एक बार एक राजा अपने साथियों के साथ शिकार खेलने जंगल में गया। वहां हिरण का पीछा करते करते वह जंगल में बहुत दूर निकल गया। उसके साथी भी उससे छूट गये। उसकी सेना ने राजा की खोज शुरू कर दी। एक सिपाही राजा को ढूंढते हुए झोपड़ी के पास आया। साधु को एक पेड़ के नीचे बैठा देखकर उसने कहा, "क्या रे, क्या तुमने हमारे राजा को यहाँ से जाते हुए देखा?"
साधु ने विनम्रतापूर्वक कहा, "हे मेरे भाई, मैं अंधा हूँ, मैं कैसे देख सकता हूँ?"
"मैं जानता हूँ कि तुम अंधे हो," सिपाही ने कहा, "लेकिन क्या तुमने घोड़ों की टापों की आवाज़ सुना नहीं?" वह गुस्से में चला गया।
सेनापति आया। कहा,"हे साधू, क्या आप ने राजा को इस ओर से गुजरते हुए देखा?"
साधु ने कहा, "नहीं, लेकिन एक सिपाही आया और उत्तर की ओर चला गया।"
बाद में प्रधान आया और उसने भी पूछा, " साधूश्रेष्ठ, जब हम शिकार पर गए, तो राजा और हम दोनों खो गए। क्या आप इस बारे में कुछ भी जानते हैं?"
साधु ने 'नहीं' कहा और वह चला गया।
कुछ देर बाद राजा स्वयं वहां आया। साधु को देखते ही उसने विनम्रता से कहा, "हे भगवन, मुझे बहुत प्यास लगी है, क्या मुझे थोड़ा पानी मिल सकता है?"
साधु ने कहा, "आपका स्वागत है, राजा। पहले कुछ कंद खा लें। फिर पानी पियो।"
राजा हैरान रह गया। अंधा होकर भी साधु ने मुझे कैसे पहचाना?
साधु ने कहा, "पहले एक सिपाही तुम्हें देखने आया, फिर सेनापति और प्रधान और अब तुम?"
"लेकिन आप ने मुझे कैसे पहचाना?" राजा ने पूछा।
साधु ने कहा, “किसी व्यक्ति को उसके शब्दों से आंका जा सकता है। अंधा कहा वह सिपाही था। साधु कहा वह सेनापति था, साधुश्रेष्ठ कहा वह प्रधान और भगवन कहा वह राजा। "
अर्थ - आदरपूर्ण वाणी से शील का पता चलता है और भाषा से संस्कृति का पता चलता है। -मच्छिंद्र ऐनापुरे, सांगली (महाराष्ट्र)
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