सोमवार, 30 जनवरी 2023

भारत जोड़ो यात्रा की सफलता को बनाए रखने की चुनौती

राहुल गांधी की ''भारत जोड़ो पदयात्रा'' आखिरकार संकल्पपूर्ती हो ही गई। सात सितंबर को कन्याकुमारी से शुरू हुई इस ऐतिहासिक पदयात्रा ने कश्मीर तक साढ़े तीन हजार किमी की दूरी पूरी की। पांच महीने पैदल चलना आसान नहीं है। इस यात्रा को पुरा कर राहुल गांधी ने अपने आलोचकों का मुंह बंद कर दिया। यह पहले से ही व्यक्त किया जा रहा था कि जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा समस्या होगी। शुक्रवार को ऐसा ही हुआ। जम्मू के बनिहाल से शुरू हुई यात्रा जैसे ही कश्मीर घाटी के काजीगुंड इलाके में दाखिल हुई, लोगों ने सुरक्षा में सेंध लगाकर राहुल गांधी के करीब जाने की कोशिश की। कांग्रेस ने आरोप लगाया कि इस वक्त सुरक्षा पुलिस गायब थे। राहुल गांधी को सुरक्षित स्थान पर ले जाया गया। जब यात्रा दिल्ली में थी, तब भी पुलिस की आलोचना की गई थी। दिल्ली और जम्मू-कश्मीर में कानून व्यवस्था केंद्र सरकार के नियंत्रण में है। लिहाजा विपक्ष को मोदी सरकार पर निशाना साधने का मौका मिल गया।

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी तत्काल गृह मंत्री अमित शाह को पत्र लिखकर सुरक्षा पर ध्यान देने का अनुरोध करते हुए संदेह जताया। अन्य राज्यों की तरह यहां भी 'भारत जोड़ो' का स्वागत किया गया। 2016 में बीजेपी के साथ सरकार बनाने वाली 'जम्मू एंड कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी' की महबूबा मुफ्ती,  जम्मू कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस के उमर अब्दुल्ला यात्रा में 'बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना' की तरह उमड़ पड़े। बेशक इस यात्रा ने मोदी के विरोधियों को खासा प्रभावित किया। जम्मू-कश्मीर में धारा 370 के निरस्त होने के बाद, इस राज्य के नागरिकों ने पहली बार बिना किसी डर के राहुल गांधी के 'भारत जोड़ो' में भाग लिया। सड़क के दोनों ओर भारी भीड़ थी।  लगातार अन्याय का शिकार हो रहे पंडित राहुल गांधी से मिले। उन्होंने यह कहते हुए राहुल गांधी में उम्मीद की किरण तलाशनी शुरू कर दी कि धारा रद्द होने के बावजूद घाटी में स्थिति 'जैसी है' वैसी ही है। बेरोजगारों को राहत देने के प्रयासों का देश में कोई विरोधी नहीं था, ऐसी तस्वीर बनी थी। ऐसा लगता है कि यात्रा के बाद तस्वीर बदल गई है। इस यात्रा में देश के गैर सरकारी संगठनों, कलाकारों, लेखकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं आदि ने भाग लिया। लोग परिवर्तन की इच्छा के कारण राहुल गांधी से मिल रहे थे। बेरोजगारों में मायूसी है।  विदेशों में भारतीयों की नौकरियां जा रही हैं।  कई युवा भारत लौट रहे हैं। जो अच्छी शिक्षा लेकर स्नातक हुए हैं, वे बेरोजगार होकर इधर उधर घूमते रहे हैं। इस समय स्कूल और कॉलेजों में पढ़ने वाले उनके छोटे भाई-बहन को समाज में अपने बड़े भाई की हो रही उपेक्षा देखने की नौबत आई है। उन्हें डर है कि हमारे साथ भी ऐसी ही स्थिति होगी। उन्हें हिम्मत देने का काम राहुल गांधी ने किया है। उनमें उम्मीद जागी है कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है।

मोदी सरकार ने 'मेक इन इंडिया' के नारे के तहत यांत्रिक 'बब्बर शेर' का लोगो प्रकाशित किया था। लेकिन यह पहल सरकार को भारी पड़ी। शेर कब गायब हो गया पता ही नहीं चला। इसके पीछे की मंशा उद्योगों को बढ़ावा देना और बेरोजगारों को रोजगार देना था। इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए, 'भारत जोड़ो' से राहुल गांधी ने युवाओं को निराशा से बाहर निकालने के लिए अपने कौशल की ओर मुड़ने की सलाह दी। जनता के बीच यह भावना है कि भारत जोड़ो ने विपरीत परिस्थितियों में आशा की किरण देखाई है। वे सभी लोग जो देश में बदलाव चाहते थे और चाहते थे कि इस देश में धर्मनिरपेक्षता बनी रहे, उन्होंने अपने बंधनों को छोड़कर यात्रा में भाग लिया। अगर नेता महंगी कारों में लोगों तक पहुंचते हैं तो उन्हें गंभीरता से नहीं लिया जाता, बल्कि उन्हें नफरत की नजर से देखा जाता है।  राहुल गांधी पैदल चले गये। बांध पर किसानों से मिले। कार्यकर्ताओं, छात्रों, महिलाओं, वरिष्ठ नागरिकों से मिले और उनकी समस्याएं सुनीं और उनके प्रश्न को समझें। उन्होंने लोगों में उत्साह पैदा किया। हालांकि इसे बनाए रखना कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती है।

यात्रा के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव किया गया।  खड़गे अध्यक्ष बने। तीन महीने हो गए हैं;  लेकिन वे राजस्थान में समस्या का समाधान नहीं कर सके। राहुल गांधी के दखल के बाद भी गहलोत-पायलट की जंग कम नहीं हुई। ऐसी स्थिति है कि महाराष्ट्र में कांग्रेस के कुछ नेता कभी भी भाजपा में जा सकते हैं। प्रदेश अध्यक्ष नाना पटोले का सुर वरिष्ठ नेताओं से मेल नहीं खाताहै। मामूली अंतर के साथ कांग्रेस की स्थिति हर राज्य में समान है। अध्यक्ष होने के बावजूद खड़गे का पार्टी पर बहुत कम प्रभाव है। कांग्रेस नेताओं का कहना है कि सारे सूत्र के सी वेणुगोपाल के हाथ में हैं। वह राहुल गांधी के करीबी हैं। 'भारत जोड़ो यात्रा' के राज्यों से गुजरने के बाद कांग्रेस के स्थानीय संगठनों ने राज्य में पार्टी को मजबूत करने के लिए क्या किया? उत्तर निराशाजनक है। कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के लिए संगठनात्मक निर्माण कार्य की आवश्यकता है। 24, अकबर रोड की 'सफाई' करनी होगी।  लेकिन क्या खड़गे के पास इसका अधिकार है?

कांग्रेस का 'हाथ से हाथ जोड़ो' अभियान 26 जनवरी से तीन महीने के लिए लागू किया जाएगा। माना जा रहा है कि मोदी सरकार की नाकामी के बारे में राहुल गांधी की बातों को लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की जानी चाहिए। लेकिन देखना होगा कि गांधी परिवार के सामने चमकने वाले कितने नेता लोगों के घर घर जाते हैं। भारत जोड़ो' के मौके पर लोगों में जो उम्मीद जगी है, उसे कायम रखने के लिए कांग्रेस पार्टी को डठे रहना जरूरी है। नहीं तो सारी मेहनत बेकार जाएगी। 'मोदी की हवा' थोपना कांग्रेस के लिए आसान नहीं है। 2009 में,  मध्य वर्ग के अधिकांश वोट जो कांग्रेस के पास थे, वो 2014 में भाजपा में स्थानांतरित हो गए।  2019 में सिर्फ मोदी के नाम पर जोड़ा गया था।  इन वोटों को वापस पाने के लिए कांग्रेस को रणनीति बनानी होगी। मतदाता भी अब समझदार हो गए हैं। ओडिशा विधानसभा चुनाव की घोषणा 2019 के लोकसभा चुनाव की तारीखों के दिन ही की गई थी। मतदाताओं ने एक साथ राज्य के लिए बीजू जनता दल और लोकसभा के लिए भाजपा को वोट दिया। नतीजतन, बीजेपी लोकसभा में एक से आठ सीटों पर चली गई और बीजेडी को आठ सीटों का नुकसान हुआ। संक्षेप में, व्यवहार्य विकल्प बनाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है।  राहुल गांधी को एक होनहार नेता के तौर पर देखा जाता है।

देखना होगा कि इस साल कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, तेलंगाना आदि में होने वाले चुनावों में उनकी छाप दिखती है या नहीं। ऐसा हुआ तो साढ़े तीन हजार किमी.  लंबी' की 'भारत जोड़ो' यात्रा का प्रयास भी रंग लाएगा। 30 जनवरी को महात्मा गांधी की 75वीं पुण्यतिथि है। राहुल गांधी ने 'भारत जोड़ो यात्रा' के समापन के लिए इस शहीद दिवस को चुना है। इसका कारण यह था कि यात्रा का मुख्य सूत्र 'नफरत छोड़ो' था। यह अहिंसा का उपदेश देने वाले महात्मा गांधी के विचारों से लिया गया था। इस अवसर पर अधिकांश विपक्षी दल भी 'भारत जोड़ो' पहल में भाग ले रहे हैं और उनके 'भय मुक्त भारत' के संकल्प के लिए गांधी के विचारों से अधिक प्रेरक क्या हो सकता है? -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली (महाराष्ट्र)

शनिवार, 28 जनवरी 2023

साइबर कानूनों की लगातार गहन समीक्षा करनी होगी

इंटरनेट ने ज्ञान के नए दरवाजे खोले हैं और मानव जीवन में एक नए युग की शुरुआत हुई है। सूचना प्रौद्योगिकी की दौड़ यहीं नहीं रुकी। जीवनशैली में बदलाव इतनी तेजी से हुआ है कि उस गति से चलना एक चुनौती बन गया है। यद्यपि यह सर्वव्यापी है, इसके एक पहलू पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है और स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने हमें इसकी याद दिलाई है। बैंकिंग जगत में करोड़ों की अनियमितता से जुड़े मामलों को केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को सौंपे जाने के लिए अदालत में एक याचिका दायर की गई थी। अपराधियों द्वारा इन वित्तीय कदाचारों को करने में जिस आसानी से उच्च तकनीक का उपयोग किया जाता है, उसे देखते हुए, जांच एजेंसियों के पास ऐसे अपराधों को रोकने और उनकी जांच या जांच करने के लिए नवीनतम तकनीक के साथ जनशक्ति होना आवश्यक है। कोर्ट की यह राय मौजूदा समय में बहुत महत्वपूर्ण है और इस मामले में ही नहीं बल्कि व्यापक संदर्भ में भी इसे ध्यान में रखा जाना चाहिए। 

याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार के साथ-साथ रिजर्व बैंक भी बड़े औद्योगिक समूहों के करोड़ों रुपये का कर्ज नहीं चुकाने के व्यवहार पर गंभीरता से ध्यान नहीं दे रहा है। इसीलिए इन मामलों को जांच के लिए सीबीआई को सौंपने की मांग की गई थी। सुप्रीम कोर्ट के जज संजय किशन कौल, अभय ओक और बी.  वी  नागरत्न की बेंच ने  कहा कि ऐसे सभी मामलों को सीबीआई को सौंपकर उस व्यवस्था को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। दरअसल, अगर इस तरह की हेराफेरी की रकम 50 करोड़ रुपये से ज्यादा है तो इन मामलों को 'सीबीआई' को सौंपा जाना चाहिए, इस संबंध में केंद्र सरकार द्वारा गठित एक समिति ने सिफारिश की है। कमेटी का कहना है कि इसकी वजह यह है कि स्थानीय पुलिस इतने करोड़ की हेराफेरी की जांच नहीं कर पाएगी। लेकिन बेंच ने साफ कर दिया है कि इसका समाधान सीबीआई के भरोसे नहीं रहना है। इस मामले में एक और अहम बात यह है कि रिजर्व बैंक ने देश भर के विभिन्न बैंकों में चल रही गड़बड़ी को लेकर हाथ उपर उठाये है।  भारतीय रिजर्व बैंक ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में स्पष्ट किया है कि ये बैंक किसे कर्ज देने के लिए पूरी तरह से अधिकृत हैं और  अपने पिछले कर्ज या अन्य गलत कामों के लिए उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। साथ ही, इस याचिका की सुनवाई के दौरान, रिजर्व बैंक ने यह स्थिति अपनाई कि वह इस हेराफेरी के आरोपियों के पासपोर्ट जब्त करने या इन मामलों को 'फास्ट ट्रैक कोर्ट' में चलाने के बारे में कुछ नहीं कर सकता है। इसमें कम से कम कुछ सच्चाई है;  क्योंकि इस पासपोर्ट या 'फास्ट ट्रैक कोर्ट' के संबंध में निर्णय लेने की शक्ति केंद्र सरकार के पास है। सुप्रीम कोर्ट ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से इस संबंध में केंद्र के विचार प्रस्तुत करने को कहा है। ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि यह उलझाव अभी और बढ़ने वाला है, इसलिए आम लोगों के मन में यह शंका पैदा होना स्वाभाविक है कि जिन लोगों पर सैकड़ों करोड़ का कर्ज है, वे आजाद रहेंगे। हालाँकि, इस पृष्ठभूमि में भी, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए मुख्य निर्देश की ओर;  साथ ही चेतावनी को नजरअंदाज करने से काम नहीं चलेगा। यानी कोर्ट ने सवाल उठाया है कि सीबीआई जांच की मांग करना कितना उचित है। उन्होंने बताया कि पहले से ही विभिन्न मामलों की जांच का भारी बोझ है, लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि संगठन के पास ऐसे मामलों की जांच के लिए आवश्यक नवीनतम और जटिल तकनीक और पर्याप्त ज्ञान नहीं है। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने यह भी सुझाव दिया है कि इस संबंध में जानकार लोगों की एक समिति नियुक्त की जानी चाहिए। 

इस मौके पर आधुनिक समय में सभी समाजों और सरकारी संस्थानों के सामने का संकट आगे आया है। अर्थात यदि हम नवीन ज्ञान से रूबरू नहीं हुए तो दुष्ट प्रवृत्तियाँ इस शक्ति का प्रयोग अपने उद्देश्यों के लिए करेंगी। इसीलिए अगर उन्हें रोकना है तो कानूनों को लगातार अपडेट करना होगा। मौजूदा गति को देखते हुए साइबर कानूनों की हर पांच साल में गहन समीक्षा करनी होगी।  कानून बनाने और सार्वजनिक मामलों को विनियमित करने वाली संस्थाओं को दो कदम आगे रहना होगा। 'आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस' ने अब जीवन के सभी क्षेत्रों को कवर कर लिया है। मानव जीवन को अधिक सार्थक, अधिक सुखी, अधिक कल्याणकारी बनाने के लिए नवीन ज्ञान और विज्ञान का प्रयोग करना चाहिए। यह चुनौती आसान नहीं है। जैसे-जैसे तकनीक के नए फायदे सामने आएंगे, वैसे-वैसे अपराधी भी उस तकनीक का इस्तेमाल करेंगे और इस तरह कई नए खतरों का सामना करना पड़ सकता है। इसीलिए तकनीकी प्रगति की गति के साथ तालमेल बिठाने के लक्ष्य को सर्वाधिक प्राथमिकता देनी होगी। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली (महाराष्ट्र)

बुधवार, 25 जनवरी 2023

(बाल कहानी) बिल्लियों की दहीहंडी

 एक दादी थी।  उसकी एक पोती थी। उसका नाम था माधुरी।  घर में सिर्फ दो ही रहते थे। दोनों को बिल्लियों से बेहद लगाव था। उन्होंने घर में चार बिल्लियाँ पाल रखी थीं। एक का नाम बोकोबा था। दूसरा सोकोबा था।तीसरा कालोबा और चौथा सालोबा। 

एक बार क्या हुआ! दादी बाजार गई। माधुरी घर में सो रही थी।  घर में बिल्लियां भी थीं। दादी ने माखन ऊँचे पर रखा था। उसे बिल्लियों ने देखा था।  वे मक्खन प्राप्त करना चाहते थे। छलांग लगाकर उन तक नहीं पहुंचा जा सकता था। वहाँ माधुरी सो रही थी। बिल्लियों ने सोचा कि उनका शोर सुनकर वह जाग जाएगी और सारी योजना बेकार हो जाएगी। तब बोकोबा ने सोकोबा को करीब बुलाया। सोकोबा ने धीरे से कालोबा और सालोबा बुलाया। 

अब बोकोबा, सोकोबो, कालोबा और सालोबा सभी इकट्ठे हुए। लेकिन मक्खन कैसे मिलेगा? 

सब सोचने लगे। छोटा सालोबा बहुत होशियार था। वह कहने लगा, "बोकोबा, हम एक के ऊपर एक खड़े होंगे।"

हो गया!  योजना तय की गई और  बोकोबा पर सोकोबा खडा हो गया। फिर सोकोबा पर कालोबा, कालोबा पर सालोबा।इस प्रकार दहीहंडी का निर्माण हुआ। 

माधुरी दूसरी तरफ सो रही थी।  वह अचानक जाग गई। देखा तो सामने बिल्लीयों का दहीहंडी! उसे इसका  आनंद हुआ।  उसने चारों ओर देखा। दरवाजे पर वही दादी दिखाई दी। माधुरी खुशी से चीख उठी। "दादी, दादी जल्दी आओ।  बिल्लियों की दहीहंडी देखो।" 

बिल्लियाँ डर गईं और मक्खन छोड़कर भाग गईं। (अनुवाद)

सोमवार, 23 जनवरी 2023

सिर शर्म से झुका देने वाली घटना

 दरअसल हरियाणा में महिला पहलवानों की सफलता, उनकी मेहनत की तारीफ हो रही है। यह किसी चमत्कार से कम नहीं है कि इतनी बड़ी संख्या में हरियाणा की महिला पहलवानों ने आगे आकर कॉमनवेल्थ गेम्स, ओलंपिक जैसी विभिन्न अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में सीधे जीत हासिल की है। इन महिला खिलाड़ीयों को अनुकूल वातावरण और बुनियादी ढांचा प्रदान करना केंद्र और राज्य सरकारों का कर्तव्य है। लेकिन यह पहलवान ही हैं जिन्होंने सतह पर कितनी भयानक और सड़ी-गली चीजें सामने लायी हैं। कुश्ती में दुनिया में भारत का नाम रोशन करने वाले इन पहलवानों ने जंतर-मंतर पर भारतीय कुश्ती महासंघ के 'हीरो' बीजेपी सांसद बृजभूषण शरण सिंह पर यौन शोषण का आरोप लगाते हुए विरोध जताया. इस घटना ने देशवासियों का सिर शर्म से झुका दिया है। 

छह बार के सांसद और एक दशक से अधिक समय से कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष 66 वर्षीय बृजभूषण सिंह का इस क्षेत्र में दबदबा है। उन्हें उत्तर प्रदेश के कैसरगंज लोकसभा क्षेत्र में बाहुबली के नाम से जाना जाता है। वह खुद पहलवान हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश में पचास से अधिक स्कूलों, कॉलेजों और कई व्यायामशालाओं की स्थापना की है। युवकों को मैदान में उतारा है। भारत ने उनके कार्यकाल में सबसे ज्यादा मेडल जीते हैं। लेकिन अध्यक्ष पद की सफलता उनके सिर चढ़ पड़ी। तेज-तर्रार होने के कारण वे जल्द ही 'आता माझी सटकली' की भूमिका में आ जाते हैं। खड़कन कान के नीचे भी दे देते हैं। वही बृजभूषण पर महिला मल्लों ने यौन शोषण का आरोप लगाया है। उन्हें पद से हटाने और जेल में डालने के लिए उन्होंने बुधवार से शुक्रवार तक जंतर-मंतर पर धरना दिया। विनेश फोगाट का आरोप है कि वह वर्षों से महिला पहलवानों का यौन शोषण कर रहें हैं। इस आरोप ने केंद्र सरकार को हिला कर रख दिया है। खेल मंत्री अनुराग ठाकुर के दखल से आंदोलन थमा है। जांच के लिए एक कमेटी बनाई गई है। एक महीने के अंदर आएगी रिपोर्ट  लेकिन क्या समस्या का समाधान हो जायेगा? 

विनेश फोगट ने अक्टूबर 2021 में अपने परिवार के साथ प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की थी। तब उन्होंने  विनेश को अपनी लड़की कहा था। वहीं, विनेश का कहना है कि बृजमोहन के काले कारनामों को उनके कानों तक पहुंचाया गया।  विश्वास नहीं हो रहा है कि डेढ  साल बीत जाने के बाद भी प्रधानमंत्री मोदी जी इस बेहद गंभीर आरोप पर कोई कार्रवाई नहीं की। क्या कहीं राजनीति हो रही है? यह खोजना होगा।  लेकिन जंतर-मंतर पर पहलवानों के आंदोलन ने मोदी के 'बेटी बचाव, बेटी पढाओ’ पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। सरकार को इस बात का भी ख्याल रखना होगा कि अब लगातार यह आलोचना नहीं होगी कि अगर यौन शोषण का आरोपी बीजेपी का है तो वह छूट जाता है। मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली। महाराष्ट्र।


रविवार, 22 जनवरी 2023

ए मेरे प्यारे वतन...

हेमेन गुप्ता द्वारा निर्देशित, काबुलीवाला गुरुवर्य रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखित इसी नाम की कहानी पर आधारित फिल्म है। काबुलीवाला (बलराज साहनी), अफगानिस्तान में रहने वाला एक गरीब पठान अपने छोटे और खुशहाल परिवार के साथ जिसमें उसकी माँ और आठ साल की बेटी अमीना है। काबुलीवाला अपने परिवार में खुश है।  लेकिन उसके घर गरिबी है। उसने अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए एक साहूकार से कर्ज लिया है। एक दिन वह साहूकार से अपना वादा पूरा करने के लिए अफगानिस्तान छोड़कर पड़ोसी हिंदुस्थान जाने का फैसला करता है। उसने कहीं नौकरी करने, पैसा कमाने और साहूकार को भुगतान करने का मन बना लिया है। काबुलीवाले के लिए उसकी बेटी ही सब कुछ होती है। लेकिन उसके पास लड़की को छोड़ने के अलावा कोई चारा नहीं है।  एक दिन सुबह-सुबह वह अपनी बेटी को छोड़कर हिंदुस्थान चला जाता है। उसके साथ साहूकार के कर्ज का बोझ और अपनी बेटी की याद है। उसने कागज के एक टुकड़े पर उसके पंजे के निशान ले लिए।  ये छापें उसके अकेलेपन में उसका साथ देंगी। हिंदुस्थान आने के बाद, काबुलीवाला की दिनचर्या गली-गली जाकर बच्चों को गोलियां, बिस्कुट, खिलौने बेचना, साहूकारों को भुगतान करने के लिए पैसे जुटाना और उन कमरों में रहना था, जहाँ अफगानिस्तान से आए पठान पहले ही देश छोड़ चुके थे। एक दिन उसकी मुलाक़ात एक घर के पास रहने वाली मिनी नाम की लड़की से होती है और जो काबुलीवाला अपने देश को छोड़कर चला आता है, वह उस नन्ही मिनी में अपनी अमीना को देखता है। काबुलीवाला अपना घर छोड़ने के लिए दुखी है लेकिन वही काबुलीवाला अब मिनी उसके के जीवन में आने से खुश है। काबुलीवाला अमीना समजकर उस छोटी बच्ची के साथ खेलने, उसकी उम्र का होकर और उससे बात करने के एहसास में डूबा हुआ है। और एक दिन नन्ही मिनी बीमार पड़ जाती है और यह प्रसंग काबुलीवाले को अपनी अमीना की याद दिलाता है जो दूर अफगानिस्तान में है। मिनी की बीमारी से द्रवित काबुलीवाला अपने कमरे में आता है। वह अपने देश, अपने घर को याद कर भावुक हो जाता है। तभी कमरे में पठानों के गाने की आवाजें उसके कानों पर पड़ीं 'ए मेरे प्यारे वतन...' प्रेम धवन के बोल, संगीत सलिल चौधरी और आवाज मन्ना डे ने दी है।

काबुलीवाले के लिए उसका घर, उसका देश ही सब कुछ होता है। जिस मिट्टी में हम पैदा हुए, जिस मिट्टी में पले-बढ़े, वही हमारा देश है! हमारे देश के लोगों, उनके सानिध्य में बिताए वो सुखद पल। उन पर की गई प्रेम की वर्षा उनके जीवन के उपवन के समान है। काबुलीवाला का देश आज गरीब हो सकता है लेकिन फिर भी वह देश ही उसका सब कुछ है। 

मेरे प्यारे वतन, ए मेरे बिछडे चमन,
तुझपे दिल कुर्बान 
तूहि मेरी आरजू, तुहि मेरी आबरू...
तुहि मेरी जान

सुबह का समय, सूरज अभी उदय होना बाकी है। दूर-दूर तक फैली पर्वत श्रृंखलाएँ।  लोग अपनी आजीविका के लिए धीरे-धीरे ऊँटों पर दूर जा रहे थे, आकाश में बिखरे बादल और एक हलकी सी कोमल हवा। काबुलीवाले की आँखों के सामने वह सवेरा आ जाता है, जिस दिन उसने अपना वतन, अपना घर छोड़ा। उस दिन के बाद से उन्होंने अपनी बेटी को नहीं देखा।  हवा के झोंकों के साथ उसके दिल में यादें दौड़ती हैं। अपने देश की वह रंगीन शाम याद आती है। क्षितिज पर ईकटठा हुई रंगीन मैफिल। वे पेड़  पत्तों की हलचल।  काबुलीवाला और अधिक संवेदनशील हो जाता है। और मन्ना डे की भावपूर्ण आवाज हमें और भी भावुक कर देती है।

  तेरे दामन से जो आए उन हवाओं को सलाम
चूम लु उस जुबा को जिसपे आए तेरा नाम
सब से प्यारी सुबह तेरी, सब से रंगी तेरी शाम
तुझ पे दिल कुर्बान

काबुलीवाला जो अपने देश से दूर आया है जैसे की वह अपनी माँ से दूर एक बच्चे के समान। हमारा देश माता के समान होता है, इसलिए देश को माता कहा जाता है।काबुलीवाला भी अपने देश के प्रति यही भावना रखता है। लेकिन देश को मां के रूप में याद करते हुए उन्हें अपनी मां और बेटी की भी याद आती है।

श्याम का समय। घर में टिमटिमाती रोशनी और घर में लाठी के सहारे इधर उधर घूमती मां। अधिक उम्र होने के कारण वह चल भी नहीं पाती है। जिस उम्र में हम उसका साथ देने की जरूरत है, तभी हम दूर देश में आ गए। कौन उसकी मदद करेगा? हमारी लडकी का? वो तो छोटी लड़की है, वो क्या सहारा देगी? सामने पर्वतमाला, विशाल आकाश और अमीना घर की ओर भागती हुई। मानो उस पर बूढ़ी दादी की देखभाल करने की जिम्मेदारी हो। पूरा दृश्य काबुलीवाला की आंखों के सामने आ जाता है और वह व्याकुल हो जाता है। 

मा का दिल बन के कभी सिने से लग जाता है तू
और कभीं नन्ही सी बेटी बन के याद आता है तू
जितना याद आता है मुझ को, उतना तडपाता है तू
तुझ पे दिल कुर्बान

काबुलीवाला जो अपनी भावनात्मक दुनिया में डूबा हुआ है और एक बूढ़ा पठान जो गीतों में व्यक्त भावनाओं को सुनता है। बूढ़े भी अपने प्यारे देश की यादों से द्रवित हो जाते हैं। अपने देश, अपने लोगों से बढ़कर और क्या प्यारा हो सकता है? लेकिन काबुलीवाला के मन में आता है,क्या कभी हम हिंदुस्थान से अपने देश वापस जा पाएंगे? क्या हमारा हाल इस बूढ़े पठान जैसा होगा? क्या बुढ़ापा हमें पकड़ लेगा और एक दिन हमे मौत का सामना करना पडेगा? लेकिन हम अपने देश को कितना भी दूर क्यों न छोड़ दें, मौत हमारे देश में ही आनी चाहीए। कबालीवाला चाहता है कि हम अपनी आखिरी सांस उस मिट्टी में लें जिसमें हम पैदा हुए हैं...

छोडकर तेरी जमीन को दूर आ पहुंचे है हम
फिरभी है यहि तमन्ना तेरे जरों कि कसम
हम जहा पैदा हुये उस जगह हि निकले दम
ए मेरे प्यारे वतन

यह भावुक गीत अपने देश, अपने घर की विरह के साथ समाप्त होता है। काबुलीवाला दूर रह रही अपनी बेटी को याद करता है। वह अपनी जेब से एक कागज निकालता है और उस पर के अपनी बेटी के हाथों के निशान चूमता है।  काबुलीवाले को आने वाली अपनी बेटी की याद, उसका मनमुटाव हमें भी बेचैन कर देता है।सैकड़ों मील दूर का यह काबुलीवाला किसी दिन अपनी बेटी से, अपनी माँ से फिर मिलेगा! उसे देश की मिट्टी से मोह है, वह उस मिट्टी को छूएगा। हम आँख बंद करके उस गीत में मशगूल हो जाते हैं, मन उदास हो जाता है और आंखें जाने अनजाने नम हो जाती हैं। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, जत जि. सांगली ।

शनिवार, 21 जनवरी 2023

( बाल कहानी) सच्ची सुंदरता

आज नदी के किनारे जामून के पेड़ पर चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई दे रही थी।  पेड़ को खूब सजाया गया था...

मैना बहुत खुश लग रही थी क्योंकि आज उसका जन्मदिन था।  इस शाखा से उस शाखा पर उड़कर बैठनेवाली मैना से माँ ने पुछा,  "क्या तुमने अपने सभी दोस्तों को बुलाया?"  क्या तुम किसी को भूली तो नहीं?"
"नहीं माँ, किसी को भी नहीं भुली, सभी को बताया है।" मैना ने कहा।  'मुझे एक बार बताओ, ''किस किस को बुलाया है तुने?'
"मोर, गौरैया, सालुंकी, बगुला, कबूतर, पारवा, तित्वी... सबको बताया।"
"क्या तुमने उस कोयल को  बताया नहीं?"
"नहीं, मैंने उसे नहीं बताया।"
"क्यों?"
"देखो माँ, हम उसे पसंद नहीं करते।  वह कैसे दिखती  है?  दूसरी बात, हम उससे बात नहीं करते, तो उसे क्यों बुलाऊं?  सच कहूं तो मां, हममें से किसीं को भी पसंद नहीं वह, इसलिए हम उसके साथ खाना भी नहीं खाते।'
"सिर्फ इसलिए कि वह काली है?"
"हाँ।''
मां को मैना का व्यवहार बिल्कुल पसंद नहीं आया।  तब माँ ने उसके पास जाकर कहा, “देखो बेबी, खूबसूरती सिर्फ दिखने में नहीं होती।  आप दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, आप दूसरों के लिए कितने उपयोगी हैं, आप अपने अस्तित्व और काम से दूसरों को कितनी खुशी देते हैं, यही मायने रखता है। आपकी सुंदरता भी आपके गुणों पर निर्भर करती है।
माँ बोल रही थी, तभी बिच में मैना बोली, "उसमें कौन से गुण हैं?"

'देखो, जब कोयल गाती है तो सारा जंगल मुग्ध हो जाता है।  जंगल ही नहीं गांव में भी हर कोई उनकी आवाज सुनने का बेसब्री से इंतजार करता है।  भूल गई हैं  तू कि जिस कोयल से आप लोग बात नहीं करते हैं, वह पिछले साल आपकी कक्षा में प्रथम आई थी?उसका गायन कौशल, उनका अकादमिक कौशल सतह पर सिर्फ अच्छा दिखने से कहीं बेहतर है।  "किसी की सुंदरता उसके रूप से नहीं, बल्कि उसके अंग की गुणवत्ता से निर्धारित होती है।" मैना अपनी माँ की बातों को ध्यान से सुन रही थी।
अब उसके चेहरे पर मायूसी दिख रही थी।

उसके जन्मदिन पर, वह परेशान न हो, इसलिए उसकी माँ ने उसे 'अब खेलने जाओ' कहकर बाहर भेज दिया।  शाम हो गयी।  एक पक्षी एक एक उपहार के साथ जन्मदिन की पार्टी में शामिल हुआ।  मैना और उसकी माँ मुस्कुराते हुए सभी का स्वागत कर रहे थे।

उसी समय कोयल भी आ गई और मुस्कुराते हुए पेड़ पर बैठ गई।  उसने मैना के हाथ में गिफ्ट थमा दिया। मैना की माँ उसे देखकर बहुत खुश हुई।  मैना की माँ के आग्रह पर कोकिला ने एक सुन्दर गीत गाया।

उसके बाद सभी ने मनचाहा फल खाया और सभी अपने-अपने घरों की ओर रवाना हो गए.  तब माँ ने उसे प्यार से गले लगाया और कहा,"समझदार हो गई है मेरी बच्ची, तुने कोयल को बुलाया, मुझे बहुत अच्छा लगा।" तब मैना ने कहा, 'कोयल ने कितना सुंदर गीत गाया है। सच में, माँ, अगर आपने मुझे यह नहीं समझाया होता, तो मैं इसे कभी नहीं समझ पाती।"

जब मैं कल स्कूल जाऊंगी ना तो सबको यह समझाऊं की हमें कोयल की शक्ल नहीं बल्कि गुणों की सुंदरता देखनी चाहिए।" (अनुवाद- मच्छिंद्र ऐनापुरे)

शुक्रवार, 20 जनवरी 2023

जनसंख्या: आर्थिक विकास के लिए इंजन या बाधा?

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने कहा  है कि भारत, जो वर्तमान में दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है, वर्ष 2023 में चीन को पछाड़कर दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जाएगा। क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व में सातवें स्थान पर आने वाला भारत जनसंख्या की दृष्टि से प्रथम स्थान पर पहुंच रहा है, देश के संसाधनों और बढ़ती जनसंख्या की समुचित योजना बनाना महत्वपूर्ण होगा। एक ओर तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या को आर्थिक विकास में बाधक माना जाता है, थियोडोर शुल्त्स जैसे अर्थशास्त्रियों का मत है कि यदि जनसंख्या को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, प्रशिक्षण और स्वास्थ्य सुविधाओं के माध्यम से विकास की ओर प्रेरित किया जाता है, तो जनसंख्या को मानव पूंजी कहा जा सकता है और देश का तेजी से विकास हो सकता है। डेविड ब्लम और डेविड कनिंग ने विश्लेषण किया है कि कैसे एक देश जनसंख्या की मदद से जनसंख्या लाभांश प्राप्त कर सकता है। उन्होंने बताया कि जनसंख्या की आयु संरचना और प्रचुर मात्रा में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, प्रशिक्षण और स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता से श्रम शक्ति की उत्पादकता बढ़ती है और आर्थिक विकास की दर बढ़ती है। चीन जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश ने मानव पूंजी के नियोजित और अनुशासित विकास द्वारा उच्च जनसंख्या लाभांश प्राप्त करने और विश्व बाजार पर हावी होने का सफलतापूर्वक प्रयास किया है। आज, जब भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला और बदले में सबसे अधिक मानव संसाधन संपन्न देश बन गया है, यह समय मानव पूंजी और जनसंख्या लाभांश के विभिन्न पहलुओं पर गंभीरता से विचार करने का है जो आर्थिक विकास के लिए महत्वपूर्ण हैं। 

जनसंख्या की आयु संरचना, जो मानव पूंजी और जनसंख्या लाभांश के मामले में महत्वपूर्ण है, को ध्यान में रखते हुए, भारत की कुल जनसंख्या का 15 से 64 वर्ष का कामकाजी आयु समूह 67 प्रतिशत है। यह स्पष्ट है कि उच्च श्रम उत्पादकता के माध्यम से उच्च जनसंख्या लाभांश प्राप्त करने के लिए देश अच्छी स्थिति में है। हालांकि, वास्तविकता अलग है।अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) 2021 के आंकड़ों के अनुसार, श्रम उत्पादकता में भारत का वैश्विक प्रदर्शन निराशाजनक है, भारत में प्रति घंटे श्रम के उत्पादित सकल घरेलू उत्पाद का मूल्य केवल 8.3 डॉलर है। इस रैंकिंग में, यह लक्ज़मबर्ग के लिए 128.1 डॉलर पर और संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए 70.6 डॉलर पर उच्चतम प्रतीत होता है।इससे भारत में श्रम उत्पादकता का अनुमान लगाया जा सकता है। वैश्विक प्रति व्यक्ति आय में भारत का 139वां स्थान, जो आज सबसे अधिक मानव पूंजी वाला देश बनता जा रहा है, यह मन को अशांत करता है। दूसरी ओर, विभिन्न आर्थिक क्षेत्रों और मानव जीवन में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी का महत्व पिछले एक दशक से विश्व स्तर पर बढ़ रहा है। इस संबंध में इस क्षेत्र में लगातार बड़ी मात्रा में अनुसंधान चल रहा है। उस संदर्भ में पेटेंट, बौद्धिक संपदा अधिकार दर्ज किए जाते हैं। विश्व में सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश होते हुए भी इस क्षेत्र में भारत का स्थान बहुत पीछे है। देखा जा रहा है कि इस संबंध में की गई रैंकिंग में भारत 43वें स्थान पर है। सूचना और संचार प्रौद्योगिकी सूचकांक की गणना संयुक्त राष्ट्र दूरसंचार संघ द्वारा  इस तीन मानदंडों के आधार पर की जाती है: सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अवसर, उपयोग और कौशल। यह सच है कि इस सूचकांक की गणना से भारत को अभी तक विश्व के शीर्ष 30 देशों की सूची में स्थान नहीं मिला है। संसाधनों की बर्बादी से बचने के लिए, मानव पूंजी के विकास और जनसंख्या लाभांश को प्राप्त करने के लिए देश की जनसंख्या और उपलब्ध संसाधनों के समायोजन की आवश्यकता होती है। भारत की जनसंख्या के अनुपात में खनिज, प्राकृतिक गैस, पेट्रोलियम उत्पाद, पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों की बहुत सीमित उपलब्धता को देखते हुए संसाधनों की बर्बादी को कम करने और उनका कुशल उपयोग करने के लिए लोगों की मानसिकता बनाना आवश्यक है। 

साथ ही मानव पूँजी के विकास को दृष्टिगत रखते हुए लोगों में देशभक्ति एवं सामाजिक एकता की भावना जागृत कर उन्हें आर्थिक विकास की ओर प्रेरित करना आवश्यक है।  भारत विविधता का देश माना जाता है। भारत विविधता का देश माना जाता है।  हालाँकि, देश की जनसंख्या को विविधता के आधार पर विभाजित करने की वर्तमान स्थिति आर्थिक विकास के लिए खतरा है। देशों में धार्मिक, जातीय, भाषाई, क्षेत्रीय, सांस्कृतिक संघर्षों से मानव पूंजी का भारी अपव्यय हो सकता है।  हालांकि, यह सच है कि इसका देश में निवेश और बदले में आर्थिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। 

दूसरी ओर, मानव पूंजी पर विचार करते समय, देश में अपराध की प्रकृति को देखना भी महत्वपूर्ण है। देश में अपराध में वृद्धि को मानव पूंजी के विकास में एक बड़ी बाधा माना जाता है। इसका देश के आर्थिक विकास पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है।  भारत में बढ़ती जनसंख्या के साथ-साथ अपराध दर भी बढ़ रही है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि 2019 से 2020 तक देश में पंजीकृत अपराधों की कुल संख्या उसी वर्ष 51 लाख 56 हजार 158 से बढ़कर 66 लाख हो गई। इसी रिपोर्ट के अनुसार, देश में शराब और मादक पदार्थों की तस्करी के अपराधों की दर 2019 में 68.8 प्रतिशत से बढ़कर 2021 में 79.9 प्रतिशत हो गई है। इस प्रकार मानव पूंजी का दुरुपयोग देश के आर्थिक विकास के लिए घातक है। 

वास्तव में, भारत को दुनिया की अग्रणी उभरती अर्थव्यवस्थाओं में से एक माना जाता है। दुनिया में सबसे अधिक मानव पूंजी वाले देश के पास आज विश्व बाजार पर हावी होने का एक बड़ा अवसर है। इस संबंध में यद्यपि देश में उद्योग, कृषि और सेवा क्षेत्रों में उत्पादन को गति देकर आर्थिक विकास दर को बढ़ाने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन देश के नागरिक के रूप में लोगों की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। यह एक तथ्य है कि मानव संसाधन के विकास के लिए सरकार के स्तर पर विभिन्न शैक्षिक पाठ्यक्रम और प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाने के बावजूद इस पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देकर शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने का कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है। उपलब्ध संसाधनों की बर्बादी को कम करने और उनका पूरा उपयोग करने और पुन: उपयोग करने के लिए जागरूकता पैदा करना आवश्यक है। वास्तव में, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, प्रशिक्षण और बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं की मदद से श्रम उत्पादकता में वृद्धि करके उच्च आर्थिक विकास दर के लक्ष्य को प्राप्त करना संभव है। उस अर्थ में, देश में मानव पूंजी को आर्थिक विकास के इंजन के रूप में वर्णित किया जाएगा या बाधा के रूप में यह समय ही निर्धारित करेगा। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली ।महाराष्ट्र।


मंगलवार, 17 जनवरी 2023

कल, आज और कल

किताबें सूचनाओं का खजाना होती हैं।  किताबें नई चीजों की जानकारी देती हैं, हमारा ज्ञान बढ़ाती हैं, नए शब्दों का परिचय देती हैं। किताबें हमें सोचने पर मजबूर करती हैं। अपने विचारों को दिशा देते हैं।  ज्ञान के साथ-साथ हमारा मनोरंजन करते हैं। किताबें हमारा साथ देती हैं। यदि आप घर पर अकेले हैं, समय बीत नहीं रहा है, आप बोर हो रहे हैं, आपसे बात करने वाला कोई नहीं है, तो किताबें निकालें और पढ़ना शुरू करें। देखिए, समय कितना मजेदार बीतेगा। किताबें सिर्फ कहानियों के होते नहीं हैं। महान लोगों की जीवनी, यात्रा वृत्तांत, कहानी, कविता, नाटक, उपन्यास, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक और प्रकृति से संबंधित कई पुस्तकें होती हैं।

पहले किताबें नहीं होती थीं।  प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार नहीं हुआ था। तब भी लोग एक-दूसरे को संदेश भेजते थे। वह अपने विचारों और यादों को लिखते थे। वे पत्तों (भूर्जपत्र) पर, वृक्षों की छाल पर अभिवादन, संदेश, विचार, स्मृतियाँ लिखा करते थे। लिखने के लिए कपड़े और धातु का भी इस्तेमाल होता था। कुछ जगहों पर इसे पत्थर पर भी उकेरा गया है। इसे शिलालेख कहते हैं। फिर कागज का आविष्कार हुआ।  हम कागज पर लिखने लगे। छापेखाने की सहायता से लेख छपने लगे। लेख एकत्रित करने लगे।  हम उन्हें पुस्तकें कहने लगे। लिखित संग्रहों को न केवल पुस्तकें कहा जाता है बल्कि कुछ को ग्रंथ, पोथी भी कहा जाता है। हम मोबाइल, कंप्यूटर पर भी किताब देखते हैं। मोबाइल, कंप्यूटर पर के किताब को 'ई बुक' कहा जाता है। पहले छपी किताबें और आज की 'ई-बुक्स' किताबों का बदलता रूप है।

हमें नियमित रूप से पुस्तकें पढ़नी चाहिए।  इसके कई फायदे हैं। पढ़ना एक ऐसी आदत है जो आपको एक बेहतर इंसान बना सकती है। पढ़ने से हमें ज्ञान और प्रेरणा मिलती है। यह हमें स्मार्ट बनाता है। कई महान लोग बेहतर और सफल जीवन के लिए पढ़ने की सलाह देते हैं। उनका मानना ​​है कि पढ़ने की आदत आपके जीवन को सफल बना सकती है और इसके कई उदाहरण हैं। पढ़ने से हमारे दिमाग में नए विचार और कल्पना आते हैं जो हमें आगे जाकर सही निर्णय लेने में मदद करते हैं। पढ़ना आपकी याददाश्त में सुधार करने में मदद करता है। इसके अलावा हम कई नए शब्द भी सीखते हैं जो हमारी शब्दावली और हमारे संचार कौशल में सुधार करते हैं। जब हम कुछ भी पढ़ते हैं तो उसमें तल्लीन हो जाते हैं, हम अपने अतीत को भूल जाते हैं और वर्तमान में जीते हैं।

किताबें पढ़ने से हम अपनी बुरी यादें भूल जाते हैं, यह हमारे तनाव को कम करने में मदद करता है। किताबें दुनिया की सबसे शक्तिशाली चीजों में से एक हैं। वे हमें ज्ञान हासिल करने, बढ़ने और प्रेरित रहने के नए अवसर देते हैं। अच्छी किताबें एक बड़ा निवेश हैं। यदि हम उन्हें पढ़ते हैं, तो हमें महान विचार और अनुभव दिखाई देते हैं। पढ़ने के अनेक लाभों को देखते हुए हम कह सकते हैं कि पढ़ना एक अच्छी आदत है और हम सभी को इसे अपने जीवन में अपनाना चाहिए। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली। महाराष्ट्र।

( बाल कहानी) शिविर ने सिखाया आत्मनिर्भरता

विनय घर में सभी का प्यारा;  लेकिन लाड़-प्यार के कारण कुछ जिद्दी बना है।  उसे हर काम के लिए मां की जरूरत होती है।  पढ़ना, खाना, सैर पर जाना, अपना सामान ढूंढ़ना, सभी काम के लिए उसे मां की जरूरत होती है।  माँ भी उसका काम करने में  खुश थी;  और इसीलिए उसने खुद काम करने की आदत को तोड़ा।

माँ उसे कहा करती थी, “ विनय, अपना काम खुद करो।  यह हमें खुशी देता है;  लेकिन अगर हम कभी बाहर जाते हैं तो हमें कोई दिक्कत नहीं होगी।" विनय ने कहा, "माँ, मैं बड़ा हो जाऊंगा, तब मैं अपना काम खुद करूँगा और वैसे भी मैं अकेला कहाँ जा रहा हूँ?"

माँ अनुत्तर हो जाती।  एक दिन विनय स्कूल से डांस करते करते घर आया।  वह दरवाजे से चिल्लाया, “माँ, हमारा स्कूल कैंप चिंचवड़े गाँव जा रहा है।  यह दो दिवसीय शिविर है।  हम एक तंबू में रहने वाले हैं और खाना पकाने सहित सभी काम करनेवाले हैं।" माँ चिंतित हो गई।  सादा पानी चाहिए, तो देना पड़ता है और यह कैसे काम करेगा?

 माँ ने विनय के पिता को बताया।  बाबा ने कहा, “वह अन्य बच्चों के साथ-साथ काम भी सीख जायेगा।  वह आत्मनिर्भरता सीखेगा।" माता-पिता ने अनुमति दे दी।  विनय को कहा गया, ''तुझे अभी से खुद को तैयार कर लेना चाहिए।  अगर तुझे कोई सामान चाहिए तो बैग में रख दे।” विनय तैयार हो गया।  उसने सामान इकट्ठा किया और उन्हें बैग में भर दिया।  वह थक गया था;  लेकिन उसने काम करना जारी रखा ताकि उसके माता-पिता अनुमति से इनकार न करें।

वास्तव में जाने का दिन आ गया।  विनय उत्साह से स्कूल पहुंचा।  सभी लोग बस से चिंचवड़े गांव पहुंचे।  सभी ने अपना-अपना सामान उतार दिया।   शिक्षक द्वारा दिए गए निर्देशों के अनुसार तम्बू बनाया गया था।  सर ने सभी को काम बांट दिया।  शाम के भोजन की तैयारी करनी थी।विनय को चूल्हा जलाने के लिए आसपास पड़ी लकड़ी लाने का काम मिला।  कोई सब्जी उठा रहा था तो कोई राईस के लिए चावल धो रहा था।  बच्चे रुचि के साथ काम कर रहे थे।

 विनय ने आसपास के खेतों में पड़ी लकड़ियों को इकट्ठा किया।  विनय पसीना बहा रहा था;  लेकिन उसने इसका आनंद लिया।  बच्चों ने टीचर के मार्गदर्शन में राईस और सब्जियां पकाईं।  काम की वजह से सभी को भूख लगी थी।  पंगत बनाकर सब ने आनंद से भोजन किया।  रात में टीचर ने शेकोटी जला दी। शेकोटी के पास बैठकर बच्चों ने गीत का कार्यक्रम किया।  दिन भर की कड़ी मेहनत और शारीरिक परिश्रम के बाद  वे सब तुरंत सो गये।  सोते समय विनय ने सोचा, 'जब मैं घर पर होता हूं तो कुछ नहीं करता था।  सब काम माँ   करती है।

वह सब कुछ करते हुए कितनी थकती हुई होगी।  विनय ने फैसला किया, 'यहां से घर जाने के बाद मैं अपना काम खुद करुंगा। उसने ठाण लिया, अब वह अपनी मां को कभी परेशान नहीं करेगा।  वह कब सो गया पता ही नहीं चला। 

शिविर ने उन्हें सिखाया कि आत्मनिर्भरता क्या है और यह कितना आनंद लाती है। (अनुवाद)

रविवार, 15 जनवरी 2023

(बाल कहानी) फलों की सभा

एक बड़े घर के बगीचे में कोहराम मच गया।  पूरे बगीचे को पत्तों और फूलों से सजाया गया था।  हरी लताओं का मंडप सुंदर लग रहा था।  प्रवेश द्वार के पास अंगूर के गुच्छे स्वागत की तैयारी कर रहे थे।  क्योंकि बाग में फलों का जमावड़ा होने वाला था।  धीरे-धीरे सारे फल बगीचे में जमा होने लगे।  नासिक के अंगूर, नागपुर के संतरे, वसई जलगाँव के केले, पनवेल के कलिंगद... सभी क्षेत्रों से फल एकत्र आये थे।

अनानस, सेब सब आ गये थे।  जंभूल और बोर सभी से पूछताछ कर रहे थे।  केले और पपीते सभी को अपने अपने जगह पर बैठा रहे थे।  नारियल, सेब, चूजा चुपचाप एक कोने में बैठे थे।  बाग के सभी फल आज की बैठक के मुख्य अतिथि का इंतजार कर रहे थे।  इसी बीच बगीचे के बाहर से शोर मचाते हुए तोतों का झुंड बगीचे में आने लगा।  तब कोयल ने कहा, “आओ, आओ, मेहमान आए हैं।  आइए स्वागत करते हैं।"

सभी फल सतर्क हो गए और बगीचे के प्रवेश द्वार की ओर देखने लगे।  बोराओं ने दो पंक्तियाँ बनाईं और उनके माध्यम से आज की बैठक के अतिथि आमसिंह और उनके साथी ऐट से चले आ रहे थे।  एक ऊँचे स्थान पर 'फलों का राजा आम' यानी आमसिंह महाराज विराजमान हुए।  उसके साथी इधर-उधर खड़े रहे।  सभी फल उनके-अपने स्थान पर बैठ गये और समारोह शुरू हुआ।

दलीम्बाराव ने सभी का स्वागत किया।  कोयल ने मधुर स्वर में गाना गाया।  जलगाँव के पीले धम्मक केले ने मनमोहक नृत्य किया।  कलिंगदों ने नाटक का प्रदर्शन किया, जबकि संत्रीने कहानियां सुनाईं।

यह सब चल ही रहा था कि एक कोने में चीकू और सेब के बीच फुसफुसाहट चल रही थी।  पेरू ने उसकी बात सुनी और बीच में पेरू ने जोर से कहा, " महाराज, सेब के पास शिकायत करने के लिए कुछ है।"  सब लोग सेब को देखने लगे।  किसी ने कहा, ''उनकी बिल्कुल मत सुनो।'' जब सबने शोर मचाना शुरू किया तो आमसिंह महाराज ने कहा, ''रुको, चुप रहो। बोलने दो।''

सेब ने कहा, 'हम सभी को ताकत देते हैं, बीमारी से निजात दिलाते हैं।  तो राजा का सम्मान केवल आपके लिए ही क्यों है?  मुझे भी राजा बनना है।''  कुछ ने विरोध किया तो कुछ ने सेब के दावे का जोरदार समर्थन किया।सभी कार्यक्रमों में हड़कंप मच गया।  तभी एक बड़ा हरा कलिंगद आगे आया और सभी को शांत किया और कहा, "देखो, मेरे दोस्तों, फलों का राजा 'आम' यानी हमारे आमसिंह महाराज ही क्यों?  ये चुपचाप सुनो।'' सब चुपचाप सुनने लगे।

“हम सब सभी के लिए उपयोगी हैं;  लेकिन हमारे राजा आम क्यों?  तो सुनिए!  आम की मीठी महक, इसकी पत्तियों और टहनियों का प्रयोग त्योहारों में किया जाता है।  मंगल के अवसर पर हर घर में पत्ता तोरण लगाया जाता है।  आम का जूस अमरस सभी को पसंद होता है।  आम की बर्फी, कैरी का अचार, आम की वड़ी सभी को पसंद होती है.  इसके अलावा आमसिंह महाराज को हर साल विदेश से बुलाया जाता है।  इससे आम उत्पादकों को भी अच्छी कीमत मिलती है।  लकड़ी भी मजबूत होती है।

इन सभी गुणों के कारण उन्हें "फलों का राजा" कहा जाता है, समझे?तो हमें भी उनका सम्मान करना चाहिए। क्या यह सच है?  कलिंगदा के भाषण से सभी खुश थे और जयकारे लगाते रहे, "हमारे राजाओं की जय!", श्रुती ने नींद में ही अपने हाथों से तालीयां बजाई, जैसे दादाजी ने कहा, 'अरे श्रुती, उठो!  देखो, मैं तुम्हारे लिए आम की पेटी लाया हूँ।  क्या तुम्हें आम पसंद है?'' श्रुती जल्दी से उठ बैठी।

अनुवाद -मच्छिंद्र ऐनापुरे





( बाल कहानी) बस्ते की नाराजगी

 वार्षिक परीक्षा का अंतिम पेपर हो चुका था।  सभी बच्चे जोर-जोर से चिल्लाते हुए स्कूल से बाहर भागे।  अब पूरे महीने की छुट्टी, धमाल, मस्ती।  एक-दूसरे को बधाई देते हुए बच्चे अपने-अपने घर आ गए।  विनय भी घर आ गया।  उसने लगभग अपना बस्ता और जूते कोने में फेंक दिए।

बस्ता परेशान था।  पूरे एक साल से उसकी रक्षा कर रहे विनय ने उसके साथ ऐसा व्यवहार किया, यह देखकर  रोने लगा।  उसे याद आया कि विनय ने पूरे साल उसके साथ कितना अच्छा व्यवहार किया था।  वह हर शाम कल का कार्यक्रम देखकर उन विषयों की कापियों और पुस्तकों को रुचि से भर देता था।

सप्ताह में एक बार साफ स्नान कराता था।  वह उसे कंधे पर उठाकर स्कूल ले जाता था।  क्लास में जाने के बाद भी उसे बेंच के कप्पे में रखता था।  कभी-कभी वह उसे खेलने के लिए मैदान में ले जाता और उसे एक पेड़ के नीचे छाया में रख देता।  विनय बीच वेकेशन में उस पर कितना ध्यान देता था।

 जब बच्चे गड़बड़ कर रहे हों तो  कितनी सावधानी बरतता है कि मैं बेंच से न गिरुं।  बस्ता यह याद करके रोने लगा कि वह सभी वर्गों में एक हुशार विनय के बस्ते के रूप में कितना गर्व करता था।  अब हमें एक महीने तक ऐसे ही धूल खानी है, तो वह बहुत दुखी हुआ।

कोने में पड़ी फ़ुटबॉल ने उसके रोने की आवाज़ सुनी।  फ़ुटबॉल ने कहा, "ओह, तुम इतना क्यों रो रहे हो?  तुझे यहां सिर्फ एक महीने के लिए रहना होगा।  मैं यहां पूरे एक साल से पड़ा हुआ हूं।  सप्ताह में एक बार विनय मुझे मैदान पर ले जाता है और मेरे साथ खेलता है।  विनय मेरे साथ अच्छा व्यवहार करता है;  लेकिन उसके दोस्त मुझे बहुत जोर से लात मारते हैं।

कभी-कभी वे मुझे मैदान पर कीचड़ में भी रोल कर देते हैं।  कभी-कभी मेरी हवा निकल जाने के बाद भी मेरे साथ खेलते हैं।  सोचो मैं कितना दुखी होता हूं।" फुटबॉल ने उसकी आंखें पोंछी। उसने कहा, "ओह, विनय कितना तनाव में रहता होगा। वह स्कूल की पढ़ाई, कक्षा की पढ़ाई, विभिन्न गतिविधियों से कितना थक जात होगा।

यह हम सब का दायित्व है कि हम उसके समय में उनके लिए उपयोगी बनें।  उसके जीवन को सुंदर बनाना है।  स्कूल के समय के दौरान 'तेरी जिम्मेदारी; और छुट्टियों पर हमारी जिम्मेदारी।  टहलने के लिए बाहर जाते समय साइकिल की जिम्मेदारी।  और वैसे भी, क्या विनय  हमारे बिना खूश रह सकता है क्या?"

इसलिए उसने तुझे फेंक दिया, इसका बुरा मत मानना।  दो-तीन दिन में विनय तुझे अवश्य याद करेगा।  वह तुझे धोकर साफ करेगा और अलमारी में रख देगा।  एक महीने के बाद उसका स्कूल शुरू होगा तो, वह फिर से पहले की तरह ही तेरी देखभाल करेगा।  अब अपना रोना बंद कर दो।"

फुटबाल की बात से बस्ते का हौसला बढ़ा।  उसने रोना बंद कर दिया।  उसने फ़ुटबॉल से कहा, “अच्छा किया दोस्त तुमने मेरी आँखें खोल दीं।  यह सिर्फ एक महीने के लिए है।  मैं एक महीने तक चुप रहूंगा।"

एक बार स्कूल शुरू होने के बाद, मैं फिर से विनय के पास जाऊँगा।  तब तक तुम, बल्ला, साइकिल, अन्य खिलौने तुम सब विनय के साथ खेलो। तुम अपना कर्तव्य बखूबी से निभाते रहो।  मेरे दोस्त बहुत बहुत धन्यवाद।"

इतना कहते ही बस्ते की नाराजगी कहीं की कहीं भाग गयी और बस्ता विनय का स्कूल शुरू होने का इंतजार करने लगा।

- अनुवाद : मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली। महाराष्ट्र।


मंगलवार, 10 जनवरी 2023

स्वामी विवेकानंद और आधुनिक भारत

विवेकानंद वेदांत के भाष्यकार थे।  उन्होंने अमेरिका के लोगों को दार्शनिक वेदांत और भारत के लोगों को व्यावहारिक वेदांत पढ़ाया। शिकागो में अपने अंतिम भाषण में स्वामीजी ने कहा था कि 21वीं सदी में भारत संस्कृति के आधार पर नहीं बल्कि विज्ञान और तकनीक के आधार पर दुनिया पर राज करेगा। आज भारत अंतरिक्ष में उपग्रह भेजने वाला दुनिया का सबसे बड़ा देश है।  परमाणु विज्ञान प्राप्त किया है। परमाणु बम विकसित किए गए हैं और बैलिस्टिक मिसाइल विकसित की गई हैं। भारतीय प्रतिभा ने दुनिया भर में अपनी छाप छोड़ी है।  भारत निकट भविष्य में विश्व का नेतृत्व करना चाहता है। इसके लिए कृषि, उद्योग और शिक्षा तीनों क्षेत्रों में सर्वोच्च शिखर पर पहुंचना होगा।

भारत के राष्ट्रीय इतिहास में सांस्कृतिक पुनरुत्थान के एक नए युग की शुरुआत करने वाले महापुरुष का नाम नरेंद्र दत्त है। रामकृष्ण परमहंस के स्पर्श से नरेंद्र दत्त सोना बन गए। इस होनहार युवक का नाम स्वामी विवेकानंद रखा गया। रामकृष्ण परमहंस ने कहा था कि आपको अपना जीवन भारतीय संस्कृति के प्रसार के लिए समर्पित कर देना चाहिए। वेद, गीता, आरण्यक का सार लेकर आप को विश्व के कोने-कोने में ऐसा संदेश देना  हैं। आप को भारतीय संस्कृति का परचम ऊंचा रखना हैं।  स्वामी विवेकानंद ने अपने पूरे जीवन में स्वामी रामकृष्ण परमहंस की विरासत को आगे बढ़ाया।

इस होनहार युवक के जीवन में यह घटना कैसे घटी, इसके पीछे एक बड़ी ज्ञानवर्धक कहानी है। नरेंद्र दत्त ने प्रेसीडेंसी कॉलेज, कोलकाता में अध्ययन किया। उस समय  अंग्रेजी का एक प्रोफेसर किसी अंग्रेजी कॉलेज में व्याख्यान दे रहा होता है। उसने कहा की कवि, लेखक, चित्रकार ईश्वर के दूत होते हैं । कहा जाता है कि इनके द्वारा महान कार्य तभी किए जाते हैं जब इन पर ईश्वर की कृपा होती है। नरेंद्र दत्त ने हाथ उठाकर सवाल किया, क्या आप ने भगवान को देखा है और मुझे दिखाओगे? इस सवाल से प्रोफेसर तुरंत चौंक गए।  क्षण भर में वे संभल गये और बोले कि मैंने ईश्वर को तो नहीं देखा, परन्तु जिसने ईश्वर को  देखा है, उनसे आपको अवश्य मिलूँगा। नरेंद्र सिद्ध पुरुष परमहंस से मिले और नरेंद्र के माध्यम से पूरे भारत के जीवन में एक नया अध्याय शुरू हुआ। यहीं से भारत के राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का एक महत्वपूर्ण स्वर्णिम पृष्ठ लिखा जाने लगा।

स्वामी विवेकानंद ने शिकागो, यूएसए में सम्मेलन में 1 नहीं बल्कि 17 व्याख्यान दिए। लेकिन कई लोगों को  आखिरी पांच मिनट का भाषण  याद रहता है।  विवेकानंद के 17 भाषण भारत के भाग्य में मील के पत्थर हैं, वास्तव में इसे स्वतंत्रता का चार्टर कहा जाना चाहिए। ऐसा इसलिए है कि, स्वामी विवेकानंद ने अपनी वाकपटुता, उपलब्धियों और दूरदृष्टि से शिकागो सम्मेलन की शोभा बढ़ाई थी। वास्तव में वे भारत के प्रतिनिधि के रूप में शिकागो नहीं गए थे।  कोई और भारत का प्रतिनिधित्व कर रहा था। लेकिन जब विवेकानंद को पता चला कि इस तरह का एक धार्मिक सम्मेलन अमेरिका में आयोजित किया जा रहा है, तो उन्होंने अपने खर्च पर और अन्य राजाओं से सहायता प्राप्त करने के बाद नाव से अमेरिका की यात्रा करने का फैसला किया। करीब एक महीने बाद वे कुछ महीनों के लिए अमेरिका पहुंचे। इस दौरान विवेकानंद बोलते रहे और अमेरिका सुनता रहा।

विवेकानंद ने पूरे पश्चिमी गोलार्ध में विचारों का तूफान खड़ा कर दिया। उनकी आवाज, आकर्षक व्यक्तित्व और शानदार प्रतिभा के कारण वे सफलता के शिखर पर पहुंच गये। अमेरिका में उनके भाषणों को सुनने के बाद अखबारों ने उन पर खूब ध्यान दिया। उस समय के अखबार बुकानन्द टाइम्स ने लिखा था कि 'उस साधु के भाषण को सुनकर हमें पक्का विश्वास हो गया है कि भारतीय जंगली और गंवार बिल्कुल नहीं हैं। अंग्रेज़ लोग समझते हैं , वैसे वे जंगली बिल्कुल नहीं हैं।  इसके विपरीत, वे सभ्य और सुसंस्कृत हैं। उस साधु संन्यासी के भाषणों को सुनकर हमें विश्वास हो गया कि भारत स्वतंत्र हो जाएगा और संसद बनाकर स्वयं शासन करेगा। बुकानंद टाइम्स द्वारा की गई यह भविष्यवाणी सच हुई।

9 सितंबर, 1883 को जिस दिन विवेकानंद ने शिकागो में अपना व्याख्यान दिया, उसे भारतभाग्य विधाता दिवस कहा जाना चाहिए। क्योंकि इसके 50 साल बाद यानी 1947 में भारत आजाद हुआ और बुकानंद टाइम्स की भविष्यवाणी सच हुई। भारतीय रामकृष्ण मिशन द्वारा स्वामी विवेकानंद के व्याख्यानों और टिप्पणियों के 11 खंड विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित किए गए हैं। इसके अलावा, कोलंबो टू अल्मेडा नामक उनके व्याख्यानों को एक साथ संपादित किया गया है। बेशक ये सभी सामग्रियां अंग्रेजी भाषा में हैं।  विवेकानंद की प्रतिभा और गहन सोच, दूरदर्शिता का प्रतिबिंब हम इस लेखन में देख सकते हैं।

शिकागो में अपने अंतिम भाषण में विवेकानंद ने कहा था कि 21वीं सदी में भारत संस्कृति के आधार पर नहीं बल्कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के आधार पर दुनिया पर राज करेगा। आज भारत अंतरिक्ष में सेटेलाइट लॉन्च करने वाला दुनिया का सबसे बड़ा देश बन गया है। भारत ने परमाणु विज्ञान हासिल किया है।  परमाणु बम विकसित किया गया है और बैलिस्टिक मिसाइल विकसित की गई हैं। भारत ने इतनी तरक्की कर ली है कि कोई भी अंतरमहाद्वीपीय मिसाइलों में भी भारत का मुकाबला नहीं कर सकता। 21वीं सदी में भारत कैसा हो, इसका विवेकानंद का सपना अब पूरा हो रहा है। अटल बिहारी वाजपेयी ने भारत के परमाणु ब्रह्मचर्य को समाप्त किया।  नरेंद्र मोदी ने परमाणु प्रौद्योगिकी में एक विशाल छलांग लगाई और भारत के नैतिक गौरव को पुनः प्राप्त किया जो नेहरू के बाद खो गया था। विवेकानंद वेदांत के भाष्यकार थे।  उन्होंने अमेरिका के लोगों को दार्शनिक वेदांत और भारत के लोगों को व्यावहारिक वेदांत पढ़ाया। धर्म क्या है, मनुष्य में सुप्त गुणों को जाग्रत करने की शक्ति है। शिक्षा की यही अद्भुत परिभाषा विवेकानंद ने भी दी थी। शिक्षा का मतलब है, आत्मा की उज्ज्वल रोशनी उसे वापस लाकर  देना।  विवेकानंद ने अमेरिका में मर्यादापुरुषोत्तम प्रभु रामचंद्र, युगंधर शुद्धतावादी भगवान श्रीकृष्ण, शांति के अग्रदूत और दूत महावीर, दुनिया को अष्टदीप का मार्ग दिखाने वाले गौतम बुद्ध पर भाषण दिए। अमेरिका में उनके द्वारा दिए गए व्याख्यान में 'सच्चा बौद्ध धर्म क्या है' यह भाषण अत्यंत विचारोत्तेजक है।

विवेकानंद ने भारतीय संस्कृति के राजदूत के रूप में पूरे विश्व की यात्रा की और उनका संचार किया, जो उनकी दूरदर्शिता को दर्शाता है। भारतीय होने पर शर्म न करें, याद रखें कि भारतीय होने पर गर्व करने के लिए बहुत सी चीजें हैं। भारतीयों का पश्चिमी देशों के आगमन से मोहभंग हो गया था और लोग गुलामी की मानसिकता में थे। लोगों की आंखें खोलने और दुनिया को देखने, उनमें आत्मविश्वास जगाने की इच्छा के बावजूद विवेकानंद ने इस अभिव्यक्ति को उद्घाटित किया। 1857 का विद्रोह विद्रोह नहीं बल्कि स्वतंत्रता संग्राम था। इसलिए विवेकानंद में इतिहास को अलग तरह से विश्लेषित करने की शक्ति थी। जब उन्होंने भारत का दौरा किया तो वे पुणे में लोकमान्य तिलक से मिले। उन्होंने तिलक को निर्देशित किया था कि नेशनल असेंबली को कैसे आगे बढ़ना चाहिए। बाद में तिलक ने आसमान छूती घोषणा की कि 'स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे प्राप्त करके रहूंगा'। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उनके प्रेरणास्रोत विवेकानंद हैं।

अमेरिका में शिकागो और हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने विवेकानंद को प्रोफेसर के रूप में आमंत्रित किया।  लेकिन विवेकानंद ने आदरपूर्वक इसे अस्वीकार कर दिया और सूचित किया कि हमारे देश में एक बार संतों का वेश धारण करने के बाद, हम भौतिक संसार में वापस नहीं जा सकते। विवेकानंद के इस दृढ़ आत्मविश्वास और समर्पण को देखकर हम समझ सकते हैं कि किस प्रकार वे किसी प्रलोभन के आगे नहीं झुके। उन्होंने कहा था कि हमें पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता की जरूरत है, हमें सभी के लिए शिक्षा चाहिए, मंदिर में प्रवेश सभी के लिए उपलब्ध होना चाहिए। यहां तक ​​कि अगर एक वरंगना अपनी इच्छा व्यक्त करती है, तो उसे सीधे मंदिर में जाने और भगवान को देखने में सक्षम होना चाहिए। विवेकानंद ने श्रमिकों की पीड़ा को समझा, श्रमिकों की समस्याओं को समझा। वह कहते हैं कि लोग जिसे गरीब कहते हैं उसमें मुझे भगवान दिखाई देता है। जब तक वेदांत और विज्ञान झुग्गियों तक नहीं पहुंचेगा, तब तक उनकी गरीबी दूर नहीं होगी। इसका मतलब यह है कि स्वामी विवेकानंद ने निकट भविष्य में एक कृषि प्रधान आधुनिक समाज की कल्पना की थी। हम 1970 के बाद तेजी से इस समाज का निर्माण कर रहे हैं। यदि हम अपने देश में गरीबी दर को शून्य प्रतिशत तक कम करना चाहते हैं, तो हमें वेदांत और विज्ञान को  बस्तियों में लाना होगा।

स्वामी विवेकानंद न केवल भारतीय संस्कृति के भाष्यकार थे बल्कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के समर्थक भी थे। विवेकानंद को किसानों की रचनात्मकता, भूमि की सेवा करने की भावना पर बहुत भरोसा था। उनके सपनों के भारत में किसानों का शोषण न हो, किसान आत्महत्या न करें। उद्योग, व्यापार में हमें इतनी छलांग लगानी चाहिए कि मेक इन इंडिया के उत्पादों को विश्व बाजार में शीर्ष स्थान मिले। साथ ही अगर हमें अपना भाग्य बनाना है तो हमारे विश्वविद्यालय नालंदा, तक्षशिला जैसे होने चाहिए। हमारी शिक्षा एक दीप के खंभे की तरह होनी चाहिए। संक्षेप में, हमें विवेकानंद द्वारा परिकल्पित नवभारत में शिक्षा, उद्योग और कृषि तीनों क्षेत्रों में बहुत आगे जाना है। शहरी और ग्रामीण विकास के बीच की खाई को भरने के भी आवश्यकता है। सभी के लिए अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा देनी है। सड़क नेटवर्क के निर्माण के माध्यम से देश में आर्थिक जीवन शक्ति को एक दिशा दी जानी चाहिए। यदि हम इन सभी मामलों में सफल होते हैं और यदि हम सुनियोजित प्रयासों के आधार पर उच्चतम ऊंचाइयों तक पहुंचने में सक्षम होते हैं, तो यह कहा जा सकता है कि स्वामी विवेकानंद का जीवन कार्य वास्तव में सफल हुआ है।
- प्रा.डॉ. वि. ल. धारूरकर (अनुवाद- मच्छिंद्र ऐनापुरे)



सोमवार, 9 जनवरी 2023

तस्कर हाजी मस्तान का बॉलिवूड प्यार!

जिस दौर में हाजी मस्तान से जुड़ी सच्ची-झूठी घटनाओं की खूब चर्चा होती थी, उसके बारे में कई काल्पनिक कहानियां सुनाई जाती थीं। उन्हें बहुत नेक कहा जाता था। (जो पूरी तरह झूठ है) असल में मस्तान शांशौकी की जिंदगी जीना पसंद करता था। वह मालाबार हिल जैसे संभ्रांत इलाके में एक अलग बंगले में रहते थे। वह सफेद जूते, सफेद शर्ट और सफेद पैंट पहनता था। वह महंगी सिगरेट पीता था और सफेद रंग की मर्सिडीज चलाता था। उसकी आंखों के सामने लगातार उसकी अपनी मधुबाला (अभिनेत्री सोना उर्फ ​​वीना शर्मा) थीं। उसने उसे बॉलीवुड में एंट्री दिलाने की कोशिश की थी। उस दौरान हाजी मस्तान की मुंबई के कई बड़े लोगों से नियमित मुलाकात होती थी। उस वक्त ऐसी अफवाहें उड़ी थीं कि उसके बंगले में फर्श से लेकर छत तक हर जगह सोने के बिस्किट छिपे हुए हैं। यह सिर्फ एक काल्पनिक कहानी नहीं बल्कि एक सच्ची कहानी है।  1970 के दशक में फिल्म 'डाकू और वो' की शूटिंग महाराष्ट्र के एक गांव में शुरू हुई थी। अभिनेत्री साधना के पति आर के  नय्यर इस फिल्म के निर्देशक थे जबकि निर्माता एन  पी अली थे। फिल्म में बेहतरीन कास्ट थी।  संजीव कुमार, रणधीर कपूर और रंजीता की स्टार कास्ट के बावजूद, प्रशंसक उनकी जगह एक गैर-बॉलीवुड व्यक्ति को देखने के लिए सेट पर उमड़ पड़े। लोग उस शख्स को देख और छू रहे थे।  उन्हें लगा कि उनके 'पेरिस स्पर्श' से उनकी किस्मत भी चमक जाएगी। जिस शख्स के लिए लोग उमड़ पड़े वो कोई और नहीं बल्कि हाजी मस्तान मिर्जा था। उस जमाने का सोने का तस्कर!  वो शूटिंग मुहूर्त कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर मौजूद था।

हाजी मस्तान के आसपास जमा भीड़ को देख अभिनेता रणधीर कपूर बोला, 'कौन कहता है कि हम स्टार हैं।  उसकी (हाजी मस्तान) क्रेझ को देखते हुए हम सब जूनियर आर्टिस्ट जैसा महसूस करते हैं।'' हाजी मस्तान की गरीबी से अमीरी तक की यात्रा कई किंवदंतियों में डूबी हुई है। हाजी मस्तान की यात्रा गोदी में काम करने वाले एक शांत चेहरे वाले कुली से एक प्रसिद्ध सोने के तस्कर तक की है। यह हाजी मस्तान ही था जिसने पर्दे पर 'माफिया' के व्यक्तित्व को जन्म दिया और उसे बेहद लोकप्रिय बना दिया। फिल्म 'दीवार' में 'विजय' का किरदार हाजी मस्तान के व्यक्तित्व पर आधारित था। हाजी मस्तान की जीवनी ने एक शहर की प्रकृति, उसके लोगों की इच्छाओं, आकांक्षाओं, उसके अंधेरे पक्ष और पूरे भारत से प्रवासियों की आमद का समर्थन करने की क्षमता को समझने में मदद की।

हाजी मस्तान की वजह से ही मुंबई को 'सोने के अंडे देने वाली मुर्गी' के रूप में परिभाषित किया जाने लगा। बॉलीवुड फिल्मों ने लोगों को प्रभावित करना शुरू कर दिया कि मायानगरी मुंबई में उनकी किस्मत बदल सकती है। मुंबई के बारे में एक धारणा थी कि अगर आप सही कदम उठाते हैं, या अगर आप जानते हैं कि सिस्टम को कैसे नचाना है, तो आप इस शहर में अपना भाग्य बना सकते हैं। इस लिहाज से मस्तान पुराने जमाने का बिग बुल 'हर्षद मेहता' था। उसने सिस्टम में कमियां ढूंढी और उन पर काम किया। उसकी मौत के बीस साल बाद, भारत के सबसे प्रसिद्ध सोने के तस्कर को एक टेलीविजन श्रृंखला में चित्रित किया जा रहा है  और साथ ही, इस साल एक डॉक्यूमेंट्री भी आ रही है। उसके बंगले में कई दरवाजे हैं और वो हर बार अलग दरवाजे से अलग इंम्पोर्टेटेड कार में बाहर निकलता है। कहा जाता है कि वह गरीबों को सोने के बिस्किट बांटता था।  लेकिन इनमें से कुछ भी सच नहीं था। शायद, सोने के बिस्किट की छवि लोगों के बीच एक विशेष अपील रखती थी, क्योंकि सोना जमा करने की वस्तु थी, जिसे धन के रूप में संरक्षित किया जाता था, और इसे धन का प्रतीक माना जाता था।  इसलिए मस्तान की छवि बनी होगी। विभाजन के बाद के भारत में, मुसलमानों ने हाजी मस्तान को विभाजित भारत में अपने सपनों को पूरा करने और अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने के उदाहरण के रूप में देखा। मस्तान की कामयाबी को देखते हुए उन्हें लगा कि उनका भारत में रहने का फैसला सही था। एक गरीब साइकिल मैकेनिक और एक हमाल 'गोल्ड किंग' बन सकते है, अभिजात वर्ग के बीच उभर सकते है, तो किसी भी मुस्लिम युवा के लिए कुछ भी असंभव नहीं था। हाजी मस्तान के साथ, उनकी उम्मीदें जगी थीं और अगर आपमें हिम्मत है और उस ताकत से सिस्टम को रोल कर सकते हैं, तो दुनिया आपके हाथ में है।

हाजी मस्तान मिर्जा भले ही एक डॉन था, लेकिन वह खुद कभी लोगों को मारने के जाल में नहीं फंसा। वह मुंबई में प्रमुख स्थानों की संपत्तियों की बिक्री पर आपत्ति जताने वाले किसी भी व्यक्ति को बेदखल करने के लिए , उसे बाहर निकालने के लिए अपने पंटर्स करीम लाला और दाऊद इब्राहिम का इस्तेमाल करता था। यही तरीका बाद में दूसरे माफिया डॉन और राजनीतिक पार्टियों ने भी इस्तेमाल किया। हालाँकि, सार्वजनिक रूप से, हाजी मस्तान ने अपनी छवि बनाए रखी और अन्य गैंगस्टरों के झगड़ों में मध्यस्थ की भूमिका निभाई। दिलीप कुमार और सायरा बानो बॉलीवुड के दिग्गज अभिनेता हाजी मस्तान को अक्सर पार्टियों के लिए अपने घर बुलाते थे। इससे हाजी मस्तान की शख्सियत और भी निखर गई। ऐसा कहा जाता है कि एक बार करीम लाला और हाजी मस्तान दिलीप कुमार के चरणों में बैठे और उन्हें खुश करने के लिए उनकी फिल्मों के संवाद सुनाने लगे।

शायद इसी दौरान बॉलीवुड और माफिया एक साथ हो गए होंगे। जब मस्तान ने फिल्मों का निर्माण शुरू किया, तो उन्होंने माफिया-बॉलीवुड गठजोड़ की नींव रखी। बेशक उस वक्त किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि माफिया की थोड़ी सी मदद आखिरकार हिंदी सिनेमा पर अपनी आर्थिक पकड़ मजबूत कर लेगी। अगर हाजी मस्तान ने 1960-70 के दशक में बॉलीवुड में अपने पैर नहीं जमाए होते तो माफिया बॉलीवुड से कुछ दूरी बनाकर ही रहते। उस समय वास्तविक समस्या भारतीयों में तस्करी को लेकर नैतिक भ्रम था। इसलिए कई लोगों ने तस्करी के तरीके को गलत नहीं माना। स्वतंत्रता के बाद के भारत का नैतिक आधार अभी तैयार नहीं हुआ था।  भारतीयों का निरन्तर अपमान करने वाले अंग्रेजों ने लोकनीति को रसातल में पहुँचा दिया था। आयात शुल्क अंग्रेजों द्वारा लगाया गया और लागू किया गया।  लेकिन चूंकि भारतीय अंग्रेजों से नफरत करते थे, इसलिए उन्होंने हमेशा इस कर का विरोध किया।  इसलिए आजादी के बाद भी लोगों का स्वाभाविक रूप से इस कर का विरोध जारी रहा।

हालाँकि कानून के तहत तस्करी एक अपराध था, लेकिन यह बिना टिकट यात्रा करने जैसा था। भारतीय जनता के मन में एक विचार आया था कि जब तक कोई पकड़ा नहीं जाता, तब तक बिना टिकट यात्रा करने का क्या हर्ज है? अंतत: आपातकाल सरकार के लिए आश्चर्यजनक रूप से गेम चेंजर साबित हुआ। नैतिकता का आवरण ओढ़े तस्करों का परदा आपातकाल ने फाड़ दिया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक झटके में सभी स्तरों पर गैंगस्टरों और अपराधियों को निशाना बनाया। तस्करों, वित्तीय अपराधियों, गुण्डों, कालाबाजारियों, छोटे अपराधियों, जमाखोरों को दुष्ट समझकर पकड़ कर जेल में डाल दिया गया। हाजी मस्तान, वरदराजन मुदलियार, करीम लाला, दाऊद इब्राहिम, रमा नाइक, यूसुफ पटेल, जो कानून से छिपे हुए थे, उन पर 'मीसा' और 'कोफेपोसा' अधिनियमों के तहत मामला दर्ज किया गया था। इस कार्रवाई से दिवास्वप्न देख रहे भारतीय लोग बेरहमी से जागे। इस कार्रवाई से एक संदेश तो साफ हुआ- तस्करी एक बुरा अपराध है। यदि आप एक तस्कर हैं, तो आप बुरे हैं।  राष्ट्रहित और विकास कार्यों में लगने वाले टैक्स को डायवर्ट कर आप देश को धोखा दे रहे हैं। आप कानून का पालन करने वाले नहीं हैं।  अगर आपके नाम पर बकाया है, आप गैंगस्टर हैं, तस्कर हैं तो आपको जेल की हवा खानी पड़ेगी।

हाजी मस्तान और अन्य गैंगस्टरों के लिए वास्तविकता को स्वीकार करने का समय था। जेल के दिन उनके लिए कष्टदायक साबित हुए। उसने लाखों रुपये कमाए थे, लेकिन वह तस्करी के अपराध में शामिल होकर अपने अस्तित्व को खतरे में नहीं डालना चाहता था। अब वे अपने भाग्य को जोखिम में नहीं डालना चाहते थे। उन्होंने एकजुट होकर समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के सामने आत्मसमर्पण करने का फैसला किया, जिन्होंने श्रीमती इंदिरा गांधी के आपातकाल को चुनौती दी थी। आखिरकार आपातकाल हटने के बाद जयप्रकाश नारायण ने उन्हें कुछ शर्तों पर रिहा कर दिया। हाजी मस्तान समेत तमाम तस्करों ने दिल्ली में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में जयप्रकाश नारायण के सामने सरेंडर कर दिया। हाजी मस्तान पर मरते दम तक हर कोई मोहित रहा। बेशक, सदी के अंत तक यह आकर्षण कम हो गया।  क्योंकि पुरानी पीढ़ी पीछे छूट गई और नई पीढ़ी आगे आ गई। इस नए दौर में यानी 1992-93 की आर्थिक उदारीकरण नीति के बाद बेशकीमती सोने से ज्यादा अहमियत उपभोक्तावाद को मिली।

गुरुवार, 5 जनवरी 2023

सरकार के सामने रोजगार सृजन की चुनौती

पिछले दिसंबर में देश में बेरोजगारी दर 8.30 फीसदी दर्ज की गई थी। पिछले 16 महीनों में यह उच्चतम बेरोजगारी दर चिंता का कारण है, जबकि अर्थव्यवस्था के कोरोना वायरस के प्रभाव से उबरने की उम्मीद जताई जा रही थी। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, नवंबर में देश की बेरोजगारी दर 8 फीसदी रही थी। दिसंबर में यह बढ़कर 8.30 फीसदी हो गई। अक्टूबर में यह दर 7.92 फीसदी और सितंबर में 6.43 फीसदी थी। यानी पिछले कुछ महीनों से बेरोजगारी का ग्राफ बढ़ रहा है। हालांकि, नवंबर में राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, अप्रैल-जून तिमाही में दर्ज की गई 7.6 प्रतिशत बेरोजगारी दर जुलाई-सितंबर तिमाही में गिरकर 7.2 प्रतिशत हो गई थी। बेशक अक्टूबर से दिसंबर तिमाही के सांख्यिकी कार्यालय के आंकड़े उपलब्ध होने के बाद इसमें बढ़ोतरी के संकेत मिल रहे हैं। पांच साल पहले बेरोजगारी दर 5 फीसदी थी।  अब यह करीब 8 फीसदी है। 

इस दिसंबर 2022 में, हरियाणा में सबसे अधिक बेरोजगारी दर 37.4 प्रतिशत दर्ज की गई थी। इसके बाद राजस्थान 28.5 फीसदी, दिल्ली 20.8 फीसदी, बिहार 19.1 फीसदी, झारखंड 18 फीसदी। यह सबसे ज्यादा बेरोजगारी वाले पांच राज्य हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुसार, दिसंबर में ओडिशा में सबसे कम बेरोजगारी दर 0.9 प्रतिशत दर्ज की गई। इसके बाद गुजरात में 2.3 फीसदी, कर्नाटक में 2.5 फीसदी, मेघालय में 2.7 फीसदी और महाराष्ट्र में 3.1 फीसदी बेरोजगारी दर कम है। पूरे साल महाराष्ट्र की बेरोजगारी दर 2 से 4.5 फीसदी के बीच दर्ज की गई है। 

दिसंबर में शहरी बेरोजगारी दर दहाई अंक (10.09 फीसदी) पर पहुंच गई। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि इस महीने ग्रामीण क्षेत्रों में यही दर 7.55 प्रतिशत थी। नवंबर में, शहरी बेरोजगारी दर 8.96 प्रतिशत थी, जबकि ग्रामीण बेरोजगारी दर 7.44 प्रतिशत थी। यानी, ग्रामीण बेरोजगारी में आंशिक कमी दर्ज की गई, जबकि शहरी बेरोजगारी में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई। यह सिलसिला पिछले तीन महीने से जारी है। शहरी बेरोजगारी दर्शाती है कि अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों में गिरावट आई है। यह इस बात का संकेत है कि महंगाई के कारण निर्माण, इंजीनियरिंग, सेवा क्षेत्र में लेन-देन ठप हो गया है। उपभोक्ताओं की मांग में गिरावट आई है, जो दर्शाता है कि अर्थव्यवस्था अभी भी पटरी पर नहीं है। कोरोना काल में बड़ी संख्या में नौकरी गंवाने वाले लोगों को कृषि क्षेत्र ने समायोजित किया था। अब जब आर्थिक हालात सामान्य हो रहे हैं तो ये जमातें फिर से शहरों में दाखिल हो गई हैं। लेकिन जानकारों का कहना है कि बड़ी संख्या में नागरिक रोजगार का इंतजार कर रहे हैं। 

ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि महंगाई की वजह से मांग में गिरावट 2023 में भी महसूस की जाएगी। कुछ विशेषज्ञों ने इन वर्षों में देश में रोजगार में करीब 20 फीसदी गिरावट की आशंका जताई है। सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र प्रभावित होने की संभावना है। कोरोना वायरस के असर से 2022 में टूरिज्म, हॉस्पिटैलिटी, फाइनेंशियल सर्विसेज आदि सेक्टर रिकवरी कर रहे थे। अगर बड़े पैमाने पर कोरोना का प्रकोप नहीं होता है तो इस साल भी इन इलाकों में राहत की उम्मीद है। हालाँकि, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने चेतावनी दी है कि 2023 में दुनिया का एक तिहाई हिस्सा मंदी की चपेट में आ जाएगा। इसका असर रोजगार सृजन पर पड़ेगा। हालांकि भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, रोजगार सृजन तुलनीय नहीं रहा है। जुलाई-सितंबर तिमाही में देश का चालू खाता घाटा रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गया। 2022 में, डॉलर के मुकाबले रुपये में 10.14 प्रतिशत (74.33 से 82.72 तक) की गिरावट आई। इसके साथ ही महंगाई पर नियंत्रण और रोजगार सृजन केंद्र की मोदी सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियां हैं। कोरोना काल में बेरोजगारी में बड़ी बढ़ोतरी हुई थी। 2020 में बेरोजगारी दर आठ फीसदी थी।  अगले साल यानी 2021 में यह घटकर 5.98 फीसदी रह गया। इसलिए, माना जा रहा था कि अर्थव्यवस्था ठीक हो रही है।  लेकिन 2022 में फिर से बेरोजगारी बढ़ गई है। इसलिए विकास दर में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज कर रोजगार सृजन की चुनौती सरकार के सामने है। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली। महाराष्ट्र।

 

मंगलवार, 3 जनवरी 2023

नव शिक्षा उत्सव की राह पर

विज्ञान और प्रौद्योगिकी में तेजी से हो रहे बदलावों को देखते हुए उन्नत, प्रशिक्षित जनशक्ति की भारी मांग होने जा रही है। इसे ध्यान में रखते हुए अब कदम उठाने चाहिए।  नई शिक्षा नीति में उस दिशा में कई अच्छे सुझाव हैं, लेकिन उनके क्रियान्वयन पर ध्यान देना और बाधाओं को दूर करना चुनौती बना हुआ है। आज दुनिया में टेक्नोलॉजी तेजी से बदल रही है, इसमें महारत हासिल करने के लिए विभिन्न स्किल्स वाले मैनपावर की जरूरत है। मौजूदा हालात में ऐसा होता नहीं दिख रहा है। इससे बेरोजगारी बढ़ती है।  शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा और रोजगार की स्थिति बदतर है। इसके बाद से अधिकांश काम मशीनीकृत होने जा रहा है। इसके लिए कौशल विकास की आवश्यकता है।  नई शिक्षा नीति का अधिकतम उपयोग कैसे किया जा सकता है, यह उस नीति के क्रियान्वयन पर निर्भर करेगा। इसलिए अब असली जरूरत नई नीति के क्रियान्वयन पर ध्यान देने की है। उसमें आने वाली बाधाओं को दूर करने की आवश्यकता है।

वर्तमान में शिक्षण संस्थानों को कई बदलावों का सामना करना पड़ रहा है। संसाधनों की उपलब्धता, सक्षम शिक्षकों और शिक्षा पद्धति में आमूल-चूल परिवर्तन करने होंगे। इसको लेकर राज्य और केंद्र सरकार को कमर कसनी होगी। यह 2025 तक होने की उम्मीद है। गरीब और जरूरतमंद छात्रों के लिए छात्रवृत्ति जारी रहेगी। यह चुनौती जितनी आसान लगती है उतनी आसान नहीं है लेकिन बेहतर होगा कि हम इस नई रणनीति को अपनाकर प्रभावी ढंग से लागू कर सकें। 

नई नीति के मुताबिक मौजूदा 10+2 की जगह 5+3+3+4 का ढांचा होगा। स्कूली पाठ्यक्रम के अलावा, नीति छात्रों के व्यक्तित्व और निहित गुणों के विकास में संतुलन बनाए रखने की उम्मीद करती है। नीति में कहा गया है कि छात्रों को भाषण, संगीत, साहित्य, कला, टीम वर्क, नेतृत्व, अनुसंधान, प्रयोग, उद्यमशीलता, समाज सेवा, नैतिकता, साहसिक कार्य, देशभक्ति, परोपकार, मानवता, खेल, चरित्र जैसे विभिन्न पहलुओं में पेश और प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। इसके लिए आवश्यक सभी सामग्री, पुस्तकालय, शोध केंद्र, प्रयोगशालाएं, पुस्तकें, कंप्यूटर, खेल के मैदान, शैक्षिक सामग्री आदि होना भी जरूरी है। इसके साथ ही छात्र को निर्धारित कोर्स भी पूरे करने होंगे। नई शिक्षा नीति में सिर्फ परीक्षा में अच्छे अंक लाने से ज्यादा समग्र विकास पर ध्यान देने वाला है। सूचना संग्रह और विश्लेषण, सूचना प्रौद्योगिकी, डिजिटलीकरण, सोशल मीडिया, सामाजिक परियोजनाओं के प्रबंधन, मानवतावाद, महिला सशक्तिकरण, प्रदूषण नियंत्रण, पर्यावरण संरक्षण, नर्सिंग और पैरा- चिकित्सा सेवाएं जैसे विभिन्न क्षेत्रों में चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रशिक्षित युवाओं की बहुत आवश्यकता है। ऐसे कई क्षेत्र आज न केवल भारत में बल्कि दुनिया के कई देशों में चुनौती दे रहे हैं। जहां आज दुनिया भारत के युवाओं की तरफ बड़ी उम्मीद से देख रही है। इसलिए हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि इस क्षेत्र में प्रशिक्षित जनशक्ति कैसे तैयार की जाए। बदलते समय को ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम में बदलाव की जरूरत है। इसे लचीला रखना चाहिए। विशेष शिक्षा क्षेत्र (सेज) की अवधारणा भी अनूठी है। इसे भी अच्छी तरह लागू किया जाना चाहीए। इसमें जोर दिया जाएगा कि शिक्षा समावेशी होनी चाहिए ताकि देश में कोई भी व्यक्ति किसी भी कारण से निरक्षर न रहे। 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' उनमें से एक है।

 इस नीति की एक अन्य विशेषता प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा की एक नई अवधारणा है। प्रारंभिक बचपन की देखभाल और शिक्षा में चंचल, खोज-उन्मुख, गतिविधि-आधारित शिक्षा शामिल है। उदाहरण के लिए, बहुविकल्पी शिक्षण होगा जैसे वर्णमाला, भाषा, संख्या, गिनती, रंग, आकार, पहेलियाँ, समस्या समाधान, नाटक, पेंटिंग आदि। राष्ट्रीय शिक्षा, अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद ने 0-3 वर्ष और 3-8 वर्ष के आयु वर्ग के बच्चों के लिए इस संबंध में एक पाठ्यक्रम विकसित किया है। इसके कारण, यह माता-पिता और शिक्षकों दोनों के लिए एक मार्गदर्शक होगा।  इसके लिए आवश्यक व्यवस्था सरकारी के साथ-साथ निजी विद्यालयों से भी स्थापित की जा रही है। इस संबंध में शासन स्तर पर भी काम होने की उम्मीद है। यह भी निर्देशित किया जाता है कि प्रत्येक कक्षा में 30 से अधिक छात्र नहीं होने चाहिए;  लेकिन इनका पालन कहां तक ​​होगा इस पर संशय बना हुआ है। शिक्षकों की मानसिकता को नई नीति के अनुरूप ढालना भी एक बड़ी चुनौती है। हमें यह देखना होगा कि हम इससे कैसे निपटेंगे। सफलता इस पर निर्भर करेगी। स्कूल छोड़ने की प्रवृत्ति बढ़ रही है और इस संबंध में निवारक उपाय किए जाने चाहिए।  प्रोजेक्ट वाइज अलग-अलग ग्रुप बनाए जाएंगे। प्रोजेक्ट वाइज अलग-अलग ग्रुप बनाए जाएंगे।  कला, नाटक, संगीत, भाषा, विज्ञान, खेल आदि जहां प्रत्येक छात्र को प्रदर्शन करने का मौका मिलता है और शिक्षा अधिक आसान, सुंदर और आनंददायक हो जाती है। इस सिस्टम से छात्रों पर परीक्षा को लेकर होने वाला तनाव कम होगा। इस नीति में शिक्षकों को काफी महत्व दिया गया है। उनके प्रशिक्षण के लिए अलग से व्यवस्था की गई है। अलग-अलग स्कूलों में शिक्षकों का आदान-प्रदान भी किया जा सकता है। नीति में यह भी कहा गया है कि शिक्षकों के वेतनमान और अन्य बुनियादी सेवा रियायतों में उचित संशोधन होगा। इसमें सुधार के लिए तत्काल कदम उठाए जाएं।शिक्षकों को अप-टू-डेट रहने के लिए प्रोत्साहित करने का संकल्प लिया गया है। इसका ब्योरा तय कर तैयारी शुरू कर देनी चाहिए। विभिन्न प्रकार की शिक्षा प्रदान करने वाले महाविद्यालयों को भी विश्वविद्यालयों में एकीकृत किया जाना चाहिए। निकट भविष्य में कई स्वायत्त विश्वविद्यालय उभरेंगे। शिक्षकों के लिए राष्ट्रीय पेशेवर मानक भी विकसित किए जा रहे हैं।  सभी शिक्षकों के  बी.एड.  करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। यह सब करते हुए शिक्षा का बाजारीकरण न हो जाए इसका ध्यान रखा जाना चाहिए।  गुणवत्ता नियंत्रण एक प्रमुख मुद्दा होगा। 

धन जुटाने के तरीके नई नीति को लागू करने के लिए धन जुटाना होगा। इस संबंध में कंपनियां 'कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी' के माध्यम से योगदान दे सकती हैं। भारत में जल्द ही 'सोशल स्टॉक एक्सचेंज' शुरू होने जा रहा है।  इससे आवश्यक धन जुटाने में आसानी होगी। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि अभी से तैयारी शुरू कर दी जाए। यह सोचने में कोई हर्ज नहीं है कि स्कूल और कॉलेजों के कई पूर्व छात्र भी इस मामले में योगदान दे सकते हैं। शिक्षा जैसे अच्छे कारण से धन की कभी कमी नहीं होगी। दुनिया भर में भारतीय शिक्षण संस्थानों के नेटवर्क को फैलाने के लिए सरकार कुछ वर्षों के बाद कुछ स्वायत्त विश्वविद्यालयों को प्रोत्साहित और मदद कर सकती है। भारतीय योग, आयुर्वेद, संगीत, रंगमंच, फिल्म, नृत्य, साहित्य, कला, धर्म, पर्यटन, ग्रामीण जीवन, परिवार व्यवस्था और संस्कृति दुनिया के कई युवाओं को आकर्षित कर रहे हैं। भारत की अर्थव्यवस्था भी मजबूत है और बढ़ रही है।  यह युवाओं का देश है। आज भारत के नेतृत्व को वैश्विक स्तर पर भी स्वीकार किया जा रहा है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए भारत की राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक, औद्योगिक और सामाजिक छवि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पटल पर उज्ज्वल है। अवसर लाजिमी है। सवाल उनका फायदा उठाने के लिए तैयार रहने का है।  केवल एक अच्छी शिक्षा प्रणाली ही ऐसा कर सकती है। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली।महाराष्ट्र।

सोमवार, 2 जनवरी 2023

राममूर्ति बीएसई के प्रबंध निदेशक का पद संभालेंगे

शेयर बाजार का विषय अब एक निश्चित दायरे तक सीमित नहीं रह गया है। आम लोगों में भी वहां होने वाली घटनाओं को लेकर उत्सुकता बढ़ गई है। अधिक से अधिक लोग इसे केवल एक जिज्ञासा के रूप में नहीं बल्कि एक निवेश विकल्प के रूप में इसकी ओर खिंचते जा रहे हैं। यह नहीं माना जा सकता है कि उनकी जिज्ञासा केवल शेयर की कीमतों में उतार-चढ़ाव और उनके कारणों से संबंधित है। हममें से ज्यादातर लोग जानते हैं कि निवेश और रिटर्न का यह पूरा 'खेल' चल रहा है, वो कभी सफल होने वाला है या कभी झटका देने वाला है। लेकिन एक निवेशक के रूप में हर किसी के लिए रुचि महसूस करना और इस बारे में चिंता करना स्वाभाविक है कि क्या यह कुछ बुनियादी नियमों और अनुशासित प्रक्रियाओं के साथ चल रहा है। इसलिए इन सबका प्रबंधन करने वाले अधिकारियों का विशेष महत्व है। तथ्य यह है कि सुंदररमन राममूर्ति मुंबई स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) का अधिग्रहण करने जा रहे हैं, जिसे एशिया में पहला शेयर बाजार और देश के सबसे बड़े शेयर बाजार के रूप में जाना जाता है। 62 वर्षीय राममूर्ति 4 जनवरी से बीएसई के प्रबंध निदेशक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी का पद संभालेंगे। राममूर्ति का अनुभव विविध और व्यापक है।

मुख्य रूप से उन्हें विदेशी शेयर बाजारों के कामकाज की गहरी समझ है। उन्होंने बैंक ऑफ अमेरिका की भारतीय शाखा के प्रबंध निदेशक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में कार्य किया है। उनके पास वैश्विक प्रशासन, भारत में बैंकिंग इकाई के नियंत्रण और प्रतिभूति (सिक्युरिटीज) विभाग के लिए जिम्मेदारी थी। कड़े अनुशासन के प्रशासक के रूप में उनकी प्रतिष्ठा है।  वे सबसे कठिन कार्य भी सहज रूप से करते हैं। वे अपने फैसले पर अडिग रहतें हैं। इसलिए इस संबंध में कोई भी उन पर अनुचित प्रभाव नहीं डाल सकता है। वे मूल्यों, सिद्धांतों, नियमों से समझौता करने को तैयार नहीं रहतें हैं। इसलिए उनका अक्सर अपने सहयोगियों से झगडा होता रहता था,'' बैंक ऑफ अमेरिका में उनके सहयोगी कहते हैं। उन्हें टफ टास्क मास्टर के तौर पर जाना जाता है। उनके सहयोगियों का भी कहना है कि कॉरपोरेट गवर्नेंस में उनकी विशेषज्ञता काबिले तारीफ है। इस खंड की विभिन्न समस्याओं को हल करने और व्यापारियों को आकर्षित करने की आवश्यकता है। राममूर्ति को इस उद्देश्य के लिए नियुक्त किया गया है और माना जाता है कि इस क्षेत्र में उनका अनुभव और विशेषज्ञता बीएसई को अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में सक्षम बनाएगी। विज्ञान स्नातक और चार्टर्ड एकाउंटेंट राममूर्ति ने अपने करियर की शुरुआत आईडीबीआई बैंक से की थी। इसके बाद उन्होंने एनएसई ज्वाइन किया।  'एनएसई' की स्थापना के बाद से यानी 1995 से 2014 तक वे विभिन्न पदों पर कार्यरत रहे।

राममूर्ति तकनीकी परिवर्तन, वित्तीय लेनदेन के समय पर निपटान और एक विशिष्ट अवधि के भीतर सौदों को पूरा करना इन सभी उपक्रमों में बहुत शामिल थे। उन्होंने इक्विटी डेरिवेटिव्स सेगमेंट में भी महत्वपूर्ण छाप छोड़ी। आज, इक्विटी डेरिवेटिव्स में एनएसई की लगभग 90 प्रतिशत हिस्सेदारी है।  बैंक निफ्टी की सफलता में भी उनकी अहम भूमिका रही है। राममूर्ति ने राष्ट्रीय प्रतिभूति समाशोधन निगम ( नॅशनल सिक्युरिटीज क्लिअरिंग कॉर्पोरेशन), एनएसई में एक्सचेंज के समाशोधन गृह ( एक्सचेंजचे क्लिअरिंग हाउस)  का भी सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। बीएसई में यह पद पिछली जुलाई से खाली था। इससे पहले इस पद की जिम्मेदारी आशीष चौहान के पास थी। अब चौहान के पास 'एनएसई' की जिम्मेदारी है, जबकि 'एनएसई में लंबे समय तक काम कर चुके' राममूर्ति के पास 'बीएसई' की जिम्मेदारी है, यह नियुक्ति संयोग से हुई है। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली। महाराष्ट्र।

अपार प्रतिभा के संगीतकार: सी रामचंद्र

सी रामचंद्र यानी रामचंद्र चितलकर। उनके पिता नागपुर रेलवे में स्टेशन मास्टर थे। छोटे राम का पढ़ाई के बजाय संगीत की ओर झुकाव देखकर उन्होंने उन्हें कुछ वर्षों के लिए शास्त्रीय संगीत सीखने के लिए वहां के सप्रे गुरुजी के पास भेज दिया। वहाँ से वे कुछ समय के लिए पुणे के संगीत विद्यालय गए और संगीत की शिक्षा ली। उनका लक्ष्य इंस्पेक्टर या सिनेनायक बनना था। खूबसूरत चेहरा, 6 फीट तक की हाइट और सुरीली आवाज के साथ उन्हें लगता था कि उन्हें हीरो का रोल आसानी से मिल जाएगा। क्योंकि उस समय अभिनेताओं को अपने गाने खुद गाने पड़ते थे! ( तब हमारे पास प्लेबैक आया नहीं था, इसलिए अशोक कुमार, मोतीलाल, याकूब आदि को अपने गाने खुद गाने पड़ते थे।) फिर वे कोल्हापुर आ गए और 15 साल तक ललित पिक्चर्स, शालिनी सिनेटोन में एक अतिरिक्त कलाकार के रूप में काम किया। उन्होंने भालजी पेंढारकर के अधीन काम किया। (हिंदी में प्रसिद्ध होने के बाद, उन्होंने भालजी की 'शिवाजी' के लिए भी संगीत तैयार किया।) आखिर बी.  वी  राव की फिल्म 'नागानंद' में लीड रोल मिला, लेकिन फिल्म फ्लॉप रही। 

संघर्ष के दौर में फंसे रामचंद्र इस सोच के साथ मुंबई आए कि मुंबई में किस्मत उनका साथ देगी या नहीं और सोहराव मोदी की मिनर्वा मूवीटोन में एक्स्ट्रा की नौकरी मिलने के बाद उन्हें फिल्म "सैदे हवस" में एक छोटा सा रोल मिला। मोदी के संगीतकार तब मीरासब थे।  अपने खाली समय में, राम चितलकर मिरसब के बेड़े के वाद्ययंत्र बजाना जारी रखते,यह देखकर मोदी ने एक दिन कहा, "तुम अभिनय में अच्छे नहीं हो, संगीत के प्रति तुम्हारा जुनून है, तुम्हें उस पर ध्यान देना चाहिए!" फिर उन्होंने चितलकर को मीरासब का सहायक नियुक्त किया। (कुछ साल बाद, जब चितलकर एक संगीतकार के रूप में हिट हो गए, तो उन्हें उसी मोदी के 'नौशेखने आदिल' के लिए परवीर शम्सी द्वारा लिखे गए गीतों के लिए संगीत तैयार करने के लिए बुलाया गया।) चितलकर अपने हाथों नोटेशन करने में निपुण हो गए। मुंबई में, मास्टर भगवान पलव के साथ उनकी दोस्ती हो गई। भगवान तब बाबूराव पेलवान (बाबुराव ने विश्राम बेडेकर की 'वासुदेव-बलवंत' में क्रांतिकारी नायक के मित्र की भूमिका निभाई और भगवान की 'अलबेला!' में खलनायक की भूमिका निभाई) और वसंतराव पेलवान ('वीर घटोत्कच' में उनकी मुख्य भूमिका  प्रसिद्ध हुई थी )। इसके साथ स्टंट फिल्में बनया करते थे। उस समय 'अन्नासाहेब' के नाम से चितलकर संगीत देते थे। उस समय, भगवान को दो तमिल फिल्में निर्देशित करने के लिए मिलीं। 'जयकोडी' (1939 का जयपताका), वनमोहिनी (1941 की)। दोनों के संगीतकार के रूप में चितलकर को लेकर भगवान ने एक मित्र के रूप में अपना कर्तव्य पूरा किया। 1942 को हरीशचंद्र कदम की हिंदी फिल्म 'सुखी जीवन' मिली। यह चितलकर की हिंदी में पहली फिल्म मानी जाती है। उसके बाद फिल्म निर्माता और निर्देशक जयंत देसाई ने 600 रुपये प्रति माह वेतन पर  अन्ना को उनकी कंपनी में  रखा था। (उस समय संगीतकारों या सिनेमैटोग्राफरों को मासिक वेतन तय करके उनकी कंपनी में ले लिया गया था!) और उन्होंने ही राम का नाम 'सी  रामचंद्र' रखा। भले ही उनकी कई फिल्में उनके संगीत से हिट हुईं और उन्होंने हजारों रुपये कमाए, लेकिन उन्होंने कोई वेतन नहीं बढ़ाया। (अन्ना 1 हजार रुपये महीना मांग रहे थे।) फिर अन्ना ने इस्तीफा दे दिया। लेकिन देसाई ने कहा, 'अपना काम मत छोड़ो।  मैं अगली फिल्म में सहगल को कास्ट करूंगा।  आप उसके गाने बजाने के लिए काफी भाग्यशाली होने जा रहे हैं!' इस पर अन्ना भड़क गए, 'भले ही वह सहगल हैं, लेकिन मैं भी सी.  रामचंद्र हूं।'

वहां से निकले अन्ना, कवि प्रदीप, जो फिल्मिस्तान में काम कर रहे थे (उन्होंने अन्ना के आग्रह पर 1963 साल में 'मेरे वतन के लोगो...' गीत लिखा और लता ने गाकर अजरामर किया। ) ने 1,000 रुपये महीने का भुगतान करने की पेशकश करके अन्ना को वहां काम पर रखा गया। अन्ना द्वारा  संगीत दी गई फिल्मिस्तान की "सफर" (1947) आई और अच्छी चली। अमीरबाई कर्नाटक द्वारा गाया गया आकर्षक गीत "मारी कटारी मर जाना" रेडियो सीलोन पर हिट हो गया था। रफी ने इसमें 'कह के भी ना आए तुम अब चुपके लगे तारे' और  'अब वो हमारे हो गए, इकरार करे या ना करे?  इस तरह के मधुर गीत देने से उनके नवोदित संगीत करियर को बढ़ावा मिला। अन्ना ने पिछली पीढ़ी के दिग्गज नायकों के लिए पार्श्वगायन भी किया था। 1.  अशोक कुमार 'संग्राम, शतरंज' । अन्ना ने मीनाकुमारी अभिनीत फिल्म में अशोक कुमार के लिए एक ग़ज़ल भी गाई। 2. राजकपूर, 'सरगम, शारदा', 3. देवआनंद बारीश, अमरदीप, सरहद्द, 4. दिलीपकुमार 'नदिया के पार, इन्सानियत, समाधी, पैगाम, आझाद। अन्ना के संगीत में लता के उभरने से पहले, ललिता देउलकर (बाद में श्रीमती सुधीर फड़के) ,शमशाद बेगम, सुरिंदर कौर, बिनापानी मुखर्जी, मिनाकपुर, सरस्वती राणे, जोहराबाई अंबालावाली, अमीरबाई कर्नाटक, मोहनतारा अजिंक्य, गीता दत्त और 'दुनिया' में सुरैया' के साथ अपने संगीत को लोकप्रिय बनाया। अन्ना के संगीत में लता की आवाज का उद्भव शहनाई (1947) के 'जवानी की रेल चली जई रे' में शमशाद बेगम और अन्ना के साथ कोरस में एक आवाज के रूप में हुआ। 1948 में 'नदिया के पार' में दिलीपकुमार, कामिनी कौशल की फिल्म 'ओ गोरी, ओ गोरी कह चली रे' को अन्ना ने गाया, इस गाने में  लता को सिर्फ  'मैं तो चली साजन की गली रे, यह पंक्ती गाने को मिली थी। बाद में 1959 की 'पतंगा' में लता को दो सोलो गाने मिले। (1. 'ठुकराके ओ जानेवाले. 2. दिल को भुल दो तुम हमें।) इसी 'पतंगा' के दौरान गीतकार राजेंद्रकृष्ण ने अन्ना के संगीत के क्षेत्र में पहली बार कदम रखा था। राजेंद्र के गाने, अन्ना के संगीत, दोनों ने एक साथ कई हिट फिल्में दीं। लता का अन्ना को 1962 की 'बहूरानी' तक संगीत का साथ मिला। वहां से यह जोड़ी टूट गई, लेकिन 26 जनवरी, 1963 को यह तय हुआ कि प्रत्येक हिंदी संगीतकार लाल किले पर आयोजित कार्यक्रम में अपना एक गीत प्रस्तुत करेगा। अन्‍ना ने अन्‍य संगीतकारों की तरह फिल्‍म के एक पुराने गाने को परफॉर्म करने के बजाय एक नए गाने को परफॉर्म करने का फैसला किया। उन्होंने सोचा कि गीत देशभक्ति का होना चाहिए। उन्होंने कवि प्रदीप को ऐसा गीत लिखने के लिए उपयुक्त समझा।  अन्ना द्वारा रचित 1954 के 'नास्तिक' के गीत खुद प्रदीप ने लिखे थे।  अन्ना ने कवि प्रदीप (रामचंद्र नारायण द्विवेदी) से 'पैगम, तलाक, तुलसी विवाह' के लिए गीत लिखकर लिए थे। अन्ना अंधेरी स्थित 'पंचामृत' बंगले में प्रदीप से मिलने गए।  कवि प्रदीप ने कहा, 'अब मैं तूझे याद आया? फिर हाँ' कहकर गीत लिखने को तैयार हो गये। उन्होंने कुल 65 कड़वी लिखीं, जिनमें से 13 कडवियों का चयन कर उन्हें गीतों में ढाला गया। कवि प्रदीप द्वारा लता के अनुरोध के बाद, लता गाने के लिए तैयार हो गईं और अजरामर गीत बनाया गया। 

अन्ना ने एक ईसाई लड़की बेन से प्रेम विवाह किया था।  प्रसव के दिन बेन के पहले बच्चे की मृत्यु हो जाने के बाद, डॉक्टर ने ऊन्हे बताया कि उसे और बच्चे नहीं होंगे। और कुछ समय बाद उन्होंने दूसरी शादी कर ली। इस दूसरी पत्नी से उनके दो बच्चे, एक बेटा और एक बेटी थी। अपनी पत्नी के चले जाने से उदास अन्ना अपने दो बच्चों के स्नेह से बहुत उबर गए। अपने पूरे जीवन के अंतिम चरण का आनंद लेते हुए अन्ना 63 वर्ष की आयु में चुपचाप चल बसे! उनके कई 'भावमाधुर' गीत पीछे छूट गए हैं। अंत में, उनकी केवल एक ही इच्छा रह गई।  पाकिस्तान की तत्कालीन लोकगीत गायिका रेशमा के साथ एक गीत की रचना करने की उनकी इच्छा थी। शुरुआती दिनों में, अन्ना ने "सरगम, शहनाई" आदि के लिए पी. एल. संतोषी द्वारा गीत लिखकर लिये। राजेंद्रकृष्ण के गाने 1950 के "पतंगा" में लिए गए और इसके बाद दोनों ने प्रशंसकों को कई हिट फ़िल्में दीं। हिंदी फिल्म संगीत के इस स्वर्ण युग में आज 80 के दशक की पीढ़ी पली-बढ़ी है। अन्ना के अलावा नौशाद, एस.  डी बर्मन, मदनमोहन, चित्रगुप्त, ओ.  पी  नय्यर, शकर जयकिसन, खय्याम, जयदेव, वसंत देसाई, एन.  दत्ता, गुलाम मोहम्मद, खेमचंद प्रकाश, हुस्नलाल भगतराम, सलिल चौधरी, हेमंत कुमार, ऐसें कई नाम और हर एक का अंदाज अलग। हम दुखी हों या सुखी, इन प्रतिभावान लोगों ने अपने सैकड़ों गीतों से हमारा साथ दिया है। इसने हमें दुःख के समय में जीने का सहारा दिया और सुख के समय में  अपनी संगीत प्रतिभा को जीवन पर उभारा और हमारे जीवन में नई स्फूर्ति लायी। सी रामचंद्र की आखिरी फिल्म 1970 में रिलीज हुई "रूठा ना करो" (फिरोज खान नायक) थी। इसके बाद अन्ना ने विभिन्न गतिविधियों में खुद को शामिल किया और 1982 में उनका निधन हो गया। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली।महाराष्ट्र।

( 5 जनवरी सी.  रामचन्द्र स्मृति दिवस के अवसर पर)

रविवार, 1 जनवरी 2023

(बाल कहानी) अनोखा जन्मदिन

विनया का जन्मदिन निकट था।  वह अपने जन्मदिन का बेसब्री से इंतजार करती थी।  क्योंकि इस दिन उसका काफी लाड़-प्यार किया जाता था।  नए कपड़े, उपहार, केक, दोस्तों के लिए छोटी पार्टी ये सब वह बहुत चाहती थी।  उस दिन वह मानो जन्मदिन के सपने में खोई हुई थी।

तभी उसने दुर्गा दादी की बात सुनी। दुर्गा दादी  घर में काम करने के लिए आती थी। वह विनया की माँ से कह रही थी, " ताईजी, क्या कहूं आपसे!  मेरी छकुली का  जन्मदिन भी उसी दिन है।  मेरी बच्ची जिद कर रही है कि मुझे अपना बर्थडे मनाना चाहिए।  लेकिन मैं तो गरीब औरत हूँ!  और वह लड़की है अनाथ!  मैं अपनी तरफ से कुछ ना कुछ करती रहती हूं । लेकिन बच्ची की हौस मौज नहीं होती।" ऐसा कहकर दुर्गा दादीने आंख में आये आंसू पोछ लिए।

विनया के घर दुर्गादादी कई सालों से घर का काम कर रही थीं।  उनकी पोती छकुली।  विनया से दो साल छोटी।  छकुली जब छोटी थी तब उसके माता-पिता चल बसे थे।  तो दुर्गा दादीने उसकी देखभाल की।  विनया यह सब जानती थी;  लेकिन आज उसने इसे और अधिक तीव्रता से महसूस किया ...

 और उसे बहुत दुख हुआ।  वह कुछ उदास मन से सो गई;  लेकिन उसे नींद नहीं आई।  उसके के मन में बार बार छकुली के विचार आ रहे थे, सोचते-सोचते एकाएक उसके मन में एक सुन्दर विचार आया.... और विनया उस विचार से प्रसन्न होकर चैन की नींद सो गई।

आखिरकार जन्मदिन का दिन आ ही गया।शाम होते ही बर्थडे पार्टी शुरू हो गई... पर आज घर विनया का  नहीं था!  वह झोपड़ी जैसा छोटा कमरा था।  विनया और उसके दोस्तों द्वारा खूबसूरती से सजाया गया।  गुब्बारों... पेनेट्स... एक छोटी सी मेज... एक सुंदर नया आवरण जिस पर महीन बुनाई... एक छोटा फूलदान... उसमें बड़े करीने से लगे फूल... और दीवार पर...!

एक नहीं बल्कि दो दो नाम।  छकुली और विनया!  सामने दो केक ... आकर्षक रंग और स्वाद के!  नई साड़ी में बेहद खूबसूरत थीं दुर्गादादी... और विनया और छकुली!  उन दोनों ने एक जैसा फ्रॉक पहन रखा था।  विनया के बाबा द्वारा लाया गया!

आज छकुली के घर विनया और छकुली का जन्मदिन मनाया जा रहा था।  दोनों के दोस्त और कुछ रिश्तेदार आए थे।  सबका चेहरा खुशी, आश्चर्य और संतोष से भर गया।

विनया की मां ने दोनों को औक्षण किया और बधाई दी। फिर दोनों ने केक काटा।  सभी ने दोनों को तोहफे दिए और ताली बजाकर दोनों के जन्मदिन के गीत गाए और उनके अच्छे स्वास्थ्य की कामना की।  विनया के माता-पिता और रिश्तेदार मनोमन विनया की सराहना कर रहे थे।

उन्हें विनया पर बहुत गर्व था।  विनया का इस तरह जन्मदिन मनाने के विचार से हर कोई खुश था....और दुर्गा दादी की बेटी छकुली बेहद खुश नजर आ रही थी। आज उसका जन्मदिन मनाया गया;  लेकिन साथ ही आज उसे एक नई प्यारी सहेली मिल गई... इसलिए उसकी आँखें निरंजन की लौ की तरह खुशी से चमक उठीं!

(अनुवाद)