बुधवार, 8 फ़रवरी 2023

पाकिस्तान को अब हकीकत समझनी चाहिए

पाकिस्तान के सामने चुनौतियां दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं। आर्थिक स्थिति नाजुक होती जा रही है, महंगाई बढ़ रही है। सरकारी खजाने में नकदी खत्म होने से भी संकट है। 'चीन-पाकिस्तान इकॉनॉमिक कॉरिडॉर’ और अन्य विदेशी ऋणों के माध्यम से लिए गए ऋणों का बकाया बढ़ता जा रहा है। इसी तरह, उधारदाताओं द्वारा लगाई गई शर्तों के कारण, और अधिक मुद्रास्फीति बढ़ने की संभावना है, जो वहां के गरीब लोगों को प्रभावित करेगी। इसके अलावा पाकिस्तान में  ईंधन की किल्लत और पिछले साल आयी बाढ़ से भी हालात खराब हुए हैं। वहां अब अन्न (खाने) की कमी की समस्या का सामना करना पड़ रहा है। आंतरिक राजनीतिक कलह तेज हो गई है। अफगानिस्तान सीमा पर भी अस्थिरता है। वहां बढ़ती धार्मिक कट्टरता अराजकता को आमंत्रण दे रही है। परमाणु हथियारों के लिए खतरा सभी स्थिति का सबसे खराब परिणाम हो सकता है। उस देश में राष्ट्रीय इच्छाशक्ति और एकता की कमी है और सेना में भी फूट पड़ने की संभावना है। इन सब समस्याओं के कारण वर्तमान में लगभग 25 करोड़ नागरिकों का भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है।

पाकिस्तान में अधिकांश मौजूदा समस्याओं के कारण देश के बाहर नहीं बल्कि पाकिस्तान के भीतर ही हैं। इन समस्याओं को नजरअंदाज करना सही रास्ता नहीं है। इनका तत्काल समाधान किए जाने की आवश्यकता है। लेकिन इसे सुलझाने के लिए दूसरे देशों का दखल खतरनाक होगा। इसलिए, पाकिस्तान और उसके सहयोगियों को इस संबंध में तत्काल कार्रवाई करनी होगी। जब कोई देश अस्थिरता के बीच होता है तो उसके पड़ोसी देश भी प्रभावित होते हैं। इसलिए भारत को स्थिति पर नजर रखनी होगी।

पाकिस्तान ने हमेशा हमें एक दुश्मन राष्ट्र माना है;  इसलिए, पाकिस्तान में अस्थिरता के कारण उत्पन्न होने वाली किसी भी चुनौती, संकट का सामना करने के लिए उपयुक्त निवारक उपायों की योजना बनाई जानी चाहिए। अहम सवाल यह है कि क्या पाकिस्तान की मौजूदा स्थिति और जब कूटनीतिक बातचीत के दरवाजे बंद हो गए हैं, तो इस तरह का व्यापक उपाय संभव है। जब पाकिस्तान के प्रधान मंत्री शाहबाज शरीफ ने कहा कि वह कुछ शर्तों के साथ भारत के साथ बातचीत करने के लिए तैयार हैं, तो कई लोगों को आशान्वित महसूस हुआ। लेकिन जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि उस सरकार में कोई एकमत नहीं है। पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय के साथियों ने भारत का अपमान किया। अगर आप पाकिस्तान का इतिहास देखें तो आपको वहां के शासकों के झूठ का अनुभव अक्सर होता रहेगा। उस देश का अब कोई भरोसा नहीं रहा।  इसलिए सवाल उठता है कि इस स्थिति में भारत को क्या भूमिका निभानी चाहिए। पाकिस्तान के मंत्री ऐसा क्यों सोचते हैं कि जब घरेलू समस्याएं इतनी गंभीर हैं तो भारत के साथ मुद्दों को सुलझाना महत्वपूर्ण है?  ऐसा महसूस करने वाले सत्ताधारी कब तक सत्ता में रहेंगे?  अगर वह हटते हैं, तो क्या पाकिस्तान की नीति बदलेगी?  और इस बारे में जनता की राय क्या है?  इसे समझने की जरूरत है। वास्तव में देश को अपनी आंतरिक समस्याओं के समाधान को प्राथमिकता देनी चाहिए।  यदि इनका समाधान हो जाता है तो स्थिति स्वत: ही चर्चा के अनुकूल हो जाएगी।

वर्तमान समय में हमारे देश की कुल जनसंख्या का अधिकांश भाग स्वाधीनता के बाद पैदा हुआ है, इसलिए उन्हें इससे पहले लिए गए निर्णयों के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है। लेकिन इसका भलाबुरा परिणाम उन्हें भुगतना पड़ रहा है। इसलिए उन फैसलों को जानने से हमें अपने देश के निष्पक्ष रुख को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिल सकती है। सन् 1935 से 1951 तक की अवधि की घटनाएँ इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण हैं। अपने संविधान और जम्मू-कश्मीर सहित सभी राज्यों के विलय की प्रक्रिया पर ध्यान दें। यह समझना कि संविधान में जम्मू और कश्मीर के लिए अनुच्छेद 370 को शामिल करने और फिर कानूनी ढांचे के भीतर इसे निरस्त करने के पीछे के तर्क को स्पष्ट करता है। कलात क्षेत्र की स्थिति जहां बलूचिस्तान में उग्रवाद का मुद्दा गंभीर है, कश्मीर मुद्दे के समानांतर हो सकता है। लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि पाकिस्तान के संविधान को अपनाने से पहले कलात का क्षेत्र पाकिस्तान में शामिल था।

औपचारिक और अनौपचारिक दोनों स्तरों पर भारत-पाकिस्तान द्विपक्षीय संबंधों को सुधारने के लिए कई प्रयास किए गए हैं, लेकिन हर बार किसी न किसी कारण से इसे विफल कर दिया गया है। खेलकूद, सांस्कृतिक कार्यक्रमों या व्यापार को बढ़ावा देने के माध्यम से संबंधों को सुधारने के सभी प्रयास अल्पकालिक साबित हुए। पाकिस्तान ने अड़ियल स्टैंड लिया कि कश्मीर मुद्दे को छोड़कर अन्य मुद्दों को हल नहीं किया जा सकता है। पाकिस्तान ने हर बार इस मुद्दे को आगे बढ़ाकर बाकी मसलों के समाधान की प्रक्रिया को भी ठप कर दिया। कई बार बचकानी हरकत कर माहौल खराब कर दिया। उनमें से एक जानबूझकर कश्मीर में अलगाववादियों के साथ बातचीत कर रहा है जबकि द्विपक्षीय वार्ता हो रही है।  ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। इन सबका एकमात्र अपवाद सिंधु नदी बेसिन में द्विपक्षीय जल बंटवारा समझौता है।

भारत ने साफ कर दिया है कि जब तक पाकिस्तान आतंकवाद को बढ़ावा देना बंद नहीं करेगा तब तक कोई बातचीत नहीं होगी। इसलिए, जबकि हाल के दिनों में नए सिरे से बातचीत की उम्मीद जगी है, यह देखना निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है कि क्या पाकिस्तान ने अतीत से कुछ सीखा है। एक तरफ तो बातचीत शुरू करने और दूसरी तरफ आतंकवाद को बढ़ावा देकर वादों को तोड़ने की पाकिस्तानी परंपरा को हम जान गए हैं। मुशर्रफ का तोड़ा वादा सबको याद है। कुल मिलाकर पाकिस्तान का वादे करने और उन्हें तोड़ने का इतिहास रहा है। ऐसा सिर्फ भारत का ही नहीं है, दूसरे देश भी इससे प्रभावित हैं। इस्लाम में सच को सबसे अहम बताया गया है।  लेकिन इस्लाम की बुनियाद पर खड़े होने का दावा करने वाले पाकिस्तान का व्यवहार उसके बिल्कुल विपरीत है। इस्लामिक देशों के संगठन (ऑर्गनायझेशन ऑफ इस्लामिक कंट्रीज’ -ओआयसी) के मंच पर इस मुद्दे पर विस्तृत चर्चा होनी चाहिए। हमें उस दिशा में सोचना चाहिए। अगर इसे ईमानदारी से किया जाता है तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय ही इससे कुछ सीख सकता है।

पाकिस्तान के कुछ दिशानिर्देश हैं।  इनमें इस्लाम, लोकतंत्र, समाजवाद, भारत के साथ समानता प्रमुख हैं। लेकिन कड़वी कट्टरता हकीकत पर भारी पड़ती है। इसलिए वहां घोर असहिष्णुता पैदा हो गई है। यह विविधता की अनुमति नहीं देता है। साथ में उनका भारत विरोधी रवैया। लगातार कह रहे हैं कि भारत हमारे अस्तित्व के लिए खतरा है। दरअसल यही देश भारत के खिलाफ लगातार ऑपरेशन में शामिल है। दरअसल, भारत और पाकिस्तान भौगोलिक दृष्टि से पड़ोसी देश हैं, इसलिए एक-दूसरे से अच्छे संबंध बनाए रखना दोनों की जिम्मेदारी है। मौखिक जादू का युग समाप्त हो गया है। अब हकीकत का सामना करना होगा।  उम्मीद है कि वो देश अब हकीकत को समझेगा। पाकिस्तान को अब भारत के साथ फिर से संबंध सुधारने के लिए अपनी साख बनानी होगी। और होगा ये आशा न छोड़ते हुए सबका विकास हमारा सामूहिक लक्ष्य होना चाहिए। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली (महाराष्ट्र)

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