सोमवार, 2 जनवरी 2023

अपार प्रतिभा के संगीतकार: सी रामचंद्र

सी रामचंद्र यानी रामचंद्र चितलकर। उनके पिता नागपुर रेलवे में स्टेशन मास्टर थे। छोटे राम का पढ़ाई के बजाय संगीत की ओर झुकाव देखकर उन्होंने उन्हें कुछ वर्षों के लिए शास्त्रीय संगीत सीखने के लिए वहां के सप्रे गुरुजी के पास भेज दिया। वहाँ से वे कुछ समय के लिए पुणे के संगीत विद्यालय गए और संगीत की शिक्षा ली। उनका लक्ष्य इंस्पेक्टर या सिनेनायक बनना था। खूबसूरत चेहरा, 6 फीट तक की हाइट और सुरीली आवाज के साथ उन्हें लगता था कि उन्हें हीरो का रोल आसानी से मिल जाएगा। क्योंकि उस समय अभिनेताओं को अपने गाने खुद गाने पड़ते थे! ( तब हमारे पास प्लेबैक आया नहीं था, इसलिए अशोक कुमार, मोतीलाल, याकूब आदि को अपने गाने खुद गाने पड़ते थे।) फिर वे कोल्हापुर आ गए और 15 साल तक ललित पिक्चर्स, शालिनी सिनेटोन में एक अतिरिक्त कलाकार के रूप में काम किया। उन्होंने भालजी पेंढारकर के अधीन काम किया। (हिंदी में प्रसिद्ध होने के बाद, उन्होंने भालजी की 'शिवाजी' के लिए भी संगीत तैयार किया।) आखिर बी.  वी  राव की फिल्म 'नागानंद' में लीड रोल मिला, लेकिन फिल्म फ्लॉप रही। 

संघर्ष के दौर में फंसे रामचंद्र इस सोच के साथ मुंबई आए कि मुंबई में किस्मत उनका साथ देगी या नहीं और सोहराव मोदी की मिनर्वा मूवीटोन में एक्स्ट्रा की नौकरी मिलने के बाद उन्हें फिल्म "सैदे हवस" में एक छोटा सा रोल मिला। मोदी के संगीतकार तब मीरासब थे।  अपने खाली समय में, राम चितलकर मिरसब के बेड़े के वाद्ययंत्र बजाना जारी रखते,यह देखकर मोदी ने एक दिन कहा, "तुम अभिनय में अच्छे नहीं हो, संगीत के प्रति तुम्हारा जुनून है, तुम्हें उस पर ध्यान देना चाहिए!" फिर उन्होंने चितलकर को मीरासब का सहायक नियुक्त किया। (कुछ साल बाद, जब चितलकर एक संगीतकार के रूप में हिट हो गए, तो उन्हें उसी मोदी के 'नौशेखने आदिल' के लिए परवीर शम्सी द्वारा लिखे गए गीतों के लिए संगीत तैयार करने के लिए बुलाया गया।) चितलकर अपने हाथों नोटेशन करने में निपुण हो गए। मुंबई में, मास्टर भगवान पलव के साथ उनकी दोस्ती हो गई। भगवान तब बाबूराव पेलवान (बाबुराव ने विश्राम बेडेकर की 'वासुदेव-बलवंत' में क्रांतिकारी नायक के मित्र की भूमिका निभाई और भगवान की 'अलबेला!' में खलनायक की भूमिका निभाई) और वसंतराव पेलवान ('वीर घटोत्कच' में उनकी मुख्य भूमिका  प्रसिद्ध हुई थी )। इसके साथ स्टंट फिल्में बनया करते थे। उस समय 'अन्नासाहेब' के नाम से चितलकर संगीत देते थे। उस समय, भगवान को दो तमिल फिल्में निर्देशित करने के लिए मिलीं। 'जयकोडी' (1939 का जयपताका), वनमोहिनी (1941 की)। दोनों के संगीतकार के रूप में चितलकर को लेकर भगवान ने एक मित्र के रूप में अपना कर्तव्य पूरा किया। 1942 को हरीशचंद्र कदम की हिंदी फिल्म 'सुखी जीवन' मिली। यह चितलकर की हिंदी में पहली फिल्म मानी जाती है। उसके बाद फिल्म निर्माता और निर्देशक जयंत देसाई ने 600 रुपये प्रति माह वेतन पर  अन्ना को उनकी कंपनी में  रखा था। (उस समय संगीतकारों या सिनेमैटोग्राफरों को मासिक वेतन तय करके उनकी कंपनी में ले लिया गया था!) और उन्होंने ही राम का नाम 'सी  रामचंद्र' रखा। भले ही उनकी कई फिल्में उनके संगीत से हिट हुईं और उन्होंने हजारों रुपये कमाए, लेकिन उन्होंने कोई वेतन नहीं बढ़ाया। (अन्ना 1 हजार रुपये महीना मांग रहे थे।) फिर अन्ना ने इस्तीफा दे दिया। लेकिन देसाई ने कहा, 'अपना काम मत छोड़ो।  मैं अगली फिल्म में सहगल को कास्ट करूंगा।  आप उसके गाने बजाने के लिए काफी भाग्यशाली होने जा रहे हैं!' इस पर अन्ना भड़क गए, 'भले ही वह सहगल हैं, लेकिन मैं भी सी.  रामचंद्र हूं।'

वहां से निकले अन्ना, कवि प्रदीप, जो फिल्मिस्तान में काम कर रहे थे (उन्होंने अन्ना के आग्रह पर 1963 साल में 'मेरे वतन के लोगो...' गीत लिखा और लता ने गाकर अजरामर किया। ) ने 1,000 रुपये महीने का भुगतान करने की पेशकश करके अन्ना को वहां काम पर रखा गया। अन्ना द्वारा  संगीत दी गई फिल्मिस्तान की "सफर" (1947) आई और अच्छी चली। अमीरबाई कर्नाटक द्वारा गाया गया आकर्षक गीत "मारी कटारी मर जाना" रेडियो सीलोन पर हिट हो गया था। रफी ने इसमें 'कह के भी ना आए तुम अब चुपके लगे तारे' और  'अब वो हमारे हो गए, इकरार करे या ना करे?  इस तरह के मधुर गीत देने से उनके नवोदित संगीत करियर को बढ़ावा मिला। अन्ना ने पिछली पीढ़ी के दिग्गज नायकों के लिए पार्श्वगायन भी किया था। 1.  अशोक कुमार 'संग्राम, शतरंज' । अन्ना ने मीनाकुमारी अभिनीत फिल्म में अशोक कुमार के लिए एक ग़ज़ल भी गाई। 2. राजकपूर, 'सरगम, शारदा', 3. देवआनंद बारीश, अमरदीप, सरहद्द, 4. दिलीपकुमार 'नदिया के पार, इन्सानियत, समाधी, पैगाम, आझाद। अन्ना के संगीत में लता के उभरने से पहले, ललिता देउलकर (बाद में श्रीमती सुधीर फड़के) ,शमशाद बेगम, सुरिंदर कौर, बिनापानी मुखर्जी, मिनाकपुर, सरस्वती राणे, जोहराबाई अंबालावाली, अमीरबाई कर्नाटक, मोहनतारा अजिंक्य, गीता दत्त और 'दुनिया' में सुरैया' के साथ अपने संगीत को लोकप्रिय बनाया। अन्ना के संगीत में लता की आवाज का उद्भव शहनाई (1947) के 'जवानी की रेल चली जई रे' में शमशाद बेगम और अन्ना के साथ कोरस में एक आवाज के रूप में हुआ। 1948 में 'नदिया के पार' में दिलीपकुमार, कामिनी कौशल की फिल्म 'ओ गोरी, ओ गोरी कह चली रे' को अन्ना ने गाया, इस गाने में  लता को सिर्फ  'मैं तो चली साजन की गली रे, यह पंक्ती गाने को मिली थी। बाद में 1959 की 'पतंगा' में लता को दो सोलो गाने मिले। (1. 'ठुकराके ओ जानेवाले. 2. दिल को भुल दो तुम हमें।) इसी 'पतंगा' के दौरान गीतकार राजेंद्रकृष्ण ने अन्ना के संगीत के क्षेत्र में पहली बार कदम रखा था। राजेंद्र के गाने, अन्ना के संगीत, दोनों ने एक साथ कई हिट फिल्में दीं। लता का अन्ना को 1962 की 'बहूरानी' तक संगीत का साथ मिला। वहां से यह जोड़ी टूट गई, लेकिन 26 जनवरी, 1963 को यह तय हुआ कि प्रत्येक हिंदी संगीतकार लाल किले पर आयोजित कार्यक्रम में अपना एक गीत प्रस्तुत करेगा। अन्‍ना ने अन्‍य संगीतकारों की तरह फिल्‍म के एक पुराने गाने को परफॉर्म करने के बजाय एक नए गाने को परफॉर्म करने का फैसला किया। उन्होंने सोचा कि गीत देशभक्ति का होना चाहिए। उन्होंने कवि प्रदीप को ऐसा गीत लिखने के लिए उपयुक्त समझा।  अन्ना द्वारा रचित 1954 के 'नास्तिक' के गीत खुद प्रदीप ने लिखे थे।  अन्ना ने कवि प्रदीप (रामचंद्र नारायण द्विवेदी) से 'पैगम, तलाक, तुलसी विवाह' के लिए गीत लिखकर लिए थे। अन्ना अंधेरी स्थित 'पंचामृत' बंगले में प्रदीप से मिलने गए।  कवि प्रदीप ने कहा, 'अब मैं तूझे याद आया? फिर हाँ' कहकर गीत लिखने को तैयार हो गये। उन्होंने कुल 65 कड़वी लिखीं, जिनमें से 13 कडवियों का चयन कर उन्हें गीतों में ढाला गया। कवि प्रदीप द्वारा लता के अनुरोध के बाद, लता गाने के लिए तैयार हो गईं और अजरामर गीत बनाया गया। 

अन्ना ने एक ईसाई लड़की बेन से प्रेम विवाह किया था।  प्रसव के दिन बेन के पहले बच्चे की मृत्यु हो जाने के बाद, डॉक्टर ने ऊन्हे बताया कि उसे और बच्चे नहीं होंगे। और कुछ समय बाद उन्होंने दूसरी शादी कर ली। इस दूसरी पत्नी से उनके दो बच्चे, एक बेटा और एक बेटी थी। अपनी पत्नी के चले जाने से उदास अन्ना अपने दो बच्चों के स्नेह से बहुत उबर गए। अपने पूरे जीवन के अंतिम चरण का आनंद लेते हुए अन्ना 63 वर्ष की आयु में चुपचाप चल बसे! उनके कई 'भावमाधुर' गीत पीछे छूट गए हैं। अंत में, उनकी केवल एक ही इच्छा रह गई।  पाकिस्तान की तत्कालीन लोकगीत गायिका रेशमा के साथ एक गीत की रचना करने की उनकी इच्छा थी। शुरुआती दिनों में, अन्ना ने "सरगम, शहनाई" आदि के लिए पी. एल. संतोषी द्वारा गीत लिखकर लिये। राजेंद्रकृष्ण के गाने 1950 के "पतंगा" में लिए गए और इसके बाद दोनों ने प्रशंसकों को कई हिट फ़िल्में दीं। हिंदी फिल्म संगीत के इस स्वर्ण युग में आज 80 के दशक की पीढ़ी पली-बढ़ी है। अन्ना के अलावा नौशाद, एस.  डी बर्मन, मदनमोहन, चित्रगुप्त, ओ.  पी  नय्यर, शकर जयकिसन, खय्याम, जयदेव, वसंत देसाई, एन.  दत्ता, गुलाम मोहम्मद, खेमचंद प्रकाश, हुस्नलाल भगतराम, सलिल चौधरी, हेमंत कुमार, ऐसें कई नाम और हर एक का अंदाज अलग। हम दुखी हों या सुखी, इन प्रतिभावान लोगों ने अपने सैकड़ों गीतों से हमारा साथ दिया है। इसने हमें दुःख के समय में जीने का सहारा दिया और सुख के समय में  अपनी संगीत प्रतिभा को जीवन पर उभारा और हमारे जीवन में नई स्फूर्ति लायी। सी रामचंद्र की आखिरी फिल्म 1970 में रिलीज हुई "रूठा ना करो" (फिरोज खान नायक) थी। इसके बाद अन्ना ने विभिन्न गतिविधियों में खुद को शामिल किया और 1982 में उनका निधन हो गया। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली।महाराष्ट्र।

( 5 जनवरी सी.  रामचन्द्र स्मृति दिवस के अवसर पर)

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