रविवार, 14 मई 2023

नई शिक्षा नीति के प्रभावी क्रियान्वयन की है जरूरत

हाल ही में नई शिक्षा नीति की घोषणा की गई है। नई शिक्षा नीति से छात्रों के पेशेवर कौशल का विकास होगा और वे नौकरी मांगने वाले नहीं, बल्कि दूसरों को नौकरी देने वाले बनेंगे। भविष्य को देखते हुए विद्यार्थी का विकास होगा। समय की भी यही मांग है। समय चरणों चरणों में बदलता है। पहले जमाना अलग था, तब जरूरतें अलग थीं। अगर हमें राष्ट्रीय स्तर की बात करनी है तो हमारा देश विश्व महाशक्ति बनना चाहिए। एक तस्वीर है कि अगर शिक्षा में क्रांति की योजना और उसका क्रियान्वयन योजना के अनुसार किया जाता है, तो यह नीति निश्चित रूप से समग्र विकास की ओर ले जाएगी।

स्वामी विवेकानंद की शिक्षा की परिभाषा इस प्रकार है। शिक्षा का मतलब मनुष्य में होने वाले पूर्णता की अभिव्यक्ति है। स्वतंत्रता-पूर्व काल में जनहित के पैरोकारों ने कहा कि भारतीयों के लिए अंग्रेजी शिक्षा अनिवार्य है और प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से दी जानी चाहिए। आगे विष्णु शास्त्री चिपलूणकर, गोपाल गणेश आगरकर, महर्षी धोंडो केशव कर्वे, डॉ.  बाबासाहेब अंबेडकर, महात्मा गांधी जैसे महापुरुषों ने इस विचार को आगे बढ़ाने का प्रयास किया और इसमें कुछ हद तक सफलता भी मिली। यह उस समय की मांग थी।

नवोदय विद्यालय की अवधारणा- 1985 की नई शिक्षा नीति से देश भविष्य की ओर देखने लगा। नवोदय विद्यालयों की अवधारणा राजीव गांधी के दौर में आई थी। इसमें ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिभावान बच्चों को खोजने और उन्हें स्वतंत्र शिक्षा देने का एक अभिनव संकल्प था। आज हम देखते हैं कि वह बहुत सफल रहा। उससे पहले देश की शिक्षा नीति तय करते समय भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा बनाए गए आईआईटी का आज वैश्विक प्रभाव है। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नई शिक्षा नीति में मानवविद्या (मनुष्य जाति का विज्ञान) को शामिल कर भविष्य में समाजशास्त्र के लिए अच्छा संकेत दिया है। बदलते समय के अनुसार या उस परिस्थिति में जो आवश्यक था, उस समय के नेतृत्व द्वारा लिए गए निर्णय सही थे, उसे गलत नहीं कहा जा सकता।

परिवर्तन का एक नया तरीका- केंद्र सरकार ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लाकर स्कूल और उच्च शिक्षा व्यवस्था में बदलाव का मार्ग प्रशस्त किया है। एमएचआरडी का नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय कर दिया गया। 1985-86 में लागू की गई पुरानी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के बाद यह 21वीं सदी की पहली शिक्षा नीति है। जिसने 34 साल पुरानी शिक्षा नीति की जगह ले ली। नई शिक्षा नीति चार स्तंभों पर आधारित है: प्रवेश, समानता, गुणवत्ता और जवाबदेही।

प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से ही- 10-2 संरचना को 5-3-3-4 संरचना द्वारा प्रतिस्थापित किया जाएगा। जिसमें बारह साल का स्कूल और तीन साल का आंगनबाड़ी प्री-स्कूल शामिल होगा। सबसे महत्वपूर्ण भाषा नीति है। त्रिभाषा सूत्र इस नीति में शामिल है। प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही दी जाएगी, जहां तक ​​संभव हो आठवीं कक्षा तक की शिक्षा मातृभाषा में दी जाएगी। भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने के लिए एक नीति तैयार की गई है। ज्ञान की हमारी पारंपरिक भाषा संस्कृत है। उसके विकास को बढ़ावा मिलेगा। भाषाओं के विकास और समृद्धि के लिए विश्व की सभी भाषाओं की श्रेष्ठ पुस्तकों का आंतरभारती के माध्यम से भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया जाएगा। कई महान भारतीय भाषाओं की पुस्तकों का अन्य भारतीय और पश्चिमी भाषाओं में अनुवाद किया जाएगा।  इसके लिए इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रांसलेशन एंड इंटरप्रिटेशन की स्थापना की जाएगी।

राष्ट्रीय शिक्षा आयोग की स्थापना - नई शिक्षा प्रणाली में एक राष्ट्रीय शिक्षा आयोग बनाया गया है और इसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री होंगे। मानव संसाधन के बजाय शिक्षा मंत्रालय यह एक नया खाता बनाया गया है, जिसके मंत्री राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के उपाध्यक्ष होंगे। यह आयोग बनाया जाएगा जिसके पास देश की सभी शिक्षा के संबंध में पूर्ण अधिकार होगा। घटक राज्य भी इस तरह के आयोग का गठन कर सकते हैं। प्रावधान है कि घटक राज्यों में इस आयोग का प्रमुख उस राज्य का मुख्यमंत्री होगा और उस राज्य का शिक्षा मंत्री उप प्रमुख होगा।

निजी संस्थानों पर ध्यान दें - छात्रों के प्रवेश को लेकर निजी संस्थानों के माध्यम से सरकार का काफी बोझ कम हो जाता है। इसलिए सरकार को समय-समय पर निजी संगठनों का समर्थन करने की आवश्यकता है। इस संबंध में नवीन पाठ्यक्रम प्रारंभ करते समय संबंधित अनुमति, जिसका अनुदान स्वीकृत हो, समय से प्राप्त कर लें। मापदंड हो, इंफ्रास्ट्रक्चर का निरीक्षण जरूरी हो;  लेकिन देरी की नीति नहीं होनी चाहिए। विभिन्न अनुमतियां प्राप्त करने के लिए सरकारी कार्यालय में कोई देरी नहीं होनी चाहिए।

निजी शिक्षण संस्थानों के लिए गुंजाइश- इस नीति में सरकार का शिक्षा पर न्यूनतम नियंत्रण होगा तथा निजी शिक्षण संस्थानों को अधिकतम सहयोग दिया जायेगा। हालांकि केंद्र सरकार मुख्य रूप से इस बात पर ध्यान देगी कि शिक्षा व्यवस्था विश्वस्तरीय बनी रहे। ऐसा करते हुए नई शिक्षा नीति में करीब 15 हजार विश्वविद्यालय और करीब 40 हजार कॉलेज बनाने की परिकल्पना की गई है। इसमें निजी संस्थाओं को पर्याप्त अवसर देकर स्वायत्त बनाने की मंशा व्यक्त की गई है। ये स्वायत्त शिक्षण संस्थान अपनी परीक्षाएं स्वयं आयोजित कर सकते हैं और अपना स्वयं का डिग्री प्रमाण पत्र जारी कर सकते हैं। इसके पीछे का उद्देश्य बहुत उचित है।  सबसे ज्यादा संख्या निजी शिक्षण संस्थानों में है।

कोडिंग शिक्षा 6 कक्षा से- राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कुछ बड़े सुधार 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षाओं के साथ जारी रहेंगे। लेकिन समग्र विकास की दृष्टि से पुनर्गठन किया जाएगा। मैथमैटिकल थिंकिंग और साइंटिफिक नेचर, कोडिंग 6वीं क्लास से शुरू होगी।स्कूल में छठी कक्षा से ही व्यावसायिक शिक्षा शुरू हो जाएगी।  जिसमें इंटरशिप भी शामिल होगी। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, जत जि. सांगली

बुधवार, 10 मई 2023

भविष्य में पानी को लेकर संघर्ष भड़कने की संभावना

आने वाले समय में दुनिया को पानी की कमी का सामना करना पड़ेगा। हमारे पास इस संबंध में उपायों की कमी है;  योजनाओं की योजना बनाने और क्रियान्वयन में देरी से प्रयासों में बाधा आ रही है।इसलिए सरकार को उपाय करना चाहिए।  दुनिया भर में अरबों लोग अभी भी सुरक्षित, स्वच्छ पेयजल के बिना जी रहे हैं। हालांकि सुरक्षित, स्वच्छ एक अधिकार है, लेकिन अरबों लोग इससे दूर हैं।  पानी और गरीबी का गहरा संबंध है। जल के बिना विकास नहीं होता और विकास के बिना गरीबी उन्मूलन असम्भव है। अगर विकास करना है तो दुनिया के सामने मौजूद ज्वलंत मुद्दों का समाधान खोजना जरूरी है। जल इसमें मूल और महत्वपूर्ण तत्व है। पहला संयुक्त राष्ट्र जल सम्मेलन मार्च में आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन में इस बात पर चर्चा हुई कि 2030 तक विश्व में सभी को पेयजल उपलब्ध हो, इसके लिए सतत विकास की आवश्यकता है। दुनिया भर में उपलब्ध पानी का कुल 70% कृषि के लिए उपयोग किया जाता है;  जबकि 22 फीसदी पानी घरेलू उपयोग में खर्च होता है। उद्योगों के लिए 9% पानी का उपयोग किया जाता है।  लेकिन कुल पानी का 50% भूमिगत स्रोतों से उपयोग किया जाता है। सत्रह देशों में लगभग 1.8 बिलियन लोग, या दुनिया की एक चौथाई आबादी, जल संकट का सामना कर रही है। 

अगले कुछ वर्षों में गंभीर कमी की संभावना के साथ, एक समय ऐसा आएगा जब आने वाली पीढ़ियां कैप्सूल के रूप में पानी देखेंगी। देशों की रैंकिंग और उनका जोखिम स्तर इस प्रकार है - कतर -4.97 बहुत अधिक, इज़राइल -4.82, लेबनान -4.82, ईरान -4.57, जॉर्डन -4.56, लीबिया -4.55, कुवैत -4.43, सऊदी अरब -4.35, इरिट्रिया - 4.33, संयुक्त अरब अमीरात- 4.26, सैन मैरिनो- 4.14, बहरीन- 4.13, भारत- 4.12 बहुत अधिक। (स्रोत: वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट का एक्वाडक्ट वॉटर रिस्क एटलस)। अत्यधिक उच्च जल तनाव के जोखिम वाले देशों की सूची में तेरहवें स्थान पर भारत, श्रेणी में अन्य 16 देशों की आबादी का तीन गुना है। भारत की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या का अठारह प्रतिशत है। हमारा उपलब्ध पानी वैश्विक भंडार का केवल 4% है। इतना ही नहीं, आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को प्रतिदिन अत्यधिक जल संकट का सामना करना पड़ रहा है। कुल भारतीय आबादी के लगभग छह प्रतिशत लोगों को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध नहीं है। लगभग 54% भारतीयों के पास दैनिक घरेलू स्नान और शौचालय के उपयोग के लिए पानी की सुविधा नहीं है। 

हाल ही में संसद में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता दिन प्रतिदिन घटती जा रही है। बढ़ती आबादी और पानी के अत्यधिक दोहन के कारण भूजल स्तर घट रहा है। परिणामस्वरूप 2001 में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 1.8 लाख 16 हजार लीटर प्रतिवर्ष थी जो 2011 में घटकर 1.5 लाख 45 हजार लीटर रह गई। 2021 में अगर यह मात्रा 14 लाख 86 हजार लीटर हो जाती है;  वर्ष 2031, 2041 एवं 2051 में जल उपलब्धता में क्रमशः 1486 घन मीटर, 1367 घन मीटर, 1282 घन मीटर की कमी हो सकती है। 

जलवायु परिवर्तन और बढ़ते समुद्र के स्तर के कारण देश के विभिन्न हिस्सों में सूखे की स्थिति सुरक्षित पेयजल या स्वच्छता के लिए पानी को अपर्याप्त बना रही है। ग्लोबल वार्मिंग, तेजी से हो रहे औद्योगीकरण, जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई, भूजल स्तर में कमी और वर्षा की अनियमितता, बढ़ते प्रदूषण के कारण कई जगहों पर जलाशयों और झीलों  गायब हो रहे हैं।बेशक, ऐसा नहीं है कि सभी स्तरों पर अरुचि है। कई जगहों पर पानी के पुनर्चक्रण, नदियों को शुद्ध या पुनर्जीवित करने की पहल की गई है। लेकिन ये गतिविधियाँ जल संकट से उबरने में कितनी उपयोगी होंगी? 2019 में, देश के 256 पानी की कमी वाले जिलों में जल शक्ति अभियान चलाया गया। आज यह 740 जिलों में चल रहा है। इस मामले को केंद्र और राज्य सरकारों को गंभीरता से लेना चाहिए। अक्सर, नीतियों या जल कानूनों में त्रुटियां, प्रावधान देश में समग्र जल प्रबंधन पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। सतह और भूमिगत जल, पेयजल, कृषि जल और औद्योगिक जल के संबंध में नीति में कई खामियां या दोष हैं। केंद्र ने आजादी की वर्षगांठ के वर्षों के दौरान प्रत्येक जिले में कम से कम पचहत्तर जल जलाशयों या तालियों को पुनर्जीवित करने की योजना बनाई है। 

भूजल स्तर को बढ़ाने के लिए, केंद्र सरकार ने 2019 के मास्टर प्लान के तहत देश भर में 1.11 करोड़ जल संचयन परियोजनाएं स्थापित करने की योजना बनाई है। केंद्र सरकार ने 2015 में अटल मिशन के तहत देश के 500 शहरों को पांच साल के लिए चुना है। इसमें जल आपूर्ति से लेकर वर्षा जल संचयन तक की योजनाएं हैं। फिर भी पानी की किल्लत बनी हुई है। इसके उदाहरण चेन्नई और बैंगलोर हैं। भविष्य में अन्य शहरों में भी ऐसा ही जल संकट महसूस किया जा सकता है। इसलिए अगर समय रहते कदम नहीं उठाए गए तो भविष्य में पानी को लेकर संघर्ष भड़क सकता है। कई देशों ने पानी की कमी को सफलतापूर्वक दूर कर लिया है। इज़राइल ने ड्रिप सिंचाई का सफलतापूर्वक उपयोग कर दुनिया के सामने एक मिसाल कायम की है। आज वे जॉर्डन को पानी निर्यात करते हैं। सिंगापुर की चालीस प्रतिशत ज़रूरतें जल पुनर्चक्रण के माध्यम से पूरी की जाती हैं। हम एक अकुशल दुनिया में रहते हैं जहां पानी की कमी है और पानी एक ही समय में बर्बाद हो जाता है। समय रहते ठोस और उचित उपाय किए जाने चाहिए।  अन्यथा, निकट भविष्य में पानी को लेकर संघर्ष भड़कने की संभावना है। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, जत जि. सांगली