रविवार, 12 नवंबर 2023

मुफ़्त अनाज दे देंगे; लेकिन रोजगार मत मांगो

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के 80 करोड़ लोगों तक मुफ्त अनाज देने की योजना को आगे बढ़ाया है।उन्होंने ये घोषणा ऐसे राज्य में की जहां विधानसभा चुनाव हो रहे है। उन्होंने एक सार्वजनिक अभियान सभा में इसकी घोषणा की।  क्या यह रेवड़ी संस्कृति नहीं है? कोरोना-19 वायरस के संक्रमण के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लॉकडाउन अवधि के दौरान घोषणा की थी।  उस समय गरीबों को मुफ्त पांच किलो अनाज देने की योजना शुरू की गई थी।  मोदी सरकार को इस योजना की अवधि लगातार बढ़ानी पड़ी। हर साल में कहीं ना कहीं चुनाव हो रहे हैं।क्या चुनाव जीतने के लिए यह योजना जारी रखी गई है? या सचमुच 80 करोड़ लोगों को मुफ्त भोजन की आवश्यकता है? एक ओर विश्व महाशक्ति की मीनारें खड़ी करते समय क्या हमें इस तथ्य को नजरअंदाज कर देना चाहिए कि यदि हमारे देश के गरीबों को मुफ्त भोजन नहीं दिया गया तो उन्हें भुखमरी का सामना करना पड़ेगा? इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि इतने सालों तक सत्ता में रहने के बावजूद गरीबों की संख्या में बढ़ोतरी सरकारी योजना की तरह हो रही है और 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज दे रही है। यह वास्तव में शर्मनाक है।

वास्तव में मुफ्त अनाज योजना का विस्तार राज्य और लोकसभा चुनाव जीतने के लिए मोदी का हथियार है। इस योजना से देश की गरीबी की स्थिति दुनिया के सामने आ जायेगी और देश की बदनामी होगी।  लेकिन सवाल सत्ता का है। लेकिन देश की 140 करोड़ आबादी में से 80 करोड़ लोगों की स्थिति का जिम्मेदार कौन है, ये सवाल भी पूछा जाएगा। दिसंबर 2028 तक मुफ्त अनाज दिया जाएगा।  इससे केंद्र सरकार पर 10 लाख करोड़ का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा।  सरकार इस पर हर साल दो लाख करोड़ रुपये खर्च करती है।

पिछले साल मोदी ने कहा था कि 'रेवड़ी संस्कृति' देश के विकास के लिए बेहद खतरनाक है। मुफ़्त योजनाओं का लालच दिखाकर उनका वोट लेने की संस्कृति आ रही है।  उन्होंने ऐसे लोगों से सावधान रहने की सलाह दी थी। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की 'मुफ्त योजनाओं' की मार दिल्ली में बीजेपी और कांग्रेस पर भी पड़ी थी। यहीं से मोदी की डिक्शनरी में  से 'रेवड़ी कल्चर' इस शब्द का परिचय बीजेपी के लोगों को हुआ है। यदि सूचना के अधिकार के तहत यह पूछा जाए कि किस उद्योगपति का कितना कर्ज माफ किया गया तो मामले को गोपनीय श्रेणी में रखा जाता है।इसलिए कर्जमाफी के लाभार्थी कौन हो सकते हैं, इस पर विचार करते समय दो-चार उद्योगपतियों के नाम आंखों के सामने आ जाते हैं।
2017 में घोषणा की गई थी कि हम यह सुनिश्चित करने के लिए 'इलेक्टोरल बॉन्ड' की योजना ला रहे हैं कि राजनीतिक दलों को चुनावों के लिए मिलने वाला फंड पारदर्शी रहे और सरकार चुनावों को पारदर्शी और स्वच्छ बनाने के लिए कदम उठाएगी। जब याचिकाओं पर सुनवाई शुरू हुई तो सरकार ने कहा कि नागरिकों को यह जानने का अधिकार नहीं है कि ये चंदा किससे मिला.  इस पारदर्शी दिखावे को क्या कहें?
'रेवड़ी संस्कृति' का मामला सुप्रीम कोर्ट में भी गया। तमिलनाडु में 2006 में मुफ्त चिजें देने शुरू की गई थी।  कई लोगों को वह घटना याद होगी जब डीएमके ने सत्ता में आने पर मुफ्त रंगीन टीवी देने का वादा किया था।इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को आचार संहिता तैयार करने का आदेश दिया था। भारतीय रिजर्व बैंक ने भी अपनी रिपोर्ट में बताया है कि मुफ्त योजनाओं की वजह से राज्यों पर कर्ज का पहाड़ टूट पड़ा है। लेकिन मुफ्त योजनाओं ने अब क्षेत्रीय पार्टियों को भी संक्रमित कर दिया है।  मुफ़्त अनाज दे देंगे;  लेकिन रोजगार मत मांगो, ये नया मंत्र अब देश में फैलने की कोशिश कर रहा है। यह निश्चित रूप से विकास का पूरक नहीं है।
भारत को युवाओं का देश कहा जाता है।  लेकिन सरकार के पास उनके हाथों को काम देने की क्षमता नहीं है। सत्ता में बने रहने की चाहत हर राजनीतिक दल को हो सकती है।  लेकिन रोजगार सृजन का लक्ष्य हासिल किए बिना पांच साल तक मुफ्त अनाज देने के खतरों को भी ध्यान में रखना चाहिए। केंद्र सरकार की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक, 31 मार्च 2014 तक भारत सरकार पर 55.87 लाख करोड़ रुपये का कर्ज था।  2022-23 के ताजा आंकड़ों के मुताबिक सरकार पर कुल कर्ज 152.61 लाख करोड़ रुपये है। मोदी ने पिछले नौ साल में पिछले 14 प्रधानमंत्रियों की तुलना में तीन गुना ज्यादा कर्ज लिया है। इसके चलते देश में प्रति व्यक्ति कर्ज एक लाख से ज्यादा है।  मोदी सरकार ने इस कर्ज का क्या किया यह भी एक सवाल है। यह कैसे कहा जा सकता है कि मतदाताओं को यह नहीं पता कि रेवड़ी संस्कृति को कौन कायम रख रहा है? यदि वास्तविक युवाओं को नौकरियां दी जाएं तो मुफ्त अनाज देने की जरूरत नहीं पड़ेगी।  लेकिन ये बात मोदी को कौन बताएगा?
- मच्छिंद्र ऐनापुरे, जत जि. सांगली

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