सोमवार, 27 फ़रवरी 2023

मजदूरों की कमी की हकीकत

कहने की आवश्यकता नहीं है कि यदि देश में युवाओं की संख्या अधिक है तो कार्यशील जनसंख्या भी अधिक होगी। ऐसे में कृषि, उद्योग, सेवा के किसी भी क्षेत्र में श्रमिकों की कमी का कोई कारण नहीं है। यह एक सच्चाई है कि अन्य क्षेत्रों में भले ही कोई कमी नहीं है, लेकिन कृषि क्षेत्र में इसे महसूस किया जाता है। वास्तव में इसकी जड़ें हमारे समाज और अर्थव्यवस्था में देखी जा सकती हैं। चीन ही नहीं, जापान और दक्षिण कोरिया समेत बीस देशों की आबादी इस समय घट रही है। हालांकि, 2061 के बाद भारत की आबादी घटने लगेगी।  तब तक यह बढ़ेगा। 2/3 जनसंख्या 15 से 59 वर्ष की आयु के बीच होने के कारण, भारत ने खुद को युवाओं के देश के रूप में स्थापित किया है।

विश्व की उत्पादक जनसंख्या में भारत की हिस्सेदारी 22 प्रतिशत है। उत्पादक आबादी के उच्च अनुपात के कारण देश वर्तमान में जनसांख्यिकीय लाभांश के दौर से गुजर रहा है। इसका सदुपयोग कर विकास दर को बढ़ाना संभव है। चीन ने ऐसा किया है। साफ है कि हमारी बढ़ती बेरोजगारी से यह मौका बर्बाद हो गया है। जाहिर सी बात है कि आने वाले समय में देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। हालांकि कामकाजी आबादी का अनुपात (68 प्रतिशत) अधिक है, जिसे शास्त्रीय रूप से श्रम बल भागीदारी दर कहा जाता है, वह कम है। इतना ही नहीं यह लगातार कम हो रहा है। श्रम बल भागीदारी दर मतलब काम के लिए उपलब्ध श्रम शक्ति का अनुपात है, जिसमें नियोजित लोग भी शामिल हैं और जो नहीं हैं, लेकिन काम करने के इच्छुक हैं।

भारत में यह दर 2016 में 46 प्रतिशत थी।  यह अब 40 फीसदी पर आ गया है। यानी 100 मजदूरों में से 40 ही काम करते हैं। शेष 60 व्यक्ति काम करने में पूरी तरह सक्षम होने के बावजूद काम करने को तैयार नहीं हैं। देश को पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के लिए इस बाधा को दूर करना होगा। यही दर ब्राजील, वियतनाम, इंडोनेशिया, यूरोपीय संघ के देशों में 60 फीसदी है।  यहां तक ​​कि पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश में भी यह हमसे ज्यादा है। महिलाओं की रोजगार भागीदारी की स्थिति तो और भी खराब है। साथ ही यह लगातार घट रही है।  पिछले पंद्रह वर्षों (2004-05 से 2017-18) में इसमें 50 प्रतिशत की कमी आई है। वह दर 49.4 फीसदी से घटकर 24.6 फीसदी पर आ गई है।

इस दौरान पांच करोड़ महिलाओं ने श्रम बाजार छोड़ा। यानी उन्होंने घर के काम के अलावा कोई काम नहीं करने का फैसला किया है। हालाँकि भारत में यही स्थिति है, वही अनुपात चीन में 61.6 प्रतिशत, ब्रिटेन में 58.04 प्रतिशत और जर्मनी में 56.6 प्रतिशत है। बांग्लादेश, सऊदी अरब जैसे रूढ़िवादी देशों में यह अनुपात भारत से अधिक है। हालांकि, कृषि कार्यों में महिलाओं की भागीदारी अधिक है। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि सभी क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने से जीडीपी में 1.4 फीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है। हल चलाने, बुवाई, पशुपालन आदि जैसे कभी पुरुष प्रधान कार्यों के मशीनीकरण के कारण यद्यपि पुरुषों की भागीदारी कम हुई है, लेकिन महिलाओं की भागीदारी लगभग पहले जैसी ही है। काम में उनकी प्रमुख भूमिका के बावजूद, मजदूरी दर पुरुषों की तुलना में 22 प्रतिशत कम है। सतही तौर पर मजदूरों की बहुतायत दिख रही है, लेकिन ऐसा नहीं है।

उद्योग, सेवा क्षेत्र श्रम प्रचुरता का अनुभव करते हैं। इसलिए उन्हें कम वेतन पर इंजीनियर, श्रमिक, मजदूर मिलते हैं। लेकिन कृषि क्षेत्र को श्रमिकों की कमी का सामना करना पड़ रहा है। इसके अलावा, लगातार बढ़ती मजदूरी का बोझ उठाना पड़ता है। हालांकि मशीनीकरण ने कुछ हद तक कमी की समस्या को हल कर दिया है, लेकिन ऐसा लगता है कि यह एक नया संकट बो रहा है। यही पूँजीवादी कृषि की। स्वच्छ हवा, पानी और प्रकृति से निकटता जैसे तमाम फायदों के बावजूद युवा कृषि में काम करने को तैयार नहीं हैं। एक किसान के पास काम के लिए महिलाओं, बूढ़ों, विकलांगों पर निर्भर रहने के अलावा कोई चारा नहीं है।संचार में आसानी के कारण, शहर एक कालिंग दूरी के भीतर आ गए हैं।  वहां की मजदूरी और सुविधाएं युवाओं को आकर्षित करती हैं।  कृषि और अन्य व्यवसायों में मजदूरी की दरें वर्तमान में ऐसी हैं कि मजदूर को अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए पूरे सप्ताह काम करना आवश्यक नहीं रह गया है। तीन-चार दिन की मजदूरी से सप्ताह भर का खर्च चलता है। सरकारी योजना के माध्यम से रियायती दरों पर अनाज की आपूर्ति के कारण मजदूरों के कार्य दिवसों में और कमी आई है।

देश के हर नागरिक के पास खाद्य सुरक्षा होनी चाहिए। लेकिन आपूर्ति किए जाने वाले अनाज की दर तय करते समय यह भी ध्यान रखना उतना ही जरूरी है कि काम करने का प्रोत्साहन खत्म न हो जाए। नहीं तो भविष्य में देश को खाद्यान्न की कमी का सामना करना पड़ सकता है। कोरोना की महामारी लगभग समाप्त हो चुकी है। लेकिन शराब की बढ़ती आदत ने एक महामारी का रूप ले लिया है। चूंकि सरकार द्वारा ऐसी मौतों को एक्सीडेंटल और अचानक हुई मौतों के तौर पर दर्ज किया जाता है, इसलिए असली वजह सामने नहीं आती है। वंध्यत्व (इनफर्टिलिटी) की बढ़ती दरों, लिवर की बीमारी के कारण होने वाली मौतों की संख्या भी  बढ़ गई है। सर्वे में सामने आया कि 15 साल से कम उम्र के हर पांच में से एक व्यक्ति इस आदत में शामिल है। कुछ राज्यों में यह अनुपात इससे अधिक है।

सर्वेक्षण के अनुसार, महाराष्ट्र में यह 13.9 प्रतिशत है।  यह देखा गया है कि यह शहरों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक है। अध्ययनों से पता चला है कि शराब की आसान उपलब्धता और इसकी लत लगने की प्रकृति के बीच घनिष्ठ संबंध है। आधिकारिक, अनौपचारिक दुकानों, ढाबों और बार-बार होने वाले चुनावों ने गांव की सूरत बदल दी है। पहले गाँव में शराबी दुर्लभ थे, अब पांडुरंग ( ईश्वर) के भक्त दुर्लभ हैं, बस इतना ही अंतर है! श्रम शक्ति के बीच पीने की बढ़ती आदतों के प्रभाव, इसकी उपलब्धता और उनके प्रदर्शन पर इसके प्रभाव को नकारना वास्तविकता से आंखें मूंद लेना है। सरकार को राजस्व से परे शराब पर टैक्स के बारे में सोचने की जरूरत है। कार्य संस्कृति में मूल रूप से हमारे पास जो कमी है, उसमें रेलचेल ने त्योहारों, बाजारों, मेलों, चुनाव, धार्मिक और सामाजिक आयोजनों से जोड़ दिया है।

महाराष्ट्र सहित दक्षिणी राज्यों में श्रम की कमी, चाहे कृषि या अन्य क्षेत्रों में, आंशिक रूप से बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ के अर्ध-कुशल और अकुशल श्रमिकों द्वारा की जाती है। इन प्रवासी श्रमिकों ने महाराष्ट्र और अन्य राज्यों के विकास में योगदान देने के साथ-साथ इन राज्यों में मजदूरी दर को कम रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। गौर करने वाली बात यह है कि अब इन राज्यों में भी विकास की बयार बह रही है। संभावना है कि भविष्य में यह प्रवाह भी सूख जाएगा। इसलिए संभावना है कि आने वाले समय में राज्य में मजदूरों की कमी बढ़ेगी और मजदूरी दर में और इजाफा होगा। यह कृषि सहित अन्य क्षेत्रों के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है। इसे ध्यान में रखते हुए राज्य सरकार को इस पर गंभीरता से विचार कर कोई समाधान निकालने की जरूरत है। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली (महाराष्ट्र)

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