सोमवार, 27 मार्च 2023

2. पहले शासकों को सुधारना चाहिए

आत्मानं प्रथमं  राजा विनयेनोपपादयेत्   |

ततोSमात्यांस्ततो भृत्यांस्ततो  पुत्रांस्ततो प्रजाः || 

Good governance - आजकल तमाम पार्टियां चुनाव से पहले लोगों को सुशासन का आश्वासन दे रही हैं। लेकिन लोग इस 'सुशासन' का अनुभव कभी नहीं कर पाते। समस्या वास्तव में कहाँ आती है? भ्रष्टाचार सभी शासन को 'खराब' बना देता है। लोग उन्हे बर्दाश्त करते रहते हैं! भ्रष्टाचार वास्तव में प्रजा से शुरू होता है, अर्थात स्वयं जनता से।  क्योंकि वे थोड़ा सा भी इंतजार करने को तैयार नहीं हैं। 

उन्हें पैसा देने और जल्दी से काम पूरा करने की आदत कैसे पड़ जाती है? यह आदत सरकारी कर्मचारियों द्वारा लगाई जाती है जो सीधे सरकार का प्रशासन कर रहे हैं। वे भी भोलेपन से कहते हैं - अरे, हमें भी पैसे को "ऊपर" पहुँचाना पडता है! यदि वास्तव में ऐसा है, तो इस बात की कोई संभावना नहीं है कि कोई भी दलीय (पक्ष का)  राज्य कभी भी भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं होगा। इसलिए यह सुभाषित शासक बनना चाहते हैं और अभी भी प्रजा के प्रतिनिधि (शासक) हैं, उन्हें  ध्यान में रखना चाहिए। यह कवि कहता है कि पहले राजा (अर्थात् शासक) को स्वयं को विनम्र करना चाहिए। विनय मतलब केवल शालीनता, नम्रता नहीं बल्कि सभ्यता है। इसमें ईमानदारी, निःस्वार्थता, सर्वग्राही समभाव जैसे अनेक गुण आते हैं। उसने अपने आप को ऐसा विनय संपन्न करने के बाद  वह अपने अमात्य - यानी मंत्रियों (आज मंत्री ही राजा हैं) के साथ भी ऐसा ही करें। फिर वह अपने (सरकारी) सेवकों, अपने पुत्रों (अर्थात् सभी सम्बन्धियों) को  और उसके बाद ही प्रजा को विनय संपन्न बनाए।  अर्थात सारे भ्रष्टाचार की जड़ 'ऊपर' है, अगर यह नष्ट हो जाए तो नीचे भी नष्ट हो जाएगा। 

क्या यह सुभाषित महत्वपूर्ण नहीं है? यदि भ्रष्टाचार को मिटाना है तो शासकों-जनप्रतिनिधियों को पहले "स्वच्छ" रहना होगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें