सोमवार, 9 जनवरी 2023

तस्कर हाजी मस्तान का बॉलिवूड प्यार!

जिस दौर में हाजी मस्तान से जुड़ी सच्ची-झूठी घटनाओं की खूब चर्चा होती थी, उसके बारे में कई काल्पनिक कहानियां सुनाई जाती थीं। उन्हें बहुत नेक कहा जाता था। (जो पूरी तरह झूठ है) असल में मस्तान शांशौकी की जिंदगी जीना पसंद करता था। वह मालाबार हिल जैसे संभ्रांत इलाके में एक अलग बंगले में रहते थे। वह सफेद जूते, सफेद शर्ट और सफेद पैंट पहनता था। वह महंगी सिगरेट पीता था और सफेद रंग की मर्सिडीज चलाता था। उसकी आंखों के सामने लगातार उसकी अपनी मधुबाला (अभिनेत्री सोना उर्फ ​​वीना शर्मा) थीं। उसने उसे बॉलीवुड में एंट्री दिलाने की कोशिश की थी। उस दौरान हाजी मस्तान की मुंबई के कई बड़े लोगों से नियमित मुलाकात होती थी। उस वक्त ऐसी अफवाहें उड़ी थीं कि उसके बंगले में फर्श से लेकर छत तक हर जगह सोने के बिस्किट छिपे हुए हैं। यह सिर्फ एक काल्पनिक कहानी नहीं बल्कि एक सच्ची कहानी है।  1970 के दशक में फिल्म 'डाकू और वो' की शूटिंग महाराष्ट्र के एक गांव में शुरू हुई थी। अभिनेत्री साधना के पति आर के  नय्यर इस फिल्म के निर्देशक थे जबकि निर्माता एन  पी अली थे। फिल्म में बेहतरीन कास्ट थी।  संजीव कुमार, रणधीर कपूर और रंजीता की स्टार कास्ट के बावजूद, प्रशंसक उनकी जगह एक गैर-बॉलीवुड व्यक्ति को देखने के लिए सेट पर उमड़ पड़े। लोग उस शख्स को देख और छू रहे थे।  उन्हें लगा कि उनके 'पेरिस स्पर्श' से उनकी किस्मत भी चमक जाएगी। जिस शख्स के लिए लोग उमड़ पड़े वो कोई और नहीं बल्कि हाजी मस्तान मिर्जा था। उस जमाने का सोने का तस्कर!  वो शूटिंग मुहूर्त कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर मौजूद था।

हाजी मस्तान के आसपास जमा भीड़ को देख अभिनेता रणधीर कपूर बोला, 'कौन कहता है कि हम स्टार हैं।  उसकी (हाजी मस्तान) क्रेझ को देखते हुए हम सब जूनियर आर्टिस्ट जैसा महसूस करते हैं।'' हाजी मस्तान की गरीबी से अमीरी तक की यात्रा कई किंवदंतियों में डूबी हुई है। हाजी मस्तान की यात्रा गोदी में काम करने वाले एक शांत चेहरे वाले कुली से एक प्रसिद्ध सोने के तस्कर तक की है। यह हाजी मस्तान ही था जिसने पर्दे पर 'माफिया' के व्यक्तित्व को जन्म दिया और उसे बेहद लोकप्रिय बना दिया। फिल्म 'दीवार' में 'विजय' का किरदार हाजी मस्तान के व्यक्तित्व पर आधारित था। हाजी मस्तान की जीवनी ने एक शहर की प्रकृति, उसके लोगों की इच्छाओं, आकांक्षाओं, उसके अंधेरे पक्ष और पूरे भारत से प्रवासियों की आमद का समर्थन करने की क्षमता को समझने में मदद की।

हाजी मस्तान की वजह से ही मुंबई को 'सोने के अंडे देने वाली मुर्गी' के रूप में परिभाषित किया जाने लगा। बॉलीवुड फिल्मों ने लोगों को प्रभावित करना शुरू कर दिया कि मायानगरी मुंबई में उनकी किस्मत बदल सकती है। मुंबई के बारे में एक धारणा थी कि अगर आप सही कदम उठाते हैं, या अगर आप जानते हैं कि सिस्टम को कैसे नचाना है, तो आप इस शहर में अपना भाग्य बना सकते हैं। इस लिहाज से मस्तान पुराने जमाने का बिग बुल 'हर्षद मेहता' था। उसने सिस्टम में कमियां ढूंढी और उन पर काम किया। उसकी मौत के बीस साल बाद, भारत के सबसे प्रसिद्ध सोने के तस्कर को एक टेलीविजन श्रृंखला में चित्रित किया जा रहा है  और साथ ही, इस साल एक डॉक्यूमेंट्री भी आ रही है। उसके बंगले में कई दरवाजे हैं और वो हर बार अलग दरवाजे से अलग इंम्पोर्टेटेड कार में बाहर निकलता है। कहा जाता है कि वह गरीबों को सोने के बिस्किट बांटता था।  लेकिन इनमें से कुछ भी सच नहीं था। शायद, सोने के बिस्किट की छवि लोगों के बीच एक विशेष अपील रखती थी, क्योंकि सोना जमा करने की वस्तु थी, जिसे धन के रूप में संरक्षित किया जाता था, और इसे धन का प्रतीक माना जाता था।  इसलिए मस्तान की छवि बनी होगी। विभाजन के बाद के भारत में, मुसलमानों ने हाजी मस्तान को विभाजित भारत में अपने सपनों को पूरा करने और अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने के उदाहरण के रूप में देखा। मस्तान की कामयाबी को देखते हुए उन्हें लगा कि उनका भारत में रहने का फैसला सही था। एक गरीब साइकिल मैकेनिक और एक हमाल 'गोल्ड किंग' बन सकते है, अभिजात वर्ग के बीच उभर सकते है, तो किसी भी मुस्लिम युवा के लिए कुछ भी असंभव नहीं था। हाजी मस्तान के साथ, उनकी उम्मीदें जगी थीं और अगर आपमें हिम्मत है और उस ताकत से सिस्टम को रोल कर सकते हैं, तो दुनिया आपके हाथ में है।

हाजी मस्तान मिर्जा भले ही एक डॉन था, लेकिन वह खुद कभी लोगों को मारने के जाल में नहीं फंसा। वह मुंबई में प्रमुख स्थानों की संपत्तियों की बिक्री पर आपत्ति जताने वाले किसी भी व्यक्ति को बेदखल करने के लिए , उसे बाहर निकालने के लिए अपने पंटर्स करीम लाला और दाऊद इब्राहिम का इस्तेमाल करता था। यही तरीका बाद में दूसरे माफिया डॉन और राजनीतिक पार्टियों ने भी इस्तेमाल किया। हालाँकि, सार्वजनिक रूप से, हाजी मस्तान ने अपनी छवि बनाए रखी और अन्य गैंगस्टरों के झगड़ों में मध्यस्थ की भूमिका निभाई। दिलीप कुमार और सायरा बानो बॉलीवुड के दिग्गज अभिनेता हाजी मस्तान को अक्सर पार्टियों के लिए अपने घर बुलाते थे। इससे हाजी मस्तान की शख्सियत और भी निखर गई। ऐसा कहा जाता है कि एक बार करीम लाला और हाजी मस्तान दिलीप कुमार के चरणों में बैठे और उन्हें खुश करने के लिए उनकी फिल्मों के संवाद सुनाने लगे।

शायद इसी दौरान बॉलीवुड और माफिया एक साथ हो गए होंगे। जब मस्तान ने फिल्मों का निर्माण शुरू किया, तो उन्होंने माफिया-बॉलीवुड गठजोड़ की नींव रखी। बेशक उस वक्त किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि माफिया की थोड़ी सी मदद आखिरकार हिंदी सिनेमा पर अपनी आर्थिक पकड़ मजबूत कर लेगी। अगर हाजी मस्तान ने 1960-70 के दशक में बॉलीवुड में अपने पैर नहीं जमाए होते तो माफिया बॉलीवुड से कुछ दूरी बनाकर ही रहते। उस समय वास्तविक समस्या भारतीयों में तस्करी को लेकर नैतिक भ्रम था। इसलिए कई लोगों ने तस्करी के तरीके को गलत नहीं माना। स्वतंत्रता के बाद के भारत का नैतिक आधार अभी तैयार नहीं हुआ था।  भारतीयों का निरन्तर अपमान करने वाले अंग्रेजों ने लोकनीति को रसातल में पहुँचा दिया था। आयात शुल्क अंग्रेजों द्वारा लगाया गया और लागू किया गया।  लेकिन चूंकि भारतीय अंग्रेजों से नफरत करते थे, इसलिए उन्होंने हमेशा इस कर का विरोध किया।  इसलिए आजादी के बाद भी लोगों का स्वाभाविक रूप से इस कर का विरोध जारी रहा।

हालाँकि कानून के तहत तस्करी एक अपराध था, लेकिन यह बिना टिकट यात्रा करने जैसा था। भारतीय जनता के मन में एक विचार आया था कि जब तक कोई पकड़ा नहीं जाता, तब तक बिना टिकट यात्रा करने का क्या हर्ज है? अंतत: आपातकाल सरकार के लिए आश्चर्यजनक रूप से गेम चेंजर साबित हुआ। नैतिकता का आवरण ओढ़े तस्करों का परदा आपातकाल ने फाड़ दिया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक झटके में सभी स्तरों पर गैंगस्टरों और अपराधियों को निशाना बनाया। तस्करों, वित्तीय अपराधियों, गुण्डों, कालाबाजारियों, छोटे अपराधियों, जमाखोरों को दुष्ट समझकर पकड़ कर जेल में डाल दिया गया। हाजी मस्तान, वरदराजन मुदलियार, करीम लाला, दाऊद इब्राहिम, रमा नाइक, यूसुफ पटेल, जो कानून से छिपे हुए थे, उन पर 'मीसा' और 'कोफेपोसा' अधिनियमों के तहत मामला दर्ज किया गया था। इस कार्रवाई से दिवास्वप्न देख रहे भारतीय लोग बेरहमी से जागे। इस कार्रवाई से एक संदेश तो साफ हुआ- तस्करी एक बुरा अपराध है। यदि आप एक तस्कर हैं, तो आप बुरे हैं।  राष्ट्रहित और विकास कार्यों में लगने वाले टैक्स को डायवर्ट कर आप देश को धोखा दे रहे हैं। आप कानून का पालन करने वाले नहीं हैं।  अगर आपके नाम पर बकाया है, आप गैंगस्टर हैं, तस्कर हैं तो आपको जेल की हवा खानी पड़ेगी।

हाजी मस्तान और अन्य गैंगस्टरों के लिए वास्तविकता को स्वीकार करने का समय था। जेल के दिन उनके लिए कष्टदायक साबित हुए। उसने लाखों रुपये कमाए थे, लेकिन वह तस्करी के अपराध में शामिल होकर अपने अस्तित्व को खतरे में नहीं डालना चाहता था। अब वे अपने भाग्य को जोखिम में नहीं डालना चाहते थे। उन्होंने एकजुट होकर समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के सामने आत्मसमर्पण करने का फैसला किया, जिन्होंने श्रीमती इंदिरा गांधी के आपातकाल को चुनौती दी थी। आखिरकार आपातकाल हटने के बाद जयप्रकाश नारायण ने उन्हें कुछ शर्तों पर रिहा कर दिया। हाजी मस्तान समेत तमाम तस्करों ने दिल्ली में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में जयप्रकाश नारायण के सामने सरेंडर कर दिया। हाजी मस्तान पर मरते दम तक हर कोई मोहित रहा। बेशक, सदी के अंत तक यह आकर्षण कम हो गया।  क्योंकि पुरानी पीढ़ी पीछे छूट गई और नई पीढ़ी आगे आ गई। इस नए दौर में यानी 1992-93 की आर्थिक उदारीकरण नीति के बाद बेशकीमती सोने से ज्यादा अहमियत उपभोक्तावाद को मिली।

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