनुपात अत्यधिक असंतुलित है। यहां तक ​​कि जाति, वर्ग और आनुवंशिकता की दीवारें भी आड़े आती हैं। आज भी भारत में, अधिकांश परिवार और समुदाय ऐसे बच्चे को गोद लेने पर विचार तक नहीं करते हैं जिनके माता-पिता अज्ञात हैं। बच्चे को गोद लेने के लिए उनके मन में गहरी नफरत है। वे अपने बच्चे में अपने जीन, रक्त और वंश चाहते हैं और वे चाहते हैं कि उनका बच्चा उनकी विरासत को आगे बढ़ाए। इस मानसिकता को बदलने की जरूरत है क्योंकि, आखिरकार, जैविक बच्चे भी वयस्क होने के बाद अपने माता-पिता से संबंधित नहीं होते हैं। 


एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि बांझ दंपतियों में गोद लेने पर विचार नहीं किया जाता है। एक तरफ जहां लाखों बच्चे बिना मां-बाप के हैं, वहीं दूसरी तरफ बांझ दंपतियों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। इंडियन सोसाइटी ऑफ असिस्टेड रिप्रोडक्शन के अनुसार, लगभग 2.75 करोड़ जोड़े या शहरी भारत में रहने वाले छह जोड़ों में से एक को प्रजनन संबंधी समस्याएं हैं। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के आंकड़े बताते हैं कि भारत में लगभग 10-15 प्रतिशत जोड़ों को प्रजनन संबंधी समस्याएं हैं। दूसरी ओर, इन तीन करोड़ अनाथों और परित्यक्त बच्चों को भी  सहायक और सुरक्षात्मक पारिवारिक वातावरण, संस्थागत देखभाल और परिवार की आवश्यकता है। क्योंकि प्यार भरे पारिवारिक माहौल में ही बच्चे बेहतर और भावनात्मक रूप से स्थिर होते हैं। यह नागरिक-निजी-सरकारी- संस्थान (सीपीजीआई) मॉडल के माध्यम से आसानी से किया जा सकता है। गोद लेने का विषय एक जन आंदोलन होने की उम्मीद है। अंगदान के मुद्दे पर जैसे आंदोलन खड़ा हुआ, उसे भी इस मुद्दे पर खड़ा होना चाहिए। भारत में निजी कंपनियों को प्रोत्साहन रियायतें बहुत काम आ सकती हैं। सफलता प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रहे मध्यवर्गीय निःसंतान दंपतियों का अध्ययन करने, गोद लेने के प्रति उनके दृष्टिकोण को समझने और गोद लेने के मार्ग को नेविगेट करने के लिए रणनीति तैयार करने की आवश्यकता है। भारत 2050 तक सबसे युवा देशों में से एक होगा। किसी भी देश के लिए बच्चे उसकी भविष्य की पूंजी होते हैं।  उन लोगों के लिए निर्देशित पोषण आवश्यक है जो इस आबादी से लाभान्वित होना चाहते हैं। इसलिए बच्चों को जीने का मौका देने, अवसर खोजने के लिए हमारी नीतियों का पुनर्गठन करना महत्वपूर्ण है;  नहीं तो हम उनकी जान जोखिम में डालते हैं या उन्हें पूरी तरह बर्बाद कर देते हैं। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, मुक्त पत्रकार